।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
आश्‍विन कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०८०, सोमवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒पूर्वश्‍लोकमें ‘एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म’ पदोंसे कर्मोंको जाननेकी बात कही गयी थी । अब भगवान् आगेके श्‍लोकसे कर्मोंको ‘तत्त्व’ से जाननेके लिये प्रकरण आरम्भ करते हैं ।

प्रधान विषय‒१६३२ श्‍लोकतक‒कर्मोंके तत्त्वका और तदनुसार यज्ञोंका वर्णन ।

सूक्ष्म विषय‒कर्म-तत्त्वके वर्णनका उपक्रम ।

   किं  कर्म   किमकर्मेति  कवयोऽप्यत्र  मोहिताः ।

 तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १६ ॥

अर्थ‒कर्म क्या है और अकर्म क्या है‒इस प्रकार इस विषयमें विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं । अतः वह कर्म-तत्त्व मैं तुझे भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभ (संसार-बन्धन)-से मुक्त हो जायगा ।

कर्म = कर्म

तत् = वह

किम् = क्या है (और)

कर्म = कर्म-तत्त्व (मैं)

अकर्म = अकर्म

ते = तुझे

किम् = क्या है‒

प्रवक्ष्यामि = भलीभाँति कहूँगा

इति = इस प्रकार

यत् = जिसको

अत्र = इस विषयमें

ज्ञात्वा = जानकर (तू)

कवयः = विद्वान्

अशुभात् = अशुभ (संसार-बन्धन)-से

अपि = भी

मोक्ष्यसे = मुक्त हो जायगा ।

मोहिताः = मोहित हो जाते हैं । (अतः)

 

व्याख्या‘किं कर्म’साधारणतः मनुष्य शरीर और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको ही कर्म मान लेते हैं तथा शरीर और इन्द्रियोंकी क्रियाएँ बंद होनेको अकर्म मान लेते हैं । परन्तु भगवान्‌ने शरीर, वाणी और मनके द्वारा होनेवाली मात्र क्रियाओंको कर्म माना है‒‘शरीरवाङ्‍मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः’ (गीता १८ । १५) ।

भावके अनुसार ही कर्मकी संज्ञा होती है । भाव बदलनेपर कर्मकी संज्ञा भी बदल जाती है । जैसे, कर्म स्वरूपसे सात्त्विक दीखता हुआ भी यदि कर्ताका भाव राजस या तामस होता है, तो वह कर्म भी राजस या तामस हो जाता है । जैसे, कोई देवीकी उपासनारूप कर्म कर रहा है, जो स्वरूपसे सात्त्विक है । परन्तु यदि कर्ता उसे किसी कामनाकी सिद्धिके लिये करता है, तो वह कर्म राजस हो जाता है और किसीका नाश करनेके लिये करता है, तो वही कर्म तामस हो जाता है । इसी प्रकार यदि कर्तामें फलेच्छा, ममता और आसक्ति नहीं है, तो उसके द्वारा किये गये कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं अर्थात् फलमें बाँधनेवाले नहीं होते । तात्पर्य यह है कि केवल बाहरी क्रिया करने अथवा न करनेसे कर्मके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान नहीं होता । इस विषयमें शास्‍त्रोंको जाननेवाले बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं अर्थात् कर्मके तत्त्वका यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते । जिस क्रियाको वे कर्म मानते हैं वह कर्म भी हो सकता है, अकर्म भी हो सकता है और विकर्म भी हो सकता है । कारण कि कर्ताके भावके अनुसार कर्मका स्वरूप बदल जाता है । इसलिये भगवान् मानो यह कहते हैं कि वास्तविक कर्म क्या है ? वह क्यों बाँधता है ? कैसे बाँधता है ? इससे किस तरह मुक्त हो सकते हैं ?‒इन सबका मैं विवेचन करूँगा, जिसको जानकर उस रीतिसे कर्म करनेपर वे बाँधनेवाले न हो सकेंगे ।

यदि मनुष्यमें ममता, आसक्ति और फलेच्छा है, तो कर्म न करते हुए भी वास्तवमें कर्म ही हो रहा है अर्थात् कर्मोंसे लिप्‍तता है । परन्तु यदि ममता, आसक्ति और फलेच्छा नहीं है, तो कर्म करते हुए भी कर्म नहीं हो रहा है अर्थात् कर्मोंसे निर्लिप्‍तता है । तात्पर्य यह है कि यदि कर्ता निर्लिप्‍त है तो कर्म करना अथवा न करना‒दोनों ही अकर्म हैं और यदि कर्ता लिप्‍त है तो कर्म करना अथवा न करना‒दोनों ही कर्म हैं और बाँधनेवाले हैं ।

किमकर्मेति’‒भगवान्‌ने कर्मके दो भेद बताये हैं‒कर्म और अकर्म । कर्मसे जीव बँधता है और अकर्मसे (दूसरोंके लिये कर्म करनेसे) मुक्त हो जाता है ।

कर्मोंका त्याग करना अकर्म नहीं है । भगवान्‌ने मोहपूर्वक किये गये कर्मोंके त्यागको ‘तामस’ बताया है (गीता‒अठारहवें अध्यायका सातवाँ श्‍लोक) । शारीरिक कष्‍टके भयसे किये गये कर्मोंके त्यागको ‘राजस’ बताया गया है (गीता‒अठारहवें अध्यायका आठवाँ श्‍लोक) । तामस और राजस त्यागमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग होनेपर भी कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । कर्मोंमें फलेच्छा और आसक्तिका त्याग ‘सात्त्विक’ है (गीता‒अठारहवें अध्यायका नवाँ श्‍लोक) । सात्त्विक त्यागमें स्वरूपसे कर्म करना भी वास्तवमें अकर्म है; क्योंकि सात्त्विक त्यागमें कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । अतः कर्म करते हुए भी उससे निर्लिप्‍त रहना वास्तवमें अकर्म है ।

शास्‍त्रोंके तत्त्वको जाननेवाले विद्वान् भी अकर्म क्या है‒इस विषयमें मोहित हो जाते हैं । अतः कर्म करने अथवा न करने‒दोनों ही अवस्थाओंमें जिससे जीव बँधे नहीं, उस तत्त्वको समझनेसे ही कर्म क्या है और अकर्म क्या है‒यह बात समझमें आयेगी । अर्जुन युद्धरूप कर्म न करनेको कल्याणकारक समझते हैं । इसलिये भगवान् मानो यह कहते हैं कि युद्धरूप कर्मका त्याग करनेमात्रसे तेरी अकर्म-अवस्था (बन्धनसे मुक्ति) नहीं होगी (गीता‒तीसरे अध्यायका चौथा श्‍लोक), प्रत्युत युद्ध करते हुए भी तू अकर्म-अवस्थाको प्राप्‍त कर सकता है (गीता‒दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्‍लोक); अतः अकर्म क्या है‒इस तत्त्वको तू समझ ।

निर्लिप्‍त रहते हुए कर्म करना अथवा कर्म करते हुए निर्लिप्‍त रहना‒यही वास्तवमें अकर्म-अवस्था है ।

कवयोऽप्यत्र मोहिताः’साधारण मनुष्योंमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि वे कर्म और अकर्मका तात्त्विक निर्णय कर सकें । शास्‍त्रोंके ज्ञाता बड़े-बड़े विद्वान् भी इस विषयमें भूल कर जाते हैं । कर्म और अकर्मका तत्त्व जाननेमें उनकी बुद्धि भी चकरा जाती है । तात्पर्य यह हुआ कि इनका तत्त्व या तो कर्मयोगसे सिद्ध हुए अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष जानते हैं अथवा भगवान् जानते हैं ।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि’जीव कर्मोंसे बँधा है तो कर्मोंसे ही मुक्त होगा । यहाँ भगवान् प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं वह कर्म-तत्त्व भलीभाँति कहूँगा, जिससे कर्म करते हुए भी वे बन्धनकारक न हों । तात्पर्य यह है कि कर्म करनेकी वह विद्या बताऊँगा, जिससे तू कर्म करते हुए भी जन्म-मरणरूप बन्धनसे मुक्त हो जायगा ।

कर्म करनेके दो मार्ग हैं‒प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग । प्रवृत्तिमार्गको ‘कर्म करना’ कहते हैं और निवृत्तिमार्गको ‘कर्म न करना’ कहते हैं । ये दोनों ही मार्ग बाँधनेवाले नहीं हैं । बाँधनेवाली तो कामना, ममता, आसक्ति है, चाहे यह प्रवृत्तिमार्गमें हो, चाहे निवृत्तिमार्गमें हो । यदि कामना, ममता, आसक्ति न हो तो मनुष्य प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग‒दोनोंमें स्वतः मुक्त है । इस बातको समझना ही कर्म-तत्त्वको समझना है ।

दूसरे अध्यायके पचासवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ ‘कर्मोंमें योग ही कुशलता है’ऐसा कहकर कर्म-तत्त्व बताया है । तात्पर्य है कि कर्म-बन्धनसे छूटनेका वास्तविक उपाय ‘योग’ अर्थात् समता ही है । परन्तु अर्जुन इस तत्त्वको पकड़ नहीं सके, इसलिये भगवान् इस तत्त्वको पुनः समझानेकी प्रतिज्ञा कर रहे हैं ।

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