Listen सूक्ष्म विषय‒ज्ञानरूप अग्निसे
सम्पूर्ण कर्मके भस्म होनेका कथन । यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते
तथा ॥ ३७ ॥ अर्थ‒हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित
अग्नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती
है !
व्याख्या‒‘यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्
कुरुतेऽर्जुन’‒पीछेके श्लोकमें भगवान्ने ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा सम्पूर्ण
पाप-समुद्रको तरनेकी बात कही । उससे यह
प्रश्न पैदा होता है कि पापसमुद्र तो शेष
रहता ही है, फिर
उसका क्या होगा ? अतः भगवान् पुनः दूसरा दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि
जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठादि सम्पूर्ण ईंधनोंको इस प्रकार भस्म कर देती है कि उनका
किंचिन्मात्र भी अंश शेष नहीं रहता, ऐसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण पापोंको इस प्रकार भस्म
कर देती है कि उनका किंचिन्मात्र भी अंश शेष नहीं रहता । ‘ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि
भस्मसात्कुरुते तथा’‒जैसे अग्नि काष्ठको भस्म कर देती है, ऐसे ही तत्त्वज्ञानरूपी अग्नि संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण‒तीनों कर्मोंको भस्म कर देती है । जैसे
अग्निमें काष्ठका अत्यन्त अभाव हो जाता है, ऐसे ही तत्त्वज्ञानमें सम्पूर्ण कर्मोंका
अत्यन्त अभाव हो जाता है । तात्पर्य यह है कि ज्ञान होनेपर
कर्मोंसे अथवा संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर संसारकी
स्वतन्त्र सत्ताका अनुभव नहीं होता, प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व
ही शेष रहता है । वास्तवमें मात्र क्रियाएँ
प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं (गीता‒तेरहवें अध्यायका उनतीसवाँ
श्लोक) । उन क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध मान लेनेसे
कर्म होते हैं । नाड़ियोंमें रक्त-प्रवाह होना, शरीरका बालकसे जवान होना, श्वासोंका आना-जाना, भोजनका पचना आदि क्रियाएँ जिस समष्टि
प्रकृतिसे होती हैं, उसी प्रकृतिसे खाना-पीना, चलना, बैठना, देखना, बोलना आदि क्रियाएँ भी होती हैं । परन्तु
मनुष्य अज्ञानवश उन क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध मान लेता है अर्थात् अपनेको उन क्रियाओंका
कर्ता मान लेता है । इससे वे क्रियाएँ ‘कर्म’ बनकर मनुष्यको बाँध देती हैं । इस प्रकार
माने हुए सम्बन्धसे ही कर्म होते हैं, अन्यथा क्रियाएँ ही होती हैं ।
तत्त्वज्ञान होनेपर अनेक जन्मोंके संचित
कर्म सर्वथा नष्ट हो जाते हैं । कारण कि सभी संचित कर्म अज्ञानके आश्रित रहते हैं; अतः ज्ञान होते ही (आश्रय, आधाररूप अज्ञान न रहनेसे) वे नष्ट हो जाते हैं । तत्त्वज्ञान
होनेपर कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता; अतः सभी क्रियमाण कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फलजनक
नहीं होते । प्रारब्ध कर्मका घटना-अंश (अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति) तो जबतक शरीर रहता है, तबतक रहता है; परन्तु ज्ञानीपर उसका कोई असर नहीं
पड़ता । कारण कि तत्त्वज्ञान होनेपर भोक्तृत्व नहीं रहता; अतः अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति सामने
आनेपर वह सुखी-दुःखी नहीं होता । इस प्रकार तत्त्वज्ञान होनेपर संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण‒तीनों कर्मोंसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध
नहीं रहता । कर्मोंसे अपना सम्बन्ध न रहनेसे कर्म नहीं रहते, भस्म रह जाती है अर्थात् सभी कर्म अकर्म
हो जाते हैं । രരരരരരരരരര |