।। श्रीहरिः ।।

 


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०८०शुक्रवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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शंका‒कर्म करते हुए अथवा न करते हुए निर्लिप्‍त रहना और निर्लिप्‍त रहते हुए कर्म करना अथवा न करना‒इन दोनोंमें ‘अकर्म’ अर्थात् एक निर्लिप्‍तता ही मुख्य हुई; फिर भगवान्‌ने कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म‒ये दो बातें क्यों कही हैं ?

समाधान‒कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म‒इन दोनोंमें एक निर्लिप्‍तता सार होते हुए भी पहले (कर्ममें अकर्म)-में कर्म करते हुए अथवा न करते हुए‒दोनों अवस्थाओंमें रहनेवाली निर्लिप्‍तताकी मुख्यता है और दूसरे (अकर्ममें कर्म)-में निर्लिप्‍त रहते हुए कर्म करने अथवा न करनेकी मुख्यता है । तात्पर्य है कि निर्लिप्‍तता अपने लिये और कर्म संसारके लिये है; क्योंकि निर्लिप्‍तताका सम्बन्ध ‘स्व’ (स्वरूप) के साथ और कर्म करने अथवा न करनेका सम्बन्ध ‘पर’ (शरीर, संसार) के साथ है । इसलिये निर्लिप्‍तता स्वधर्म और कर्म करना अथवा न करना परधर्म है । इन दोनोंका विभाग सर्वथा अलग-अलग बतानेके लिये ही भगवान्‌ने उपर्युक्त दो बातें कही हैं ।

कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म‒ये दोनों बातें कर्मयोगकी हैं, जिनका तात्पर्य यह है कि प्रकृतिसे तो सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय अर्थात् करने अथवा न करनेसे अपना कोई प्रयोजन न रहे और लोकसंग्रहके लिये कर्मोंको करना अथवा न करना हो । कारण कि कर्म करते हुए निर्लिप्‍त रहना और निर्लिप्‍त रहते हुए भी दूसरोंके हितके लिये कर्म करना‒ये दोनों ही गीताके सिद्धान्त हैं ।

प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना)‒दोनों प्रकृतिके राज्यमें ही हैं । प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है, इसलिये प्रवृत्तिका भी आरम्भ और अन्त होता है तथा निवृत्तिका भी आरम्भ और अन्त होता है । परन्तु इनसे सर्वथा अतीत परमनिवृत्ततत्त्व‒अपने स्वरूपका आदि और अन्त नहीं होता । वह प्रवृत्ति और निवृत्तिके आरम्भमें भी रहता है और उनके अन्तमें भी रहता है तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति-कालमें भी ज्यों-का-त्यों रहता है । वह प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनोंका प्रकाशक और आधार है । इसलिये उसमें न प्रवृत्ति है और न निवृत्ति है‒इस तत्त्वको समझनेके लिये और उसमें स्थित होकर लोक-संग्रहार्थ (यज्ञार्थ)-कर्म करनेके लिये यहाँ कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म‒ये दो बातें कही गयी हैं ।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु’जो पुरुष कर्ममें अकर्म देखता है और अकर्ममें कर्म देखता है अर्थात् नित्य-निरन्तर निर्लिप्‍त रहता है, वही वास्तवमें कर्म-तत्त्वको जाननेवाला है । जबतक वह निर्लिप्‍त नहीं हुआ है अर्थात् कर्म और पदार्थको अपना और अपने लिये मानता है, तबतक उसने कर्म-तत्त्वको समझा ही नहीं है ।

परमात्माको जाननेके लिये स्वयंको परमात्मासे अभिन्‍नताका अनुभव करना होता है और संसारको जाननेके लिये स्वयंको संसार (क्रिया और पदार्थ)-से सर्वथा भिन्‍नताका अनुभव करना होता है । कारण कि वास्तवमें हम (स्वरूपसे) परमात्मासे अभिन्‍न और संसारसे भिन्‍न हैं । इसलिये कर्मोंसे अलग होकर अर्थात् निर्लिप्‍त होकर ही कर्म-तत्त्वको जान सकते हैं । कर्म आदि-अन्तवाले हैं और मैं (स्वयं जीव) नित्य रहनेवाला हूँ; अतः मैं स्वरूपसे कर्मोंसे अलग (निर्लिप्‍त) हूँ‒इस वास्तविकताका अनुभव करना ही ‘जानना’ है । वास्तविकताकी तहमें बैठे बिना जानना हो ही कैसे सकता है ?

जैसे काजलकी कोठरीमें प्रवेश करके भी काजलसे सर्वथा निर्लिप्‍त रहना साधारण बुद्धिमान्‌का काम नहीं है, ऐसे ही सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको करते हुए भी कर्मोंसे सर्वथा निर्लिप्‍त रहना साधारण बुद्धिमान्‌के वशका काम नहीं है । इसलिये भगवान् ऐसे कर्मयोगीको मनुष्योंमें बुद्धिमान् कहते हैं । अठारहवें अध्यायके दसवें श्‍लोकमें भी भगवान्‌ने उसे ‘मेधावी’ (बुद्धिमान्) कहा है ।

अभी सत्रहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कर्म, अकर्म और विकर्म‒तीनोंका तत्त्व समझनेके लिये कहा था । यहाँ ‘मनुष्येषु बुद्धिमान्’ पद देकर भगवान् मानो यह बताते हैं कि जिसने कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्मके तत्त्वको जान लिया है, उसने सब कुछ जान लिया है अर्थात् वह ज्ञात-ज्ञातव्य हो गया है ।

स युक्तः’कर्मयोगी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहता है । कर्मका फल मिले या न मिले, उसमें कभी विषमता नहीं आती; क्योंकि उसने फलेच्छाका सर्वथा त्याग कर दिया है । समताका नाम योग है । वह नित्य-निरन्तर समतामें स्थित है, इसलिये वह योगी है ।

प्राणिमात्रका परमात्मासे स्वतःसिद्ध नित्ययोग है । परन्तु मनुष्यने संसारसे अपना सम्बन्ध मान लिया, इसीसे वह उस नित्ययोगको भूल गया । तात्पर्य यह कि जडके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही परमात्माके साथ अपने नित्य सम्बन्धको भूलना है । कर्मयोगी फलेच्छा, ममता और आसक्तिका त्याग करके केवल दूसरोंके लिये ही कर्तव्य-कर्म करता है, जिससे उसका जडसे माना हुआ सम्बन्ध टूट जाता है और उसे परमात्मासे स्वतःसिद्ध नित्ययोगकी अनुभूति हो जाती है । इसलिये उसे योगी कहा गया है ।

युक्तः’ पदमें यह भाव है कि उसने प्राप्‍त करनेयोग्य तत्त्वको प्राप्‍त कर लिया है अर्थात् वह प्राप्‍त-प्राप्‍तव्य हो गया है ।

कृत्स्‍नकर्मकृत्’जबतक कुछ ‘पाना’ शेष रहता है, तबतक ‘करना’ शेष रहता ही है अर्थात् जबतक कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छा रहती है, तबतक करनेका राग नहीं मिटता ।

नाशवान् कर्मोंसे मिलनेवाला फल भी नाशवान् ही होता है । जबतक नाशवान् फलकी इच्छा है, तबतक (कर्म) करना समाप्‍त नहीं होता । परन्तु जब नाशवान्‌से सर्वथा सम्बन्ध छूटकर परमात्मप्राप्‍तिरूप अविनाशी फलकी प्राप्‍ति हो जाती है, तब (कर्म) करना सदाके लिये समाप्‍त हो जाता है और कर्मयोगीका कर्म करने तथा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता । ऐसा कर्मयोगी सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला है अर्थात् उसके लिये अब कुछ करना शेष नहीं है, वह कृतकृत्य हो गया है ।

करना, जानना और पाना शेष नहीं रहनेसे वह कर्मयोगी अशुभ संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है (गीता‒चौथे अध्यायका सोलहवाँ और बत्तीसवाँ श्‍लोक) ।

परिशिष्‍ट भाव‒एक विभाग कर्मका है और एक विभाग अकर्मका है । इन दोनोंमें अकर्म ही सार तत्त्व है । इसलिये जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है अर्थात् कर्म करते हुए निर्लिप्‍त रहता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है अर्थात् निर्लिप्‍त रहते हुए कर्म करता है, उसके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता । जैसे किसी कर्मके आरम्भमें तो गणेशजीका पूजन करते हैं, पर कर्म करते समय हरदम उनका पूजन नहीं करते, ऐसे ही कोई यह न समझ ले कि कर्मके आरम्भमें एक बार निर्लिप्‍त हो गये तो अब उस निर्लिप्‍तताको हरदम नहीं रखना है, इसलिये भगवान्‌ने यहाँ उपर्युक्त दो बातें कही हैं । तात्पर्य है कि अपनेमें कभी भी लिप्‍तता (फलेच्छा और कर्तृत्वाभिमान) नहीं आनी चाहिये अर्थात् हरदम निर्लिप्‍त रहना चाहिये ।

तीसरे अध्यायके आठवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा है कि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्‍ठ है‒‘कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः’ और यहाँ बताते हैं कि कर्म करनेकी अपेक्षा भी अकर्म (अकर्तृत्व)-को देखना श्रेष्‍ठ है और ऐसा देखनेवाले मनुष्यके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता । इससे सिद्ध होता है कि मनुष्यमें फलेच्छा और कर्तृत्वाभिमान नहीं रहने चाहिये; क्योंकि इन दोनोंसे ही मनुष्य बँधता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒कर्म करते हुए निर्लिप्‍त रहना अर्थात्‌ कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा न रखना ‘कर्ममें अकर्म’ देखना है । निर्लिप्‍त रहते हुए अर्थात् कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छाका त्याग करके कर्म करना ‘अकर्ममें कर्म’ देखना है । इन दोनोंसे ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है । कर्मयोगी कर्म करते हुए अथवा न करते हुए प्रत्येक अवस्थामें निर्लिप्‍त रहता है‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३ । १८) ।

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