।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धकर्मोंके होनेके विषयमें कर्मयोगीकी बात कहकर अब भगवान् आगेके दो श्‍लोकोंमें सांख्ययोगके साधनकी बात कहते हैं ।

सूक्ष्म विषयकर्मोंके होनेमें सांख्ययोगीकी निर्लिप्‍तताका कथन ।

    नैव  किञ्‍चित्करोमीति  युक्तो  मन्येत  तत्त्ववित् ।

   पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्‍जिघ्रन्‍नश्‍नन्गच्छन्स्वपञ्‍श्‍वसन् ॥ ८ ॥

    प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्‍नुन्मिषन्‍निमिषन्‍नपि            ।

   इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु   वर्तन्त     इति    धारयन् ॥ ९ ॥

अर्थतत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ, (मल-मूत्रका) त्याग करता हुआ, सोता हुआ, श्‍वास लेता हुआ तथा आँख खोलता हुआ और मूँदता हुआ भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं’‒ऐसा समझकर मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ’‒ऐसा माने ।

तत्त्ववित् = तत्त्वको जाननेवाला

निमिषन् = मूँदता हुआ

युक्तः = सांख्ययोगी

अपि = भी

पश्यन् = देखता हुआ,

इन्द्रियाणि = सम्पूर्ण इन्द्रियाँ

शृण्वन् = सुनता हुआ,

इन्द्रियार्थेषु = इन्द्रियोंके विषयोंमें

स्पृशन् = छूता हुआ,

वर्तन्ते = बरत रही हैं’‒

जिघ्रन् = सूँघता हुआ,

इति = ऐसा

अश्‍नन् = खाता हुआ,

धारयन् = समझकर

गच्छन् = चलता हुआ

किञ्‍चित् = ‘(मैं स्वयं) कुछ

गृह्णन् = ग्रहण करता हुआ,

एव = भी

प्रलपन् = बोलता हुआ,

= नहीं

विसृजन् = (मल-मूत्रका) त्याग करता हुआ,

करोमि = करता हूँ’‒

स्वपन् = सोता हुआ,

इति = ऐसा

श्‍वसन् = श्‍वास लेता हुआ (तथा)

मन्येत = माने ।

उन्मिषन् = आँख खोलता हुआ (और)

 

व्याख्यातत्त्ववित् युक्तःयहाँ ये पद सांख्ययोगके विवेकशील साधकके वाचक हैं, जो तत्त्ववित् महापुरुषकी तरह निर्भ्रान्त अनुभव करनेके लिये तत्पर रहता है । उसमें ऐसा विवेक जाग्रत् हो गया है कि सब क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं, उन क्रियाओंका मेरे साथ कोई सम्बन्ध है ही नहीं ।

जो अपनेमें अर्थात् स्वरूपमें कभी किंचिन्मात्र भी किसी क्रियाके कर्तापनको नहीं देखता, वह तत्त्ववित् है । उसमें नित्य-निरन्तर स्वाभाविक ही यह सावधानी रहती है कि स्वरूपमें कर्तापन है ही नहीं । प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिके साथ वह कभी भी अपनी एकता स्वीकार नहीं करता, इसलिये इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको वह अपनी क्रियाएँ मान ही कैसे सकता है ?

वास्तवमें उपर्युक्त स्थिति स्वरूपसे सभी मनुष्योंकी है; परन्तु वे भूलसे स्वरूपको क्रियाओंका कर्ता मान लेते हैं (गीतातीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्‍लोक) परमात्माकी जिस शक्तिसे समष्‍टि संसारकी क्रियाएँ हो रही हैं, उसी शक्तिसे व्यष्‍टि शरीरकी क्रियाएँ भी हो रही हैं । परन्तु समष्‍टिके ही क्षुद्र अंश व्यष्‍टिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेनेके कारण मनुष्य व्यष्‍टिकी कुछ क्रियाओंको अपनी क्रियाएँ मानने लग जाता है । इस मान्यताको हटानेके लिये ही भगवान् कहते हैं कि साधक अपनेको कभी कर्ता माने । जबतक किसी भी अंशमें कर्तापनकी मान्यता है, तबतक वह साधक कहा जाता है । जब अपनेमें कर्तापनकी मान्यताका सर्वथा अभाव होकर अपने स्वरूपका अनुभव हो जाता है, तब वह तत्त्ववित् महापुरुष कहा जाता है । जैसे स्वप्‍नसे जगनेपर मनुष्यका स्वप्‍नसे बिलकुल सम्बन्ध नहीं रहता, ऐसे ही तत्त्ववित् महापुरुषका शरीरादिसे होनेवाली क्रियाओंसे बिलकुल सम्बन्ध (कर्तापन) नहीं रहता ।

यहाँ तत्त्ववित् वही है, जो प्रकृति और पुरुषके विभागको अर्थात् गुण और क्रिया सब प्रकृतिमें है, प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें गुण और क्रिया नहीं हैइसको ठीक-ठीक जानता है । प्रकृतिसे अतीत निर्विकार तत्त्व तो सबका प्रकाशक और आधार है । सबका प्रकाशक होता हुआ भी वह प्रकाश्यके अन्तर्गत ओत-प्रोत है । प्रकाश्य (शरीर आदि)-में घुला-मिला रहनेपर भी प्रकाशक प्रकाशक ही है और प्रकाश्य प्रकाश्य ही है । ऐसे ही वह सबका आधार होता हुआ भी सबके (आधेयके) कण-कणमें व्याप्‍त है; पर वह कभी आधेय नहीं होता । कारण कि जो प्रकाशक और आधार है, उसमें करना और होना नहीं है । करना और होनारूप परिवर्तन तो प्रकाश्य अथवा आधेयमें ही है । इस तरह प्रकाशक और प्रकाश्य, आधार और आधेयके भेद (विभाग)-को जो ठीक तरहसे जानता है, वही तत्त्ववित्है । इसी प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ)-के विभागको जाननेकी बात भगवान्‌ने पहले दूसरे अध्यायके सोलहवें श्‍लोकमें और आगे सातवें अध्यायके चौथे-पाँचवें तथा तेरहवें अध्यायके दूसरे, उन्‍नीसवें, तेईसवें और चौंतीसवें श्‍लोकमें कही है ।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्‍जिघ्रन्‍नश्‍नन्गच्छन्स्वपञ्‍श्‍वसन् प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्‍नुन्मिषन्‍निमिषन्‍नपियहाँ देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना और खानाये पाँचों क्रियाएँ (क्रमशः नेत्र, श्रोत्र, त्वचा, घ्राण और रसनाइन पाँच) ज्ञानेन्द्रियोंकी हैं । चलना, ग्रहण करना, बोलना और मल-मूत्रका त्याग करनाये चारों क्रियाएँ (क्रमशः पाद, हस्त, वाक्, उपस्थ और गुदाइन पाँच) कर्मेन्द्रियोंकी हैं सोनायह एक क्रिया अन्तःकरणकी है । श्‍वास लेनायह एक क्रिया प्राणकी और आँखें खोलना तथा मूँदनाये दो क्रियाएँ कूर्मनामक उपप्राणकी हैं ।

१.यहाँ पाँचों कर्मेन्द्रियोंकी क्रियाओंका वर्णन चार क्रियाओंके अन्तर्गत किया गया है अर्थात् विसृजन्’ क्रियाके अन्तर्गत ही उपस्थ और गुदाकी क्रियाओंका वर्णन किया गया है ।

उपर्युक्त तेरह क्रियाएँ देकर भगवान्‌ने ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण, प्राण और उपप्राणसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंका उल्लेख कर दिया है । तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिके द्वारा ही होती हैं, स्वयंके द्वारा नहीं । दूसरा एक भाव यह भी प्रतीत होता है कि सांख्ययोगीके द्वारा वर्ण, आश्रम, स्वभाव, परिस्थिति आदिके अनुसार शास्‍त्रविहित शरीर-निर्वाहकी क्रियाएँ, खान-पान, व्यापार करना, उपदेश देना, लिखना, पढ़ना, सुनना, सोचना आदि क्रियाएँ होती होंऐसी बात नहीं है । उसके द्वारा ये सब क्रियाएँ हो सकती हैं ।

मनुष्य अपनेको उन्हीं क्रियाओंका कर्ता मानता है, जिनको वह जानकर अर्थात् मन-बुद्धिपूर्वक करता है; जैसे पढ़ना, लिखना, सोचना, देखना, भोजन करना आदि । परन्तु अनेक क्रियाएँ ऐसी होती हैं, जिन्हें मनुष्य जानकर नहीं करता; जैसेश्‍वासका आना-जाना, आँखोंका खुलना और बंद होना आदि । फिर इन क्रियाओंका कर्ता अपनेको माननेकी बात इस श्‍लोकमें कैसे कही गयी ? इसका उत्तर यह है कि सामान्यरूपसे श्‍वासोंका आना-जाना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक होनेवाली हैं; किन्तु प्राणायाम आदिमें मनुष्य श्‍वास लेना आदि क्रियाएँ जानकर करता है । ऐसे ही आँखोंको खोलना और बंद करना भी जानकर किया जा सकता है । इसलिये इन क्रियाओंका कर्ता भी अपनेको माननेके लिये कहा गया है । दूसरी बात, जैसे मनुष्य श्‍वसन् उन्मिषन् निमिषन् (श्‍वास लेना, आँखोंको खोलना और मूँदना)इन क्रियाओंको स्वाभाविक मानकर इनमें अपना कर्तापन नहीं मानता, ऐसे ही अन्य क्रियाओंको भी स्वाभाविक मानकर उनमें अपना कर्तापन नहीं मानना चाहिये ।

यहाँ पश्यन् आदि जो तेरह क्रियाएँ बतायी हैं, इनका बिना किसी आधारके होना सम्भव नहीं है । ये क्रियाएँ जिसके आश्रित होती हैं अर्थात् इन क्रियाओंका जो आधार है, उसमें कभी कोई क्रिया नहीं होती । ऐसे ही प्रकाशित होनेवाली ये सम्पूर्ण क्रियाएँ बिना किसी प्रकाशके सिद्ध नहीं हो सकतीं । जिस प्रकाशसे ये क्रियाएँ प्रकाशित होती हैं, जिस प्रकाशके अन्तर्गत होती हैं, उस प्रकाशमें कभी कोई क्रिया हुई नहीं, होती नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं और होनी सम्भव भी नहीं । ऐसा वह तत्त्व सबका आधार, प्रकाशक और स्वयं प्रकाशस्वरूप है । वह सबमें रहता हुआ भी कुछ नहीं करता । उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य करानेमें ही उपर्युक्त इन तेरह क्रियाओंका तात्पर्य है ।

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