।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
आश्‍विन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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विशेष बात

कर्मयोग कर्म नहीं हैप्रत्युत सेवा है । सेवामें त्यागकी मुख्यता होती है । सेवा और त्याग‒ये दोनों ही कर्म नहीं हैं । इन दोनोंमें विवेककी ही प्रधानता है ।

हमारे पास शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि आदि जितनी भी वस्तुएँ हैंवे सब मिली हुई हैं और बिछुड़नेवाली हैं । मिली हुई वस्तुको अपनी माननेका हमें अधिकार नहीं है । संसारसे मिली वस्तुको संसारकी ही सेवामें लगानेका हमें अधिकार है । जो वस्तु वास्तवमें अपनी हैउस (स्वरूप या परमात्मा)-का त्याग कभी हो ही नहीं सकता और जो वस्तु अपनी नहीं हैउस (शरीर या संसार)-का त्याग स्वतःसिद्ध है । अतः त्याग उसीका होता है जो अपना नहीं हैपर जिसे भूलसे अपना मान लिया है अर्थात् अपनेपनकी मान्यताका ही त्याग होता है । इस प्रकार जो वस्तु अपनी है ही नहींउसे अपना न मानना त्याग कैसे यह तो विवेक है ।

कर्म-सामग्री (शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि आदि) अपनी और अपने लिये नहीं हैंप्रत्युत दूसरोंकी और दूसरोंके लिये ही हैं । इसका सम्बन्ध संसारके साथ है । स्वयंके साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं हैक्योंकि स्वयं नित्य-निरन्तर निर्विकाररूपसे एकरस रहता हैपर कर्म-सामग्री पहले अपने पास नहीं थीबादमें भी अपने पास नहीं रहेगी और अब भी निरन्तर बिछुड़ रही है । इसलिये इसके द्वारा जो भी कर्म किया जायवह दूसरोंके लिये ही होता हैअपने लिये नहीं । इसमें एक मार्मिक बात है कि कर्म-सामग्रीके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकताजैसे‒कितना ही बड़ा लेखक क्यों न होस्याहीकलम और कागजके बिना वह कुछ भी नहीं लिख सकता । अतः जब कर्म-सामग्रीके बिना कुछ किया नहीं जा सकतातब यह विधान मानना ही पड़ेगा कि अपने लिये कुछ करना नहीं है । कारण कि कर्म-सामग्रीका सम्बन्ध संसारके साथ हैअपने साथ नहीं । इसलिये कर्म-सामग्री और कर्म सदा दूसरोंके हितके लिये ही होते हैंजिसे सेवा कहते हैं । दूसरोंकी ही वस्तु दूसरोंको मिल गयी तो यह सेवा कैसे यह तो विवेक है ।

इस प्रकार त्याग और सेवा‒ये दोनों ही कर्मसाध्य नहीं हैंप्रत्युत विवेकसाध्य हैं । मिली हुई वस्तु अपनी नहीं हैदूसरोंकी और दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये ही है‒यह विवेक है । इसलिये मूलतः कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत विवेक है ।

विवेक किसी कर्मका फल नहीं हैप्रत्युत प्राणिमात्रको अनादिकालसे स्वतः प्राप्‍त है । यदि विवेक किसी शुभ कर्मका फल होता तो विवेकके बिना उस शुभ कर्मको कौन करता क्योंकि विवेकके द्वारा ही मनुष्य शुभ और अशुभ कर्मके भेदको जानता है तथा अशुभ कर्मका त्याग करके शुभ कर्मका आचरण करता है । अतः विवेक शुभ कर्मोंका कारण हैकार्य नहीं । यह विवेक स्वतःसिद्ध हैइसलिये कर्मयोग भी स्वतःसिद्ध है अर्थात् कर्मयोगमें परिश्रम नहीं है । इसी प्रकार ज्ञानयोगमें अपना असंग स्वरूप स्वतःसिद्ध है और भक्ति-योगमें भगवान्‌के साथ अपना सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है ।

यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’जीव स्वयं शुभ है और परिवर्तनशील संसार अशुभ है । जीव स्वयं परमात्माका नित्य अंश होते हुए भी परमात्मासे विमुख होकर अनित्य संसारमें फँस गया है । भगवान् कहते हैं कि मैं उस कर्म-तत्त्वका वर्णन करूँगाजिसे जानकर कर्म करनेसे तू अशुभसे अर्थात् जन्म-मरणरूप संसार-बन्धनसे मुक्त हो जायगा ।

[ इस श्‍लोकमें कर्मोंको जाननेका जो प्रकरण आरम्भ हुआ हैउसका उपसंहार बत्तीसवें श्‍लोकमें ‘एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे’ पदोंसे किया गया है । ]

मार्मिक बात

कर्मयोगका तात्पर्य है‒‘कर्म’ संसारके लिये और ‘योग’ अपने लिये । कर्मके दो अर्थ होते हैं‒करना और न करना । कर्म करना और न करना‒ये दोनों प्राकृत अवस्थाएँ हैं । इन दोनों ही अवस्थाओंमें अहंता रहती है । कर्म करनेमें ‘कार्य’-रूपसे अहंता रहती हैऔर कर्म न करनेमें ‘कारण’ रूपसे । जबतक अहंता है तबतक संसारसे सम्बन्ध है और जबतक संसारसे सम्बन्ध हैतबतक अहंता है । परन्तु ‘योग’ दोनों अवस्थाओंसे अतीत है । उस योगका अनुभव करनेके लिये अहंतासे रहित होना आवश्यक है । अहंतासे रहित होनेका उपाय है‒कर्म करते हुए अथवा न करते हुए योगमें स्थित रहना और योगमें स्थित रहते हुए कर्म करना अथवा न करना । तात्पर्य है कि कर्म करने अथवा न करने‒दोनों अवस्थाओंमें निर्लिप्‍तता रहे‒‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ (गीता २ । ४८) ।

कर्म करनेसे संसारमें और कर्म न करनेसे परमात्मामें प्रवृत्ति होती है‒ऐसा मानते हुए संसारसे निवृत्त होकर एकान्तमें ध्यान और समाधि लगाना भी कर्म करना ही है । एकान्तमें ध्यान और समाधि लगानेसे तत्त्वका साक्षात्कार होगा‒इस प्रकार भविष्यमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति करनेका भाव भी कर्मका सूक्ष्म रूप है । कारण कि करनेके आधारपर ही भविष्यमें तत्त्वप्राप्‍तिकी आशा होती है । परन्तु परमात्मतत्त्व करने और न करने‒दोनोंसे अतीत है ।

भगवान् कहते हैं कि मैं वह कर्म-तत्त्व कहूँगा जिसे जाननेसे तत्काल परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति हो जायगी । इसके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं हैक्योंकि परमात्मतत्त्व सम्पूर्ण देशकालवस्तुव्यक्तिशरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिप्राण आदिमें समानरूपसे परिपूर्ण है । मनुष्य अपनेको जहाँ मानता हैपरमात्मा वहीं हैं । कर्म करते समय अथवा न करते समय‒दोनों अवस्थाओंमें परमात्मतत्त्वका हमारे साथ सम्बन्ध ज्यों-का-त्यों रहता है । केवल प्रकृतिजन्य क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध माननेके कारण ही उसकी अनुभूति नहीं हो रही है ।

अहंतापूर्वक किया हुआ साधन और साधनका अभिमान जबतक रहता हैतबतक अहंता मिटती नहींप्रत्युत दृढ़ होती हैचाहे वह अहंता स्थूलरूपसे (कर्म करनेके साथ) रहे अथवा सूक्ष्मरूपसे (कर्म न करनेके साथ) रहे ।

मैं करता हूँ’इसमें जैसी अहंता हैऐसी ही अहंता ‘मैं नहीं करता हूँ’इसमें भी है । अपने लिये कुछ न करनेसे अर्थात् कर्ममात्र संसारके हितके लिये करनेसे अहंता संसारमें विलीन हो जाती है ।

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