।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०८०गुरुवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सम्बन्ध‒अब भगवान् कर्मोंके तत्त्वको जाननेवाले मनुष्यकी प्रशंसा करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒कर्मोंका तत्त्व और उसे जाननेवाले मनुष्यकी प्रशंसा ।

         कर्मण्यकर्म  यः पश्येदकर्मणि  च  कर्म  यः ।

       स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्‍नकर्मकृत् ॥ १८ ॥

अर्थ‒जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है, वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला (कृतकृत्य) है ।

यः = जो मनुष्य

कर्म = कर्म (देखता है),

कर्मणि = कर्ममें

सः = वह

अकर्म = अकर्म

मनुष्येषु = मनुष्योंमें

पश्येत् = देखता है

बुद्धिमान् = बुद्धिमान है,

च = और

सः = वह

यः = जो

युक्तः = योगी है (और)

अकर्मणि = अकर्ममें

कृत्स्‍नकर्मकृत् = सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला (कृतकृत्य) है ।

व्याख्या‒‘कर्मण्यकर्म यः पश्येत्’कर्ममें अकर्म देखनेका तात्पर्य है‒कर्म करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्‍त रहना अर्थात् अपने लिये कोई भी प्रवृत्ति या निवृत्ति न करना । अमुक कर्म मैं करता हूँ, इस कर्मका अमुक फल मुझे मिले‒ऐसा भाव रखकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मोंसे बँधता है । प्रत्येक कर्मका आरम्भ और अन्त होता है, इसलिये उसका फल भी आरम्भ और अन्त होनेवाला होता है । परन्तु जीव स्वयं नित्य-निरन्तर रहता है । इस प्रकार यद्यपि जीव स्वयं परिवर्तनशील कर्म और उसके फलसे सर्वथा सम्बन्धरहित है, फिर भी वह फलकी इच्छाके कारण उनसे बँध जाता है । इसीलिये चौदहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा है कि मेरेको कर्म नहीं बाँधते; क्योंकि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है । फलकी स्पृहा या इच्छा ही बाँधनेवाली है‒‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५ । १२) ।

फलकी इच्छा न रखनेसे नया राग उत्पन्‍न नहीं होता और दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुराना राग नष्‍ट हो जाता है । इस प्रकार रागरूप बन्धन न रहनेसे साधक सर्वथा वीतराग हो जाता है । वीतराग होनेसे सब कर्म अकर्म हो जाते हैं ।

जीवका जन्म कर्मोंके अनुबन्धसे होता है । जैसे, जिस परिवारमें जन्म लिया है, उस परिवारके लोगोंसे ऋणानुबन्ध है अर्थात् किसीका ऋण चुकाना है और किसीसे ऋण वसूल करना है । कारण कि अनेक जन्मोंमें अनेक लोगोंसे लिया है और अनेक लोगोंको दिया है । यह लेन-देनका व्यवहार अनेक जन्मोंसे चला आ रहा है । इसको बंद किये बिना जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं मिल सकता । इसको बंद करनेका उपाय है‒आगेसे लेना बंद कर दें अर्थात् अपने अधिकारका त्याग कर दें और हमारेपर जिनका अधिकार है, उनकी सेवा करनी आरम्भ कर दें । इस प्रकार नया ऋण लें नहीं और पुराना ऋण (दूसरोंके लिये कर्म करके) चुका दें, तो ऋणानुबन्ध (लेन-देनका व्यवहार) समाप्‍त हो जायगा अर्थात् जन्म-मरण बंद हो जायगा (गीता‒चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्‍लोक) । जैसे, कोई दूकानदार अपनी दूकान उठाना चाहता है, तो वह दो काम करेगा‒पहला, जिसको देना है, उसको दे देगा और दूसरा, जिससे लेना है, वह ले लेगा अथवा छोड़ देगा । ऐसा करनेसे उसकी दूकान उठ जायगी । अगर वह यह विचार रखेगा कि जो लेना है, वह सब-का-सब ले लूँ, तो दूकान उठेगी नहीं । कारण कि जबतक वह लेनेकी इच्छासे वस्तुएँ देता रहेगा, तबतक दूकान चलती ही रहेगी, उठेगी नहीं ।

अपने लिये कुछ भी न करने और न चाहनेसे असंगता स्वतः प्राप्‍त हो जाती है । कारण कि करण (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण) और उपकरण (कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री) संसारके हैं और संसारकी सेवामें लगानेके लिये ही मिले हैं, अपने लिये नहीं । इसलिये सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म (सेवा, भजन, जप, ध्यान, समाधि भी) केवल संसारके हितके लिये ही करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी ओर चला जाता है और साधक स्वयं असंग, निर्लिप्‍त रह जाता है । यही कर्ममें अकर्म देखना है ।

जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक कर्म करना अथवा न करना‒दोनों ही ‘कर्म’ हैं । इसलिये कर्म करने अथवा न करने‒दोनों ही अवस्थाओंमें कर्मयोगीको निर्लिप्‍त रहना चाहिये । कर्म करनेमें निर्लिप्‍त रहनेका तात्पर्य है‒कर्म करनेसे हमें अच्छा फल मिलेगा, हमें लाभ होगा, हमारी सिद्धि होगी, लोग हमें अच्छा मानेंगे, इस लोकमें और परलोकमें भोग मिलेगे‒इस प्रकारकी किसी भी इच्छाका न होना । ऐसे ही कर्म न करनेमें निर्लिप्‍त रहनेका तात्पर्य है‒कर्मोंका त्याग करनेसे हमें मान, आदर, भोग, शरीरका आराम आदि मिलेंगे‒इस प्रकारकी किंचिन्मात्र भी इच्छाका न होना ।

दुःख समझकर एवं शारीरिक क्लेशके भयसे कर्म न करना राजस त्याग है और मोह, आलस्य, प्रमादके कारण कर्म न करना तामस त्याग है । ये दोनों ही त्याग सर्वथा त्याज्य हैं । इसके सिवाय कर्म न करना यदि अपनी विलक्षण स्थितिके लिये है, समाधिका सुख भोगनेके लिये है, जीवन्मुक्तिका आनन्द लेनेके लिये है तो इस त्यागसे भी प्रकृतिका सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । कारण कि जबतक कर्म न करनेसे सम्बन्ध है, तबतक प्रकृतिसे सम्बन्ध बना रहता है । प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर कर्मयोगी कर्म करने और न करने‒इन दोनों अवस्थाओंमें ज्यों-का-त्यों निर्लिप्‍त रहता है ।

अकर्मणि च कर्म यः’अकर्ममें कर्म देखनेका तात्पर्य है‒निर्लिप्‍त रहते हुए कर्म करना अथवा न करना । भाव है कि कर्म करते समय अथवा न करते समय भी नित्य-निरन्तर निर्लिप्‍त रहे ।

संसारमें कोई कार्य करनेके लिये प्रवृत्त होता है तो उसके सामने प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना)‒दोनों आती हैं । किसी कार्यमें प्रवृत्ति होती है और किसी कार्यसे निवृत्ति होती है । परन्तु कर्मयोगीकी प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों निर्लिप्‍ततापूर्वक और केवल संसारके हितके लिये होती हैं । प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनोंसे ही उसका कोई प्रयोजन नहीं होता‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्‍चन’ (गीता ३ । १८) । यदि प्रयोजन होता है तो वह कर्मयोगी नहीं है, प्रत्युत कर्मी है ।

साधक जबतक प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक वह कर्म करनेसे अपनी सांसारिक उन्‍नति मानता है और कर्म न करनेसे अपनी पारमार्थिक उन्‍नति मानता है । परन्तु वास्तवमें प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही प्रवृत्ति हैं; क्योंकि दोनोंमें ही प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रहता है । जैसे चलना-फिरना, खाना-पीना आदि स्थूल-शरीरकी क्रियाएँ हैं, ऐसे ही एकान्तमें बैठे रहना, चिन्तन करना, ध्यान लगाना सूक्ष्म-शरीरकी क्रियाएँ और समाधि लगाना कारण-शरीरकी क्रियाएँ हैं । इसलिये निर्लिप्‍त रहते हुए ही लोकसंग्रहार्थ कर्तव्य-कर्म करना है । यही अकर्ममें कर्म है । इसीको दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्‍लोकमें ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ (योग अर्थात् समतामें स्थित होकर कर्म कर) पदोंसे कहा गया है ।

सांसारिक प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ‘कर्म’ हैं । प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति करते हुए निर्लिप्‍त रहना और निर्लिप्‍त रहते हुए ही प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति करना‒इस प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनोंमें सर्वथा निर्लिप्‍त रहना ‘योग’ है । इसीको कर्मयोग कहते हैं ।

രരരരരരരരരര