।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०८०शनिवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒अब भगवान्‌ आगेके दो श्‍लोकोंमें कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखनेवाले अर्थात् कर्मोंका तत्त्व जाननेवाले सिद्ध कर्मयोगी महापुरुषका वर्णन करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒कर्म-तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषकी प्रशंसा ।

       यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः ।

   ज्ञानाग्‍निदग्धकर्माणं  तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥१९॥

अर्थ‒जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्‍निसे जल गये हैं, उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं ।

यस्य = जिसके

ज्ञानाग्‍निदग्ध कर्माणम् = जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्‍निसे जल गये हैं,

सर्वे = सम्पूर्ण

तम् = उसको

समारम्भाः = कर्मोंके आरम्भ

बुधाः = ज्ञानिजन (भी)

कामसङ्कल्प- = संकल्प और

पण्डितम् = पण्डित (बुद्धिमान्)

वर्जिताः = कामनासे रहित हैं (तथा)

आहुः = कहते हैं ।

व्याख्या‒‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः

१.जहाँ दोनों पदोंका अर्थ प्रधान होता है, वहाँ ‘द्वन्द्वसमास’ होता है । यहाँ ‘संकल्प’ और ‘काम’ दोनों शब्द अपने-अपने अर्थमें प्रधान हैं । अतः यहाँ ‘संकल्पाश्‍च कामाश्‍च’ऐसा द्वन्द्वसमास होनेसे ‘संकल्पकामाः’ऐसा रूप बना । परन्तु द्वन्द्वसमासके जिस पदमें कम स्वर होते हैं, उसका पूर्वप्रयोग होता है । यहाँ भी ‘काम’ शब्दमें कम स्वर होनेसे उसका पूर्वप्रयोग हुआ है; अतः ‘कामसंकल्पाः’ऐसा रूप बना । अब ‘कामसंकल्पैर्वर्जिताः’ऐसा तृतीया समास करनेपर पूरा पद ‘कामसंकल्पवर्जिताः’ बना ।

विषयोंका बार-बार चिन्तन होनेसे, उनकी बार-बार याद आनेसे उन विषयोंमें ‘ये विषय अच्छे हैं, काममें आनेवाले हैं, जीवनमें उपयोगी हैं और सुख देनेवाले हैं’ऐसी सम्यग्बुद्धिका होना संकल्प’ है और ‘ये विषय-पदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं, हानिकारक हैं’ऐसी बुद्धिका होना ‘विकल्प’ है । ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धिमें होते रहते हैं । जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है, तब ‘ये विषय-पदार्थ हमें मिलने चाहिये, ये हमारे होने चाहिये’इस तरह अन्तःकरणमें उनको प्राप्‍त करनेकी जो इच्छा पैदा हो जाती है, उसका नाम ‘काम’ (कामना) है । कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें संकल्प और कामना‒दोनों ही नहीं रहते अर्थात् उसमें न तो कामनाओंका कारण संकल्प रहता है और न संकल्पोंका कार्य कामना ही रहती है । अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे सब संकल्प और कामनासे रहित होते हैं ।

संकल्प और कामना‒ये दोनों कर्मके बीज हैं । संकल्प और कामना न रहनेपर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् कर्म बाँधनेवाले नहीं होते । सिद्ध महापुरुषमें भी संकल्प और कामना न रहनेसे उसके द्वारा होनेवाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते । उसके द्वारा लोकसंग्रहार्थ, कर्तव्यपरम्परासुरक्षार्थ सम्पूर्ण कर्म होते हुए भी वह उन कर्मोंसे स्वतः सर्वथा निर्लिप्‍त रहता है ।

भगवान्‌ने कहींपर संकल्पोंका (छठे अध्यायका चौथा श्‍लोक), कहींपर कामनाओंका (दूसरे अध्यायका पचपनवाँ श्‍लोक) और कहींपर संकल्प तथा कामना‒दोनोंका (छठे अध्यायका चौबीसवाँ-पचीसवाँ श्‍लोक) त्याग बताया है । अतः जहाँ केवल संकल्पोंका त्याग बताया गया है, वहाँ कामनाओंका और जहाँ केवल कामनाओंका त्याग बताया गया है, वहाँ संकल्पोंका त्याग भी समझ लेना चाहिये; क्योंकि संकल्प कामनाओंका कारण है और कामना संकल्पोंका कार्य है । तात्पर्य है कि साधकको सम्पूर्ण संकल्पों और कामनाओंका त्याग कर देना चाहिये ।

मोटरकी चार अवस्थाएँ होती हैं‒

१‒मोटर गैरेजमें खड़ी रहनेपर न इंजन चलता है और न पहिये चलते हैं । २‒मोटर चालू करनेपर इंजन तो चलने लगता है, पर पहिये नहीं चलते । ३‒मोटरको वहाँसे रवाना करनेपर इंजन भी चलता है और पहिये भी चलते हैं । ४‒निरापद ढलवाँ मार्ग आनेपर इंजनको बंद कर देते हैं और पहिये चलते रहते हैं । इसी प्रकार मनुष्यकी भी चार अवस्थाएँ होती हैं‒

१‒न कामना होती है और न कर्म होता है । २‒कामना होती है, पर कर्म नहीं होता । ३‒कामना भी होती है और कर्म भी होता है । ४‒कामना नहीं होती और कर्म होता है ।

मोटरकी सबसे उत्तम (चौथी) अवस्था यह है कि इंजन न चले और पहिये चलते रहें अर्थात् तेल भी खर्च न हो और रास्ता भी तय हो जाय । इसी तरह मनुष्यकी सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामना न हो और कर्म होते रहें । ऐसी अवस्थावाले मनुष्यको ज्ञानिजन भी पण्डित कहते हैं ।

समारम्भाः’

२.यहाँ ‘समारम्भाः’ पद सिद्ध कर्मयोगीकी राग-द्वेषरहित सांगोपांग प्रवृत्तिका वाचक है, चौदहवें अध्यायके बारहवें श्‍लोकमें आये हुए ‘आरम्भ’ पदका वाचक नहीं है । कारण कि वहाँ ‘प्रवृत्ति’ और ‘आरम्भ’ये दो शब्द आये हैं; अतः वहाँ कर्तव्य-कर्मको करना ‘प्रवृत्ति’ है तथा भोग और संग्रहके उद्‍देश्यसे नये-नये कर्मोंको शुरू करना ‘आरम्भ’ है ।

पदका यह भाव है कि कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषके द्वारा हरेक कर्म सुचारुरूपसे, सांगोपांग और तत्परतापूर्वक होता है । दूसरा एक भाव यह भी है कि उसके कर्म शास्‍त्रसम्मत होते हैं । उसके द्वारा करनेयोग्य कर्म ही होते हैं । जिससे किसीका अहित होता हो, वह कर्म उससे कभी नहीं होता ।

सर्वे’ पदका यह भाव है कि उसके द्वारा होनेवाले सब-के-सब कर्म संकल्प और कामनासे रहित होते हैं । कोई-सा भी कर्म संकल्पसहित नहीं होता । प्रातः उठनेसे लेकर रातमें सोनेतक शौच-स्‍नान, खाना-पीना, पाठ-पूजा, जप-चिन्तन, ध्यान-समाधि आदि शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी सम्पूर्ण कर्म संकल्प और कामनासे रहित ही होते हैं ।

‘ज्ञानाग्‍निदग्धकर्माणम्’कर्मोंका सम्बन्ध ‘पर’ (शरीर-संसार) के साथ है, ‘स्व’ (स्वरूप) के साथ नहीं; क्योंकि कर्मोंका आरम्भ और अन्त होता है, पर स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है‒इस तत्त्वको ठीक-ठीक जानना ही ‘ज्ञान’ है । इस ज्ञानरूप अग्‍निसे सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं अर्थात् कर्मोंमें फल देनेकी (बाँधनेकी) शक्ति नहीं रहती (गीता‒चौथे अध्यायका सोलहवाँ और बत्तीसवाँ श्‍लोक) ।

वास्तवमें शरीर और क्रिया‒दोनों संसारसे अभिन्‍न हैं; पर स्वयं सर्वथा भिन्‍न होता हुआ भी भूलसे इनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है । जब महापुरुषका अपने कहलानेवाले शरीरके साथ भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता, तब जैसे संसारमात्रसे सब कर्म होते हैं, ऐसे ही उसके कहलानेवाले शरीरसे सब कर्म होते हैं । इस प्रकार कर्मोंसे निर्लिप्‍तताका अनुभव होनेपर उस महापुरुषके वर्तमान कर्म ही नष्‍ट नहीं होते, प्रत्युत संचित कर्म भी सर्वथा नष्‍ट हो जाते हैं । प्रारब्ध-कर्म भी केवल अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें उसके सामने आकर नष्‍ट हो जाते हैं; परन्तु फलसे असंग होनेके कारण वह उनका भोक्ता नहीं बनता अर्थात् किंचिन्मात्र भी सुखी या दुःखी नहीं होता । इसलिये प्रारब्ध-कर्म भी अस्थायी परिस्थितिमात्र उत्पन्‍न करके नष्‍ट हो जाते हैं ।

‘तमाहुः पण्डितं बुधाः’जो कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके परमात्मामें लगा हुआ है, उस मनुष्यको समझना तो सुगम है, पर जो कर्मोंसे किंचिन्मात्र भी लिप्‍त हुए बिना तत्परतापूर्वक कर्म कर रहा है, उसे समझना कठिन है । सन्तोंकी वाणीमें आया है‒

त्यागी शोभा जगतमें करता है सब कोय ।

हरिया गृहस्थी संतका भेदी बिरला होय ॥

तात्पर्य यह है कि संसारमें (बाहरसे त्याग करनेवाले) त्यागी पुरुषकी महिमा तो सब गाते हैं, पर गृहस्थमें रहकर सब कर्तव्य-कर्म करते हुए भी जो निर्लिप्‍त रहता है, उस (भीतरका त्याग करनेवाले) पुरुषको समझनेवाला कोई बिरला ही होता है ।

जैसे कमलका पत्ता जलमें ही उत्पन्‍न होकर और जलमें रहते हुए भी जलसे लिप्‍त नहीं होता, ऐसे ही कर्मयोगी कर्मयोनि (मनुष्यशरीर)-में ही उत्पन्‍न होकर और कर्ममय जगत्‌में रहकर कर्म करते हुए भी कर्मोंसे लिप्‍त नहीं होता

३.निवृत्तिरपि    मूढस्य   प्रवृत्तिरुपजायते ।

    प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलदायिनी ॥

(अष्‍टावक्रगीता १८ । ६१)

मूढ़ पुरुषकी निवृत्ति भी प्रवृत्तिको उत्पन्‍न करनेवाली होती है और ज्ञानी पुरुषकी प्रवृत्ति भी निवृत्ति-रूप फलको देनेवाली होती है ।’

कर्मोंसे लिप्‍त न होना कोई साधारण बुद्धिमानीका काम नहीं है । पीछेके अठारहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ऐसे कर्मयोगीको ‘मनुष्योंमें बुद्धिमान्’ कहा है और यहाँ कहा है कि उसे ज्ञानिजन भी पण्डित अर्थात् बुद्धिमान् कहते हैं । भाव यह है कि ऐसा कर्मयोगी पण्डितोंका भी पण्डित, ज्ञानियोंका भी ज्ञानी है

४.गृहेषु   पण्डिताः  केचित्केचिन्मूर्खेषु  पण्डिताः ।

  सभायां पण्डिताः केचित्केचित्पण्डितपण्डिताः ॥

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जो कर्मयोगी कर्म करते हुए निर्लिप्‍त (संकल्प और कामनासे रहित) रहता है और निर्लिप्‍त रहते हुए सब कर्म करता है, वह सम्पूर्ण ज्ञानियोंमें श्रेष्‍ठ है ।

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