Listen सूक्ष्म विषय‒कर्म-तत्त्वको जाननेवाले
महापुरुषकी कर्मोंसे असंगता । त्यक्त्वा
कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि
नैव किञ्चित्करोति सः ॥ २० ॥ अर्थ‒जो कर्म और फलकी आसक्तिका त्याग करके
(संसारके) आश्रयसे रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मोंमें अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं
करता ।
व्याख्या‒‘त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम्’‒जब कर्म करते समय कर्ताका यह भाव रहता
है कि शरीरादि कर्म-सामग्री मेरी है, मैं कर्म करता हूँ, कर्म मेरा और मेरे लिये है तथा इसका
मेरेको अमुक फल मिलेगा, तब वह कर्मफलका हेतु बन जाता है । कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषको
प्राकृत पदार्थोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेदका अनुभव हो जाता है, इसलिये कर्म करनेकी सामग्रीमें, कर्ममें तथा कर्मफलमें किंचिन्मात्र
भी आसक्ति न रहनेके कारण वह कर्मफलका हेतु नहीं बनता । सेना विजयकी इच्छासे युद्ध करती है
। विजय होनेपर विजय सेनाकी नहीं, प्रत्युत राजाकी मानी जाती है; क्योंकि राजाने ही सेनाके जीवन-निर्वाहका
प्रबन्ध किया है; उसे युद्ध करनेकी सामग्री दी है और उसे युद्ध करनेकी प्रेरणा
की है और सेना भी राजाके लिये ही युद्ध करती है । इसी प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कर्म-सामग्रीके
साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही जीव उनके द्वारा किये गये कर्मोंके फलका भागी होता है । कर्म-सामग्रीके साथ किंचिन्मात्र भी
सम्बन्ध न होनेके कारण महापुरुषका कर्मफलके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । वास्तवमें कर्मफलके साथ स्वरूपका सम्बन्ध
है ही नहीं । कारण कि स्वरूप चेतन, अविनाशी और निर्विकार है; परन्तु कर्म और कर्मफल‒दोनों जड तथा
विकारी हैं और उनका आरम्भ तथा अन्त होता है । सदा स्वरूपके साथ न तो कोई कर्म रहता
है तथा न कोई फल ही रहता है । इस तरह यद्यपि कर्म और फलसे
स्वरूपका कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि जीवने भूलसे उनके
साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है । यह माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धनका कारण है । अगर यह माना
हुआ सम्बन्ध मिट जाय, तो कर्म और फलसे उसकी स्वतःसिद्ध निर्लिप्तताका
बोध हो जाता है । ‘निराश्रयः’‒देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिका किंचिन्मात्र भी आश्रय
न लेना ही ‘निराश्रय’ अर्थात् आश्रयसे रहित होना है । कितना ही बड़ा धनी, राजा-महाराजा क्यों न हो, उसको देश, काल आदिका आश्रय लेना ही पड़ता है ।
परन्तु कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुष देश, काल आदिका कोई आश्रय नहीं मानता । आश्रय मिले या न मिले‒इसकी
उसे किचिन्मात्र भी परवाह नहीं होती । इसलिये वह निराश्रय होता है । ‘नित्यतृप्तः’‒जीव (आत्मा) परमात्माका सनातन अंश होनेसे
सत्-स्वरूप है । सत्का कभी अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते
सतः’ (गीता २ । १६) । परन्तु जब वह असत्के साथ अपना सम्बन्ध
मान लेता है, तब
उसे अपनेमें अभाव अर्थात् कमीका अनुभव होने लगता है । उस कमीकी पूर्ति करनेके लिये
वह सांसारिक वस्तुओंकी कामना करने लगता है । इच्छित वस्तुओंके मिलनेसे एक तृप्ति होती
है;
परन्तु वह तृप्ति ठहरती नहीं, वह क्षणिक होती है । कारण कि संसारकी प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि प्रतिक्षण
अभावकी ओर जा रही है; अतः उनके आश्रित रहनेवाली तृप्ति स्थायी
कैसे रह सकती है ? सत्-वस्तुकी तृप्ति असत् वस्तुसे हो
ही कैसे सकती है ? अतः जीव जबतक उत्पत्ति-विनाशशील क्रियाओं
और पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध मानता है तथा उनके आश्रित रहता है, तबतक उसे स्वतःसिद्ध
नित्यतृप्तिका अनुभव नहीं होता । कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुष निराश्रय
अर्थात् संसारके आश्रयसे सर्वथा रहित होता है, इसलिये उसे स्वतःसिद्ध नित्यतृप्तिका
अनुभव हो जाता है । तीसरे अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें ‘आत्मतृप्तः’
पदसे भी इसी नित्यतृप्तिकी बात आयी है । ‘कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव
किञ्चित्करोति सः’‒‘अभिप्रवृत्तः’ पदका तात्पर्य है कि कर्मयोगसे सिद्ध
महापुरुषके द्वारा होनेवाले सब कर्म सांगोपांग रीतिसे होते हैं; क्योंकि कर्मफलमें उसकी किंचिन्मात्र
भी आसक्ति नहीं होती । उसके सम्पूर्ण कर्म केवल संसारके हितके लिये होते हैं । जिसकी कर्मफलमें आसक्ति होती है, वह सांगोपांग रीतिसे कर्म नहीं कर सकता, क्योंकि फलके साथ सम्बन्ध होनेसे कर्म
करते हुए बीच-बीचमें फलका चिन्तन होनेसे उसकी शक्ति व्यर्थ खर्च हो जाती है, जिससे उसकी शक्ति पूरी तरह कर्म करनेमें
नहीं लगती । ‘अपि’ पदका तात्पर्य है कि सांगोपांग रीतिसे
सब कर्म करते हुए भी वह वास्तवमें किंचिन्मात्र भी कोई कर्म नहीं करता; क्योंकि सर्वथा निर्लिप्त होनेके कारण
कर्मका स्पर्श ही नहीं होता । उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं । जब वह कुछ भी नहीं
करता, तब
वह कर्मफलसे बँध ही कैसे सकता है ? इसीलिये अठारहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान्ने
कहा है कि कर्मफलका त्याग करनेवाले कर्मयोगीको कर्मोंका फल कहीं भी नहीं मिलता‒‘न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ।’ प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है । अतः
जबतक प्रकृतिके गुणों (क्रिया और पदार्थ)-से सम्बन्ध है, तबतक कर्म न करते हुए भी मनुष्यका
कर्मोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है । प्रकृतिके गुणोंसे सम्बन्ध न रहनेपर मनुष्य कर्म
करते हुए भी कुछ नहीं करता । कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका प्रकृतिजन्य गुणोंसे कोई सम्बन्ध
नहीं रहता, इसलिये
वह लोकहितार्थ सब कर्म करते हुए भी वास्तवमें कुछ नहीं करता । परिशिष्ट भाव‒जबतक मनुष्यमें
कर्तृत्व है, तबतक वह करता है तो करता है, नहीं करता है तो करता है
। परन्तु कर्तृत्व मिटनेपर वह कभी कुछ नहीं करता ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जिसके भीतर कर्तृत्वाभिमान और फलासक्ति
है, वह कर्म न करनेपर भी बँधा हुआ है ।
परन्तु जिसके भीतर कर्तृत्वाभिमान और फलासक्ति नहीं है, वह कर्म करते हुए भी मुक्त है । രരരരരരരരരര |