।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०८०बुधवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒अब भगवान्‌ कर्मोंके तत्त्वको जाननेकी प्रेरणा करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒कर्म-तत्त्वको जाननेकी प्रेरणा ।

                कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।

अकर्मणश्‍च  बोद्धव्यं  गहना कर्मणो गतिः ॥ १७ ॥

अर्थ‒कर्मोंका तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मोंकी गति गहन है अर्थात् समझनेमें बड़ी कठिन है ।

कर्मणः = कर्मोंका (तत्त्व)

विकर्मणः = विकर्मका (तत्त्व भी)

अपि = भी

बोद्धव्यम् = जानना चाहिये

बोद्धव्यम् = जानना चाहिये

हि = क्योंकि

च = और

कर्मणः = कर्मोंकी

अकर्मणः = अकर्मका (तत्त्व भी)

गतिः = गति

बोद्धव्यम् = जानना चाहिये

गहना = गहन है अर्थात् समझनेमें बड़ी कठिन है ।

च = तथा

 

व्याख्या‘कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यम्’कर्म करते हुए निर्लिप्‍त रहना ही कर्मके तत्त्वको जानना है, जिसका वर्णन आगे अठारहवें श्‍लोकमें ‘कर्मण्यकर्म यः पश्येत्’ पदोंसे किया गया है ।

कर्म स्वरूपसे एक दीखनेपर भी अन्तःकरणके भावके अनुसार उसके तीन भेद हो जाते हैं‒कर्म, अकर्म और विकर्म । सकामभावसे की गयी शास्‍त्रविहित क्रिया ‘कर्म’ बन जाती है । फलेच्छा, ममता और आसक्तिसे रहित होकर केवल दूसरोंके हितके लिये किया गया कर्म ‘अकर्म’ बन जाता है । विहित कर्म भी यदि दूसरेका अहित करने अथवा उसे दुःख पहुँचानेके भावसे किया गया हो तो वह भी ‘विकर्म’ बन जाता है । निषिद्ध कर्म तो ‘विकर्म’ है ही ।

अकर्मणश्‍च बोद्धव्यम्’निर्लिप्‍त रहते हुए कर्म करना ही अकर्मके तत्त्वको जानना है, जिसका वर्णन आगे अठारहवें श्‍लोकमें ‘अकर्मणि च कर्म यः’ पदोंसे किया गया है ।

बोद्धव्यं च विकर्मणः’कामनासे कर्म होते हैं । जब कामना अधिक बढ़ जाती है, तब विकर्म (पापकर्म) होते हैं ।

दूसरे अध्यायके अड़तीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने बताया है कि अगर युद्ध-जैसा हिंसायुक्त घोर कर्म भी शास्‍त्रकी आज्ञासे और समतापूर्वक (जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर) किया जाय, तो उससे पाप नहीं लगता । तात्पर्य यह है कि समतापूर्वक कर्म करनेसे दीखनेमें विकर्म होता हुआ भी वह ‘अकर्म’ हो जाता है ।

शास्‍त्रनिषिद्ध कर्मका नाम ‘विकर्म’ है । विकर्मके होनेमें कामना ही हेतु है (गीता‒तीसरे अध्यायका छत्तीसवाँ-सैंतीसवाँ श्‍लोक) । अतः विकर्मका तत्त्व है‒कामना; और विकर्मके तत्त्वको जानना है‒विकर्मका स्वरूपसे त्याग करना तथा उसके कारण कामनाका त्याग करना ।

१.सोलहवें अध्यायमें जहाँ आसुरी-सम्पत्तिका वर्णन हुआ है, वहाँ आठवें श्‍लोकसे तेईसवें श्‍लोकतक ‘काम’ शब्द कुल नौ बार आया है । इससे सिद्ध होता है कि ‘काम’ अर्थात् कामना ही सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति (विकर्म)-का कारण है ।

‘गहना कर्मणो गतिः’कौन-सा कर्म मुक्त करनेवाला और कौन-सा कर्म बाँधनेवाला है‒इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है । कर्म क्या है, अकर्म क्या है और विकर्म क्या है‒इसका यथार्थ तत्त्व जाननेमें बड़े-बड़े शास्‍त्रज्ञ विद्वान् भी अपने-आपको असमर्थ पाते हैं । अर्जुन भी इस तत्त्वको न जाननेके कारण अपने युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको घोर कर्म मान रहे हैं । अतः कर्मकी गति (ज्ञान या तत्त्व) बहुत गहन है ।

शंका‒इस (सत्रहवें) श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘बोद्धव्यं च विकर्मणः’ पदोंसे यह कहा कि विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये । परन्तु उन्‍नीसवेंसे तेईसवें श्‍लोकतकके प्रकरणमें भगवान्‌ने ‘विकर्म’ के विषयमें कुछ कहा ही नहीं ! फिर केवल इस श्‍लोकमें ही विकर्मकी बात क्यों कही ?

समाधान‒उन्‍नीसवें श्‍लोकसे लेकर तेईसवें श्‍लोकतकके प्रकरणमें भगवान्‌ने मुख्यरूपसे ‘कर्ममें अकर्म’ की बात कही है, जिससे सब कर्म अकर्म हो जायँ अर्थात् कर्म करते हुए भी बन्धन न हो । विकर्म कर्मके बहुत पास पड़ता है; क्योंकि कर्मोंमें कामना ही विकर्मका मुख्य हेतु है । अतः कामनाका त्याग करनेके लिये तथा विकर्मको निकृष्‍ट बतानेके लिये भगवान्‌ने विकर्मका नाम लिया है ।

जिस कामनासे ‘कर्म’ होते हैं, उसी कामनाके अधिक बढ़नेपर ‘विकर्म’ होने लगते हैं । परन्तु कामना नष्‍ट होनेपर सब कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं । इस प्रकरणका खास तात्पर्य ‘अकर्म’ को जाननेमें ही है, और ‘अकर्म’ होता है कामनाका नाश होनेपर । कामनाका नाश होनेपर विकर्म होता ही नहीं; अतः विकर्मके विवेचनकी जरूरत ही नहीं । इसलिये इस प्रकरणमें विकर्मकी बात नहीं आयी है । दूसरी बात पापजनक और नरकोंकी प्राप्‍ति करानेवाला होनेके कारण विकर्म सर्वथा त्याज्य है । इसलिये भी इसका विस्तार नहीं किया गया है । हाँ, विकर्मके मूल कारण ‘कामना’ का त्याग करनेका भाव इस प्रकरणमें मुख्यरूपसे आया है; जैसे‒‘कामसंकल्पवर्जिताः’ (४ । १९), ‘त्यक्त्वा कर्मफलासंगम्’ (४ । २०), ‘निराशीः’ (४ । २१), ‘समः सिद्धावसिद्धौ च’ (४ । २२), ‘गतसंगस्य’, ‘यज्ञायाचरतः’ (४ । २३) ।

इस प्रकार विकर्मके मूल ‘कामना’ के त्यागका वर्णन करनेके लिये ही इस श्‍लोकमें विकर्मको जाननेकी बात कही गयी है ।

परिशिष्‍ट भाव‒हमारे लिये और दूसरोंके लिये, अभी और परिणामोंमें किस कर्मका क्या फल होता है, यह समझना बड़ा कठिन है । किसी कर्मको करनेमें मनुष्य अपना हित समझता है, पर हो जाता है अहित ! वह लाभके लिये करता है, पर हो जाता है नुकसान ! वह सुखके लिये करता है, पर मिलता है दुःख ! कारण कि कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा (सुखासक्ति) रहनेके कारण मनुष्य कर्मोंकी गतिको नहीं समझ सकता ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒कामनाके कारण क्रिया ही फलजनक ‘कर्म’ बन जाती है । कामना बढ़नेपर ‘विकर्म’ (पाप) होते हैं । कामनाका सर्वथा नाश होनेपर सभी कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं अर्थात् फल देनेवाले नहीं होते ।

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