Listen ‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्’‒जब स्वरूपमें कर्तापन है ही नहीं, तब क्रियाएँ कैसे और किसके द्वारा हो रही हैं ?‒इस प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान् उपर्युक्त पदोंमें कहते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ इन्द्रियोंके द्वारा इन्द्रियोंके विषयोंमें ही हो रही हैं । यहाँ भगवान्का तात्पर्य इन्द्रियोंमें कर्तृत्व बतानेमें नहीं है, प्रत्युत स्वरूपको कर्तृत्वरहित (निर्लिप्त) बतानेमें है । ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण, प्राण, उपप्राण आदि सबको यहाँ ‘इन्द्रियाणि’ पदके अन्तर्गत लिया गया है । इन्द्रियोंके पाँच विषय हैं‒शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध । इन विषयोंमें ही इन्द्रियोंका बर्ताव होता है । सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके विषय प्रकृतिका कार्य हैं । इसलिये इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं‒ (१) प्रकृतेः
क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः
। (गीता ३ । २७) (२) प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः
। (गीता १३ । २९) गुणोंका कार्य होनेसे इन्द्रियों और उनके विषयोंको ‘गुण’ ही कहा जाता है । अतः गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं‒‘गुणा
गुणेषु
वर्तन्ते’ (गीता ३ । २८) । गुणोंके सिवाय दूसरा कोई कर्ता नहीं है‒‘नान्यं
गुणेभ्य: कर्तारं
यदा द्रष्टानुपश्यति’ (गीता १४ । १९) । तात्पर्य यह है कि क्रियामात्रको चाहे प्रकृतिसे होनेवाली कहें, चाहे प्रकृतिके कार्य गुणोंके द्वारा होनेवाली कहें, चाहे इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली कहें, बात वास्तवमें एक ही है । क्रियाका
तात्पर्य
है‒परिवर्तन ।
परिवर्तनरूप क्रिया प्रकृतिमें ही होती है । स्वरूपमें परिवर्तनरूप क्रिया लेशमात्र भी नहीं है । कारण कि प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है और स्वरूप कर्तापनसे रहित है । प्रकृति कभी अक्रिय नहीं हो सकती और स्वरूपमें कभी क्रिया नहीं हो सकती । क्रियामात्र प्रकाश्य है और स्वरूप प्रकाशक है । ‘नैव किञ्चित्करोमीति मन्येत’‒यहाँ ‘मैं (स्वरूपसे) कर्ता नहीं हूँ’‒इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मैं (स्वरूप) पहले कर्ता था । स्वरूपमें कर्तापन न तो वर्तमानमें है, न भूतमें था और न भविष्यमें ही होगा । क्रियामात्र प्रकृतिमें ही हो रही है; क्योंकि प्रकृति सदा क्रियाशील है और पुरुष अर्थात् चेतन-तत्त्व सदा क्रियारहित है
। जब चेतन
अनादि
भूलसे
प्रकृतिके कार्यके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह प्रकृतिकी क्रियाओंको अपनी क्रियाएँ मानने लग जाता है और उन क्रियाओंका कर्ता स्वयं बन जाता है (गीता‒तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक) । जैसे, एक मनुष्य चलती हुई रेलगाड़ीके डिब्बेमें बैठा हुआ है, चल नहीं रहा है; परन्तु रेलगाड़ीके चलनेके कारण उसका चले बिना ही चलना हो जाता है । रेलगाड़ीमें चढ़नेके कारण अब वह चलनेसे रहित नहीं हो सकता । ऐसे ही क्रियाशील प्रकृतिके कार्यरूप स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒किसी भी शरीरके साथ जब स्वयं अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब स्वयं कर्म न करते हुए भी वह उन शरीरोंसे होनेवाली क्रियाओंका कर्ता हुए बिना रह नहीं सकता । सांख्ययोगी शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिके साथ कभी अपना सम्बन्ध नहीं मानता, इसलिये वह कर्मोंका कर्तापन अपनेमें कभी अनुभव नहीं करता (गीता‒पाँचवें अध्यायका तेरहवाँ श्लोक) । जैसे शरीरका बालकसे युवा होना, बालोंका कालेसे सफेद होना, खाये हुए अन्नका पचना, शरीरका सबल अथवा निर्बल होना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक (अपने-आप) होती हैं, ऐसे ही दूसरी सम्पूर्ण क्रियाओंको भी सांख्ययोगी स्वाभाविक होनेवाली अनुभव करता है । तात्पर्य है कि वह अपनेको किसी भी क्रियाका कर्ता अनुभव नहीं करता । गीतामें स्वयंको कर्ता माननेवालेकी निन्दा की गयी है (तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक) । इसी प्रकार शुद्ध स्वरूपको कर्ता माननेवालेको मलिन अन्तःकरणवाला और दुर्मति कहा गया है (अठारहवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक) । परन्तु स्वरूपको अकर्ता माननेवालेकी प्रशंसा की गयी है (तेरहवें अध्यायका उनतीसवाँ श्लोक) । ‘एव’
पद देनेका तात्पर्य है कि साधक कभी किंचिन्मात्र भी अपनेमें कर्तापनकी मान्यता न करे अर्थात् कभी किसी भी अंशमें अपनेको किसी कर्मका कर्ता न माने । इस प्रकार जब अपनेमें कर्तापनका भाव नहीं रहता, तब उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंकी संज्ञा ‘कर्म’ नहीं रहती, प्रत्युत ‘क्रिया’ रहती है । उन्हें ‘चेष्टामात्र’ कहा जाता है । इसी लक्ष्यसे तीसरे अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें ज्ञानी महापुरुषसे होनेवाली क्रियाको ‘चेष्टते’ पदसे कहा गया है । यहाँ ‘एव’ पद देनेका दूसरा तात्पर्य यह है कि स्वयंका शरीरके साथ तादात्म्य होनेपर भी, शरीरके साथ कितना ही घुल-मिल जानेपर भी और अपनेको ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसे मान लेनेपर भी स्वयंमें कभी कर्तृत्व आता ही नहीं और न कभी आ ही सकता है । किंतु प्रकृतिके साथ तादात्म्य करके यह स्वयं अपनेमें कर्तृत्व मान लेता है; क्योंकि इसमें
मानने
और न माननेकी
सामर्थ्य
है, स्वतन्त्रता है, इसलिये यह अपनेको कर्ता भी मान लेता है और जब यह अपनी तरफ देखता है तो अकर्तापन भी इसके अनुभवमें आता है
। ये दोनों बातें
(अपनेमें कर्तृत्व मानना और न
मानना) होनेपर भी स्वयंमें कभी कर्तृत्व आता ही नहीं ।
तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है‒शरीरमें रहता हुआ भी वह न करता है और न लिप्त ही होता है । भोक्ता तो प्रकृतिस्थ पुरुष ही बनता है (गीता‒तेरहवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक) । गुणोंका‒क्रियाफलका भोक्ता बननेपर भी वह वास्तवमें अपने स्वरूपसे कभी च्युत नहीं होता; किन्तु अपने स्वरूपकी तरफ दृष्टि न रहनेसे अपनेमें लिप्तताका भाव पैदा होता है
। यद्यपि पुरुष स्वयं स्वरूपसे निर्लिप्त है, उसमें भोक्तापन है नहीं, हो सकता नहीं, तथापि सुख-दुःखका भोक्ता तो स्वयं पुरुष (चेतन) ही बनता है अर्थात् सुखी-दुःखी तो स्वयं पुरुष (चेतन) ही होता है, जड नहीं; क्योंकि जडमें सुखी-दुःखी होनेकी शक्ति और योग्यता नहीं है । तो फिर पुरुषमें भोक्तापन है नहीं और सुख-दुःखका भोक्ता पुरुष ही बनता है‒ये दोनों बातें कैसे ? भोगके समय जो भोगाकार‒सुख-दुःखाकार वृत्ति बनती है, वह तो प्रकृतिकी होती है और प्रकृतिमें ही होती है । परन्तु उस वृत्तिके साथ तादात्म्य होनेसे सुखी-दुःखी होना अर्थात् ‘मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ’‒ऐसी मान्यता अपनेमें स्वयं पुरुष ही करता है । कारण कि यह मानना पुरुषके बिना नहीं होता अर्थात् यह मानना पुरुषमें ही हो सकता है, जडमें नहीं; इस दृष्टिसे पुरुष भोक्ता कहा गया है । सुखी-दुःखी
होना
अपनेमें
माननेपर
भी अर्थात्
सुखके
समय सुखी
और दुःखके
समय दुःखी‒ऐसी मान्यता
अपनेमें
करनेपर
भी पुरुष
स्वयं
अपने
स्वरूपसे
निर्लिप्त और सुख-दुःखका प्रकाशकमात्र ही रहता है; इस दृष्टिसे पुरुषमें भोक्तापन है नहीं और हो सकता ही नहीं
। कारण कि एकदेशीयपनसे ही भोक्तापन होता है और एकदेशीयपन अहंकारसे होता है । अहंकार प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति जड है; अतः उसका कार्य भी जड ही होता है अर्थात् भोक्तापन भी जड ही होता है । इसलिये भोक्तापन पुरुष (चेतन)-में नहीं है । अगर यह पुरुष सुखके समय सुखी और दुःखके समय दुःखी होता तो इसका स्वरूप परिवर्तनशील ही होता; क्योंकि सुखका भी आरम्भ और अन्त होता है तथा दुःखका भी आरम्भ और अन्त होता है । ऐसे ही यह पुरुष भी आरम्भ और अन्तवाला हो जाता, जो कि सर्वथा अनुचित है । कारण कि गीताने इसको अक्षर, अव्यय और निर्लिप्त कहा है और तत्त्वज्ञ पुरुषोंने इसका स्वरूप एकरस, एकरूप माना है । अगर इस पुरुषको
सुखके
समय सुखी
और दुःखके
समय दुःखी
होनेवाला
ही मानें, तो फिर पुरुष
सदा एकरस, एकरूप
रहता
है‒ऐसा कैसे
कह सकते
हैं ? विशेष बात
तीसरे अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें ‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’‒इसमें आये ‘मन्यते’ पदसे जो बात आयी थी, उसीका निषेध यहाँ ‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’‒इसमें आये ‘मन्येत’ पदसे किया गया है । ‘मन्येत’ पदका
अर्थ
मानना
नहीं
है, प्रत्युत
अनुभव
करना
है; क्योंकि
स्वरूपमें क्रिया नहीं है‒यह अनुभव है, मान्यता नहीं
। कर्म करते समय अथवा न करते समय‒दोनों अवस्थाओंमें स्वरूपमें अकर्तापन ज्यों-का-त्यों है । इसलिये तत्त्ववित् पुरुष यह अनुभव करता है कि कर्म करते समय भी मैं वही था और कर्म न करते समय भी मैं वही रहा; अतः कर्म करने अथवा न करनेसे अपने स्वरूप (अपनी सत्ता)-में क्या फर्क पड़ा ? अर्थात् स्वरूप तो अकर्ता ही रहा । इस प्रकार प्रकृतिके परिवर्तनका ज्ञान (अनुभव) तो सबको होता है, पर अपने
स्वरूपके
परिवर्तनका ज्ञान किसीको नहीं होता
। स्वरूप
सम्पूर्ण
क्रियाओंका निर्लिप्तरूपसे आश्रय, आधार और प्रकाशक है
। उसमें
कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तनकी सम्भावना नहीं है
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