Listen विशेष बात कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत सेवा है । सेवामें त्यागकी मुख्यता होती है । सेवा और त्याग‒ये दोनों ही कर्म नहीं हैं । इन दोनोंमें विवेककी ही प्रधानता है । हमारे पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब मिली हुई हैं और बिछुड़नेवाली हैं । मिली हुई वस्तुको अपनी माननेका हमें अधिकार नहीं है । संसारसे मिली वस्तुको संसारकी ही सेवामें लगानेका हमें अधिकार है । जो वस्तु वास्तवमें अपनी है, उस (स्वरूप या परमात्मा)-का त्याग कभी हो ही नहीं सकता और जो वस्तु अपनी नहीं है, उस (शरीर या संसार)-का त्याग स्वतःसिद्ध है । अतः त्याग उसीका होता है जो अपना नहीं है, पर जिसे भूलसे अपना मान लिया है अर्थात् अपनेपनकी मान्यताका ही त्याग होता है । इस प्रकार जो वस्तु अपनी है ही नहीं, उसे अपना न मानना त्याग कैसे ? यह तो विवेक है । कर्म-सामग्री (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि) अपनी और अपने लिये नहीं हैं, प्रत्युत दूसरोंकी और दूसरोंके लिये ही हैं । इसका सम्बन्ध संसारके साथ है । स्वयंके साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि स्वयं नित्य-निरन्तर निर्विकाररूपसे एकरस रहता है, पर कर्म-सामग्री पहले अपने पास नहीं थी, बादमें भी अपने पास नहीं रहेगी और अब भी निरन्तर बिछुड़ रही है । इसलिये इसके द्वारा जो भी कर्म किया जाय, वह दूसरोंके लिये ही होता है, अपने लिये नहीं । इसमें एक मार्मिक बात है कि कर्म-सामग्रीके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता; जैसे‒कितना ही बड़ा लेखक क्यों न हो, स्याही, कलम और कागजके बिना वह कुछ भी नहीं लिख सकता । अतः जब कर्म-सामग्रीके बिना कुछ किया नहीं जा सकता, तब यह विधान मानना ही पड़ेगा कि अपने लिये कुछ करना नहीं है । कारण कि कर्म-सामग्रीका सम्बन्ध संसारके साथ है, अपने साथ नहीं । इसलिये कर्म-सामग्री और कर्म सदा दूसरोंके हितके लिये ही होते हैं, जिसे सेवा कहते हैं । दूसरोंकी ही वस्तु दूसरोंको मिल गयी तो यह सेवा कैसे ? यह तो विवेक है । इस प्रकार त्याग और सेवा‒ये दोनों ही कर्मसाध्य नहीं हैं, प्रत्युत विवेकसाध्य हैं । मिली हुई वस्तु अपनी नहीं है, दूसरोंकी और दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये ही है‒यह विवेक है । इसलिये मूलतः कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत विवेक है । विवेक किसी कर्मका फल नहीं है, प्रत्युत प्राणिमात्रको अनादिकालसे स्वतः प्राप्त है । यदि विवेक किसी शुभ कर्मका फल होता तो विवेकके बिना उस शुभ कर्मको कौन करता ? क्योंकि विवेकके द्वारा ही मनुष्य शुभ और अशुभ कर्मके भेदको जानता है तथा अशुभ कर्मका त्याग करके शुभ कर्मका आचरण करता है । अतः विवेक शुभ कर्मोंका कारण है, कार्य नहीं । यह विवेक स्वतःसिद्ध है, इसलिये कर्मयोग भी स्वतःसिद्ध है अर्थात् कर्मयोगमें परिश्रम नहीं है । इसी प्रकार ज्ञानयोगमें अपना असंग स्वरूप स्वतःसिद्ध है और भक्ति-योगमें भगवान्के साथ अपना सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है । ‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’‒जीव स्वयं शुभ है और परिवर्तनशील संसार अशुभ है । जीव स्वयं परमात्माका नित्य अंश होते हुए भी परमात्मासे विमुख होकर अनित्य संसारमें फँस गया है । भगवान् कहते हैं कि मैं उस कर्म-तत्त्वका वर्णन करूँगा, जिसे जानकर कर्म करनेसे तू अशुभसे अर्थात् जन्म-मरणरूप संसार-बन्धनसे मुक्त हो जायगा । [ इस श्लोकमें कर्मोंको जाननेका जो प्रकरण आरम्भ हुआ है, उसका उपसंहार बत्तीसवें श्लोकमें ‘एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे’ पदोंसे किया गया है । ] मार्मिक बात कर्मयोगका तात्पर्य है‒‘कर्म’ संसारके लिये और ‘योग’ अपने लिये । कर्मके दो अर्थ होते हैं‒करना और न करना । कर्म करना और न करना‒ये दोनों प्राकृत अवस्थाएँ हैं । इन दोनों ही अवस्थाओंमें अहंता रहती है । कर्म करनेमें ‘कार्य’-रूपसे अहंता रहती है, और कर्म न करनेमें ‘कारण’ रूपसे । जबतक अहंता है तबतक संसारसे सम्बन्ध है और जबतक संसारसे सम्बन्ध है, तबतक अहंता है । परन्तु ‘योग’ दोनों अवस्थाओंसे अतीत है । उस योगका अनुभव करनेके लिये अहंतासे रहित होना आवश्यक है । अहंतासे रहित होनेका उपाय है‒कर्म करते हुए अथवा न करते हुए योगमें स्थित रहना और योगमें स्थित रहते हुए कर्म करना अथवा न करना । तात्पर्य है कि कर्म करने अथवा न करने‒दोनों अवस्थाओंमें निर्लिप्तता रहे‒‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ (गीता २ । ४८) । कर्म करनेसे संसारमें और कर्म न करनेसे परमात्मामें प्रवृत्ति होती है‒ऐसा मानते हुए संसारसे निवृत्त होकर एकान्तमें ध्यान और समाधि लगाना भी कर्म करना ही है । एकान्तमें ध्यान और समाधि लगानेसे तत्त्वका साक्षात्कार होगा‒इस प्रकार भविष्यमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करनेका भाव भी कर्मका सूक्ष्म रूप है । कारण कि करनेके आधारपर ही भविष्यमें तत्त्वप्राप्तिकी आशा होती है । परन्तु परमात्मतत्त्व करने और न करने‒दोनोंसे अतीत है । भगवान् कहते हैं कि मैं वह कर्म-तत्त्व कहूँगा जिसे जाननेसे तत्काल परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जायगी । इसके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं है; क्योंकि परमात्मतत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिमें समानरूपसे परिपूर्ण है । मनुष्य अपनेको जहाँ मानता है, परमात्मा वहीं हैं । कर्म करते समय अथवा न करते समय‒दोनों अवस्थाओंमें परमात्मतत्त्वका हमारे साथ सम्बन्ध ज्यों-का-त्यों रहता है । केवल प्रकृतिजन्य क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध माननेके कारण ही उसकी अनुभूति नहीं हो रही है । अहंतापूर्वक किया हुआ साधन और साधनका अभिमान जबतक रहता है, तबतक अहंता मिटती नहीं, प्रत्युत दृढ़ होती है, चाहे वह अहंता स्थूलरूपसे (कर्म करनेके साथ) रहे अथवा सूक्ष्मरूपसे (कर्म न करनेके साथ) रहे । ‘मैं करता हूँ’‒इसमें जैसी अहंता है, ऐसी ही अहंता ‘मैं नहीं करता हूँ’‒इसमें भी है । अपने लिये कुछ न करनेसे अर्थात् कर्ममात्र संसारके हितके लिये करनेसे अहंता संसारमें विलीन हो जाती है । രരരരരരരരരര |