।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०८०, सोमवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒उन्‍नीसवें-बीसवें श्‍लोकोंमें कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषकी कर्मोंसे निर्लिप्‍तताका वर्णन करके अब भगवान् इक्‍कीसवें श्‍लोकमें निवृत्तिपरायण और बाईसवें श्‍लोकमें प्रवृत्तिपरायण कर्मयोगके साधककी कर्मोंसे निर्लिप्‍तताका वर्णन करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒निवृत्तिपरायण कर्मयोगीकी कर्मोंसे निर्लिप्‍तता ।

     निराशीर्यतचित्तात्मा      त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्‍नाप्‍नोति किल्विषम् ॥ २१ ॥

अर्थ‒जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ है, जिसने सब प्रकारके संग्रहका परित्याग कर दिया है, ऐसा इच्छारहित (कर्मयोगी) केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापको प्राप्‍त नहीं होता ।

यतचित्तात्मा = जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ है,

कर्म = कर्म

त्यक्तसर्वपरिग्रहः = जिसने सब प्रकारके संग्रहका परित्याग कर दिया है, (ऐसा)

कुर्वन् = करता हुआ (भी)

निराशीः = इच्छारहित (कर्मयोगी)

किल्बिषम् = पापको

केवलम् = केवल

, आप्‍नोति = प्राप्‍त नहीं होता ।

शारीरम् = शरीर-सम्बन्धी

 

व्याख्या‘यतचित्तात्मा’संसारमें आशा या इच्छा रहनेके कारण ही शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि वशमें नहीं होते । इसी श्‍लोकमें ‘निराशीः’ पदसे बताया है कि कर्मयोगीमें आशा या इच्छा नहीं रहती । अतः उसके शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण स्वतः वशमें रहते हैं । इनके वशमें रहनेसे उसके द्वारा व्यर्थकी कोई क्रिया नहीं होती ।

त्यक्तसर्वपरिग्रहः’कर्मयोगी अगर संन्यासी है, तो वह सब प्रकारकी भोग-सामग्रीके संग्रहका स्वरूपसे त्याग कर देता है । अगर वह गृहस्थ है, तो वह भोग-बुद्धिसे (अपने सुखके लिये) किसी भी सामग्रीका संग्रह नहीं करता । उसके पास जो भी सामग्री है उसको वह अपनी और अपने लिये न मानकर संसारकी और संसारके लिये ही मानता है तथा संसारके सुखमें ही उस सामग्रीको लगाता है । भोगबुद्धिसे संग्रहका त्याग करना तो साधकमात्रके लिये आवश्यक है ।

[ ऐसा निवृत्तिपरक श्‍लोक गीतामें और कहीं नहीं आया है । छठे अध्यायके दसवें श्‍लोकमें ध्यानयोगीके लिये और अठारहवें अध्यायके तिरपनवें श्‍लोकमें ज्ञानयोगीके लिये परिग्रहका त्याग करनेकी बात आयी है । परन्तु उनसे भी ऊँची श्रेणीके परिग्रह-त्यागकी बात ‘त्यक्तसर्वपरिग्रहः’ पदसे यहीं आयी है; क्योंकि ‘परिग्रह’ के साथ ‘सर्व’ शब्द केवल यहाँ आया है । बारहवें अध्यायके उन्‍नीसवें श्‍लोकमें भक्तियोगीके लिये ‘अनिकेतः’ पद आया है, पर वहाँ इसका अर्थ निवास-स्थानमें ममता-आसक्तिसे रहित होना है । ]

‘निराशीः’कर्मयोगीमें आशा, कामना, स्पृहा, वासना आदि नहीं रहते । वह बाहरसे ही भोग-सामग्रीके संग्रहका त्याग करता हों‒इतनी ही बात नहीं है, प्रत्युत वह भीतरसे भी भोग-सामग्रीकी आशा या इच्छाका त्याग कर देता है । आशा या इच्छाका सर्वथा त्याग न होनेपर भी उसका उद्‍देश्य इनके त्यागका ही रहता है ।

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्’‘शारीरम् कर्म’ (शरीर-सम्बन्धी कर्म) के दो अर्थ होते हैं‒एक तो शरीरसे होनेवाला कर्म और दूसरा शरीर-निर्वाहके लिये किया जानेवाला कर्म । शरीरसे होनेवाले कर्मकी बात पाँचवें अध्यायके ग्यारहवें श्‍लोकमें भी आयी है, जिसका तात्पर्य है कि सभी कर्म केवल शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिके द्वारा ही हो रहे हैं, मेरा उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, ऐसा मानकर कर्मयोगी अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं । परन्तु यहाँ आया श्‍लोक निवृत्तिपरक है, इसलिये यहाँ उपर्युक्त पदोंका अर्थ शरीरनिर्वाहमात्रके लिये किये जानेवाले आवश्यक कर्म (खान-पान, शौच-स्‍नान आदि) मानना ही उपयुक्त प्रतीत होता है । निवृत्ति-परायण कर्मयोगी केवल उतने ही कर्म करता है, जितनेसे केवल शरीर-निर्वाह हो जाय ।

नाप्‍नोति किल्बिषम्’जो कर्म करने अथवा न करनेसे अपना किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध रखता है, वह पापको अर्थात् जन्म-मरणरूप बन्धनको प्राप्‍त होता है । परन्तु आशारहित कर्मयोगी कर्म करने अथवा न करनेसे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता, इसलिये वह पापको प्राप्‍त नहीं होता अर्थात् उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं ।

निवृत्तिपरायण होनेपर भी कर्मयोगी कभी आलस्य-प्रमाद नहीं करता । आलस्य-प्रमादका भी भोग होता है । एकान्तमें यों ही पड़े रहनेसे आलस्यका भोग होता है और शास्‍त्रविरुद्ध तथा निरर्थक कर्म करनेसे प्रमादका भोग होता है । इस प्रकार निवृत्तिमें आलस्यके सुखका और प्रवृत्तिमें प्रमादके सुखका भोग हो सकता है । अतः आलस्य-प्रमादसे मनुष्य पापको प्राप्‍त होता है । परन्तु बहुत कम कर्म करनेपर भी निवृत्ति-परायण कर्मयोगीमें किंचिन्मात्र भी आलस्य-प्रमाद नहीं आते । यदि उसमें किंचिन्मात्र भी आलस्य-प्रमाद आते, तो ‘किल्बिषम् न आप्‍नोति’ कहना बनता ही नहीं । वह ‘यतचित्तात्मा’ है अर्थात् उसके शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण संयत हैं, इसलिये उसमें आलस्य-प्रमाद आ ही नहीं सकते । शरीर, इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरणके वशमें होनेसे, भोग-सामग्रीका त्याग करनेसे तथा आशा, कामना, ममता आदिसे रहित होनेसे उसके द्वारा निषिद्ध क्रिया हो सकती ही नहीं ।

यहाँ शंका हो सकती है कि जब उसके द्वारा पाप-क्रिया हो सकती ही नहीं, तब यह क्यों कहा गया कि वह पापको प्राप्‍त नहीं होता ? इसका समाधान यह है कि क्रियामात्रके आरम्भमें अनिवार्य दोष (पाप) पाये जाते हैं‒‘सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्‍निरिवावृताः’ (गीता १८ । ४८) । परन्तु मूलमें असत्‌के संग‒कामना, ममता और आसक्तिसे ही पाप लगते हैं । कर्मयोगीमें कामना, ममता और आसक्ति होती ही नहीं अथवा उसका कामना, ममता और आसक्तिका उद्‍देश्य ही नहीं होता; इसलिये उसका कर्म करनेसे अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं होता । इसी कारण न तो उसे कर्मोंमें रहनेवाला आनुषंगिक पाप लगता है और न उसे शास्‍त्रविहित कर्मोंके त्यागका ही पाप लगता है ।

दूसरी एक शंका यह हो सकती है कि तीसरे अध्यायमें भगवान्‌ने सिद्ध महापुरुषको भी (अपने लिये कोई कर्तव्य शेष न रहनेपर भी) लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेकी प्रेरणा की है (तीसरे अध्यायका पचीसवाँ-छब्बीसवाँ श्‍लोक) । अपने लिये भी भगवान्‌ने कहा है कि त्रिलोकीमें कुछ भी कर्तव्य और प्राप्‍तव्य न होनेपर भी मैं सावधानीपूर्वक कर्म करता हूँ (तीसरे अध्यायके बाईसवेंसे चौबीसवें श्‍लोकतक) । अतः शरीर-निर्वाहमात्रके लिये कर्म करनेवाले कर्मयोगीको क्या लोकसंग्रहके त्यागका दोष नहीं लगेगा ? इसका समाधान यह है कि कामना, ममता आदि न रहनेके कारण उसे कोई दोष नहीं लगता । यद्यपि सिद्ध महापुरुषमें और भगवान्‌में कामना, ममता आदिका सर्वथा अभाव होता है, तथापि वे जो लोकसंग्रहके लिये कर्म करते हैं, यह उनकी दया, कृपा ही है । वास्तवमें वे लोकसंग्रह करें अथवा न करें, इसमें वे स्वतन्त्र हैं, इसकी उनपर कोई जिम्मेवारी नहीं है (गीता‒तीसरे अध्यायका अठारहवाँ श्‍लोक) । वास्तवमें यह भी निवृत्तिपरायण साधकोंके लिये एक लोकसंग्रह ही है । लोकसंग्रह किया नहीं जाता, प्रत्युत होता है ।

तीसरी एक शंका यह भी हो सकती है कि तीसरे अध्यायके तेरहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने केवल अपने शरीरका पोषण करनेवाले मनुष्यको पापी कहा है और यहाँ कहते हैं कि शरीर-निर्वाहमात्रके लिये कर्म करनेवाला पापको नहीं प्राप्‍त होता । दोनोंका सामंजस्य कैसे हो ? इसका समाधान यह है कि जबतक भोगबुद्धि है और कर्मों तथा पदार्थोंमें आसक्ति बनी हुई है, तबतक कर्म करने अथवा न करनेसे पाप लगता ही है, इसीलिये वहाँ ‘पचन्ति आत्मकारणात्’ पद आये हैं । परन्तु उस कर्मयोगीमें भोगबुद्धि नहीं है और कर्मों तथा पदार्थोंमें आसक्ति भी नहीं है; अतः सर्वथा निर्लिप्‍त होनेसे उसे कर्म करने अथवा न करनेसे किंचिन्मात्र भी पाप नहीं लगता ।

प्रश्‍नइस श्‍लोकको अगर सांख्ययोगीका मान लें तो क्या आपत्ति है; क्योंकि इसमें आये सब लक्षण सांख्ययोगीमें घटते हैं ?

उत्तर‒पहली बात तो यह है कि यहाँ कर्मयोगका प्रसंग है, इसलिये यह श्‍लोक मुख्यरूपसे कर्मयोगीका ही है । दूसरी बात, सांख्ययोगी अपनेको कर्ता मानता ही नहीं । उसमें ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ (गीता‒पाँचवें अध्यायका आठवाँ श्‍लोक)‒ऐसा स्पष्‍ट विवेक रहता है; फिर उसके लिये ‘कर्म करता हुआ भी पापको नहीं प्राप्‍त होता’ऐसा कहना कैसे बन सकता है ?

कर्मयोगके साधकमें वैसा स्पष्‍ट विवेक जाग्रत् न होनेपर भी उसका यह निश्‍चय रहता है कि ‘मेरा कुछ नहीं है; मेरे लिये कुछ नहीं चाहिये और मेरे लिये कुछ नहीं करना है ।’ इन तीन बातोंका दृढ़ निश्‍चय रहनेके कारण वह कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्‍त रहता है ।

लोगोंमें प्रायः ऐसी मान्यता है कि कर्मयोगी गृहस्थ-आश्रममें और ज्ञानयोगी (सांख्ययोगी) संन्यास-आश्रममें रहता है । परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है । जिसे शरीरसे अपनी अलग सत्ताका स्पष्‍ट विवेक है, वह ज्ञानयोगी ही है; चाहे वह गृहस्थ-आश्रममें हो अथवा संन्यास-आश्रममें । जिसमें इतना विवेक नहीं है, पर उपर्युक्त तीन बातोंका निश्‍चय पक्‍का है, वह कर्मयोगी ही है; चाहे वह गृहस्थ-आश्रममें हो अथवा संन्यास-आश्रममें ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒केवल शरीर-निर्वाहके लिये जो कर्म किये जायँ, उनसे यदि कोई पाप बन भी जाय तो वह लगता नहीं । परन्तु जो मनुष्य भोग और संग्रहके लिये कर्म करता है, वह पापसे बच नहीं सकता ।

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