।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०८०, सोमवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब भगवान् कर्मयोगीके लक्षणोंका वर्णन करते हैं ।

प्रधान विषय१२ श्‍लोकतकसांख्ययोग और कर्मयोगके साधनका प्रकार ।

सूक्ष्म विषयकर्मोंके होनेमें कर्मयोगीकी निर्लिप्‍तताका कथन ।

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।

      सर्वभूतात्मभूतात्मा  कुर्वन्‍नपि        लिप्यते ॥ ७ ॥

अर्थजिसकी इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं, जिसका अन्तःकरण निर्मल है, जिसका शरीर अपने वशमें है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा ही जिसकी आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्‍त नहीं होता ।

जितेन्द्रियः = जिसकी इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं,

योगयुक्तः = कर्मयोगी

विशुद्धात्मा = जिसका अन्तःकरण निर्मल है,

कुर्वन् = (कर्म) करते हुए

विजितात्मा = जिसका शरीर अपने वशमें है (और)

अपि = भी

सर्वभूतात्मभूतात्मा = सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा ही जिसकी आत्मा है, (ऐसा)

, लिप्यते = लिप्‍त नहीं होता ।

व्याख्याजितेन्द्रियःइन्द्रियाँ वशमें होनेका तात्पर्य हैइन्द्रियोंका राग-द्वेषसे रहित होना । राग-द्वेषसे रहित होनेपर इन्द्रियोंमें मनको विचलित करनेकी शक्ति नहीं रहती साधक उनको अपने मनके अनुकूल चाहे जहाँ लगा सकता है ।

१.श्रुत्वा स्‍पृष्‍ट्‌वा च दृष्‍ट्‌वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः ।

     न  हृष्यति   ग्लायति   वा    स   विज्ञेयो   जितेन्द्रियः ॥

(मनुस्मृति २ । ९८)

‘जो पुरुष सुनकर, छूकर, देखकर, खाकर और सूँघकर न तो प्रसन्‍न होता है और न खिन्‍न होता है, उसे ही जितेन्द्रिय जानना चाहिये ।’

कर्मयोगके साधकके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना आवश्यक है । इसीलिये भगवान् कर्मयोगके प्रकरणमें इन्द्रियोंको वशमें करनेकी बात विशेषरूपसे कहते हैं; जैसे‘यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्य (३ । ); तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य (३ । ४१) कर्मयोगीका कर्मोंके साथ अधिक सम्बन्ध रहता है; इसलिये इन्द्रियाँ वशमें होनेसे उसके विचलित होनेकी सम्भावना रहती है । कर्मयोगके साधनमें दूसरोंके हितके लिये सेवारूपसे कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है, जिसके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना बहुत जरूरी है । इन्द्रियाँ वशमें हुए बिना कर्मयोगका साधन होना कठिन है ।

विशुद्धात्माअन्तःकरणकी मलिनतामें हेतु हैसांसारिक पदार्थोंका महत्त्व । जहाँ पदार्थोंका महत्त्व रहता है, वहीं उनकी कामनाएँ रहती हैं । साधक निष्काम तभी होता है, जब उसके अन्तःकरणमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व नहीं रहता । जबतक पदार्थोंका महत्त्व है, तबतक वह निष्काम नहीं हो सकता ।

एक परमात्मप्राप्‍तिका दृढ़ उद्‌देश्य होनेसे अन्तःकरणकी जितनी जल्दी और जैसी शुद्धि होती है, उतनी जल्दी और वैसी शुद्धि दूसरे किसी अनुष्‍ठानसे नहीं होती । इसलिये कर्मयोगमें एक उद्‌देश्य होनेकी जितनी महिमा है, उतनी किसीकी नहीं ।

विजितात्माकर्मयोगमें शरीरके सुख-आरामका त्याग करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है । अगर शरीरसे आलस्य-प्रमाद होगा, तो कर्मयोगका अनुष्‍ठान नहीं हो पायेगा । अतः यहाँ भगवान्‌ने शरीरको वशमें करनेकी बात कही है ।

सर्वभूतात्मभूतात्माकर्मयोगीको सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ अपनी एकताका अनुभव हो जाता है

२.चाहे अपने शरीरसे असंग हो जायँ, चाहे अपने शरीर-जैसे सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंसे एकता मान लेंदोनोंका परिणाम एक ही होगा । ज्ञानयोगी अपने शरीरसे असंग होता है और कर्मयोगी सब शरीरोंके साथ अपने शरीरकी एकता मानता है । एकता माननेसे वह उदार हो जाता है ।

जैसे शरीरके किसी एक अंगमें चोट लगनेसे दूसरा अंग उसकी सेवा करनेके लिये सहजभावसे, किसी अभिमानके बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः लग जाता है, ऐसे ही कर्मयोगीके द्वारा दूसरोंको सुख पहुँचानेकी चेष्‍टा सहजभावसे, किसी अभिमान या कामनाके बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः होती है । वह सेवा करनेके लिये किसी भी प्राणीको अपनेसे अलग नहीं समझता, सबको अपने ही अंग मानता है ।

जैसे अपने शरीरमें भिन्‍न-भिन्‍न अवयवोंसे भिन्‍न-भिन्‍न व्यवहार होनेपर भी सब अवयवोंके साथ अपनापन समान (एक ही) रहता है, ऐसे ही कर्मयोगीके द्वारा मर्यादाके अनुसार संसारमें यथायोग्य भिन्‍न-भिन्‍न व्यवहार होनेपर भी सबके साथ अपनापन समान रहता है ।

अपना राग मिटानेके लिये सर्वभूतात्मभूतात्मा होना अर्थात् सब प्राणियोंके साथ अपनी एकता मानना बहुत आवश्यक है । कर्मयोगीका स्वभाव हैउदारता । सर्वभूतात्मभूतात्मा हुए बिना उदारता नहीं आती ।

विशेष बात

क्रिया और पदार्थके साथ हम निरन्तर नहीं रह सकते और वे हमारे साथ निरन्तर नहीं रह सकते । कारण यह है कि क्रिया और पदार्थमें निरन्तर परिवर्तन होता है, पर हमारेमें (स्वरूपसे) कभी परिवर्तन नहीं होता । इसलिये क्रिया और पदार्थ निरन्तर हमारा त्याग कर रहे हैं । हम भी इनका त्याग करके ही मुक्ति पा सकते हैं, परमशान्ति पा सकते हैं । इनके साथ रहकर हम मुक्ति, परमशान्ति नहीं पा सकते; क्योंकि इनके साथ रहनेका हमारा स्वभाव नहीं है और हमारे साथ रहनेका इनका स्वभाव नहीं है । इसलिये क्रिया और पदार्थको दूसरोंकी सेवामें लगाना है । दूसरोंकी सेवामें लगाना हमारी महत्ता नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है । जो वास्तविकता होती है, वह सहज होती है अर्थात् उसमें परिश्रम और अभिमान नहीं होता । अवास्तविकतामें ही परिश्रम और अभिमान होता है ।

क्रिया और पदार्थ दूसरोंकी सेवामें तभी लग सकते हैं, जब हमारेमें उदारता जाय । यहाँ ध्यान देनेकी बात है कि उदारता हमारा स्वरूप है

उदारता गुण भी है और अपना स्वरूप भी । हमारे पास जो पदार्थ हैं, वे दूसरोंकी सेवामें लग जायँइस भावसे उन्हें दूसरोंकी सेवामें लगाया जाय, यह उदारतागुण’ है । हमारे पास जो पदार्थ हैं, वे हमारे हैं ही नहींऐसा समझकर उन्हें दूसरोंकी सेवामें लगाया जाय, यह उदारता हमारास्वरूप’ है; क्योंकि इसमें पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और स्वरूप ज्यों-का-त्यों रह जाता है ।

इसलिये उदारतामें तो धन खर्च करनेकी आवश्यकता है और परिश्रम करनेकी आवश्यकता है । आवश्यकता केवल इसी बातकी है कि हम सुखीको देखकर प्रसन्‍न हो जायँ और दुःखीको देखकर करुणित, दयालु हो जायँ । हृदयमें यह करुणा पैदा हो जाय कि यह सुखी कैसे हो ? सुखीको देखकर ऐसा भाव हो जाय कि सभी सुखी हो जायँ और दुःखीको देखकर ऐसा भाव हो जाय कि कोई दुःखी रहे ।

भगवान्‌ने भोग और संग्रहको साधनमें बाधक बताया है (गीतादूसरे अध्यायका चौवालीसवाँ श्‍लोक) सुखीको देखकर प्रसन्‍न होनेसे भोग भोगनेकी इच्छा मिट जाती है; क्योंकि भोग भोगनेमें जो सुख मिलता है, वह सुख हमें दूसरोंको सुखी देखकर विशेषतासे मिल जायगा तो हमें भोग भोगनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी । दुःखीको देखकर दुःखी होनेसे संग्रह करनेकी इच्छा मिट जाती है; क्योंकि अपना दुःख मिटानेके लिये जिन वस्तुओंका हम संग्रह करते हैं और व्यय करते हैं, वे स्वतः दूसरोंका दुःख दूर करनेमें लग जायँगी । जैसे अपनेपर कोई दुःख आनेसे हम उसे दूर करनेकी चेष्‍टा करते हैं, ऐसे ही दूसरोंको दुःखी देखकर अपनी शक्तिके अनुसार उनका दुःख दूर करनेकी चेष्‍टा होने लगेगी ।

प्रसन्‍नता और करुणामें एक विलक्षण रस है । वह रस क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध-विच्छेद करके जीवको परमात्मस्वरूप नित्य रसके साथ अभिन्‍न करा देता है ।

योगयुक्तःजितेन्द्रिय, विशुद्धात्मा, विजितात्मा और सर्वभूतात्मभूतात्माइन चार पूर्वोक्त लक्षणोंसे युक्त जो कर्मयोगी है, उसे ही यहाँ योगयुक्तः कहा गया है ।

साधनमें स्वाभाविक प्रवृत्ति होनेमें कारण हैउद्‌देश्य और रुचिमें भिन्‍नता । जबतक अन्तःकरणमें संसारका महत्त्व है, तबतक उद्‌देश्य और रुचिका संघर्ष प्रायः मिटता नहीं । उद्‌देश्य अविनाशी परमात्माका होता है और रुचि प्रायः नाशवान् संसारके प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिकी होती है । उद्‌देश्य और रुचि अभिन्‍न हो जानेपर साधन स्वतः तेजीसे होने लगता है । यहाँ योगयुक्तः पद ऐसे कर्मयोगीके लिये आया है, जिसका उद्‌देश्य और रुचि अभिन्‍न हो गयी है अर्थात् उद्‌देश्य और रुचिदोनों एक परमात्मामें ही हो गये हैं ।

उत्पन्‍न और नष्‍ट होनेवाला फल किंचिन्मात्र भी चाहें, तभी कर्मयोग होता है । फल और उद्‌देश्य दोनों भिन्‍न-भिन्‍न होते हैं । कर्मयोगीमें फलकी इच्छा तो नहीं होती, पर उद्‌देश्य अवश्य होता है । कर्मयोगीका उद्‌देश्य वही होता है, जो सबको मिल सकता है और सदा साथ रहता है । जो किसीको मिलता है, किसीको नहीं मिलता और कभी रहता है, कभी नहीं रहता, वह उसका उद्‌देश्य नहीं होता है । इस दृष्‍टिसे उद्‌देश्य सदा परमात्मतत्त्वका ही होता है । परमात्मतत्त्व किसी कर्म, अभ्यास आदिका फल नहीं है । फल उत्पन्‍न और नष्‍ट होनेवाला होता है, पर परमात्मा नित्य रहते हैं । उत्पन्‍न और नष्‍ट होनेवाली वस्तुको कर्मयोगी चाहता ही नहीं; क्योंकि उसकी चाहना ही परमात्मप्राप्‍तिमें बाधक है । एकमात्र परमात्माका ही उद्‌देश्य होनेसे कर्मयोगीको योगयुक्तकहा गया है ।

यहाँ जिसे योगयुक्तः कहा गया है, उसे ही छठे अध्यायके चौथे श्‍लोकमें योगारूढः कहा गया है ।

कुर्वन्‍नपि लिप्यतेकर्मयोगी कर्म करते हुए भी कर्मोंसे नहीं बँधता । कर्मोंके बन्धनमें हेतु हैंकर्मोंके प्रति ममता, कर्मोंके फलकी इच्छा, कर्मजन्य सुखकी इच्छा तथा उसका भोग और कर्तृत्वाभिमान सारांशमें कर्मोंसे कुछ--कुछ पानेकी इच्छा ही बन्धनमें कारण है । किंचिन्मात्र भी पानेकी इच्छा होनेके कारण कर्मयोगी कर्म करते हुए भी उनसे बँधता नहीं अर्थात् उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं ।

४.दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्‍लोकमें कर्मयोगके स्वरूपका विवेचन करते हुए भगवान्‌ने मा कर्मफलहेतुर्भूः’ पदोंसे कर्मोंके प्रति ममता, कर्मजन्य सुखकी इच्छा तथा उसका भोग और कर्तृत्वाभिमान मिटानेके लिये कहा है तथा मा फलेषु कदाचन’ पदोंसे कर्मोंके फलकी इच्छा मिटानेके लिये कहा है ।

सांख्ययोगी तो गुणा गुणेषु वर्तन्ते (गीता ३ । २८) गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैंऐसा मानकर कर्मोंसे नहीं बँधता, पर कर्मयोगी परहितके लिये कर्म करते हुए भी कर्मोंसे नहीं बँधता । केवल दूसरोंके लिये कर्म किये जानेसे उसके कर्म भी गुणा गुणेषु वर्तन्ते की तरह ही हो जाते हैं ।

यहाँ अपि पदमें एक भाव यह भी है कि कर्मयोगी कर्म करते समय तो निर्लिप्‍त है ही, कर्म करते समय भी वह निर्लिप्‍त है (गीताचौथे अध्यायका अठारहवाँ श्‍लोक) उसका कर्म करने अथवा करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता (गीतातीसरे अध्यायका अठारहवाँ श्‍लोक) वह सदा ही निर्लिप्‍त रहता है ।

तात्पर्य है कि सांख्ययोगी जडताका त्याग करके चिन्मयताके साथ अपनी एकता मानता है और कर्मयोगी अपने कहलानेवाले शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदिकी संसारके साथ एकता मानता है अर्थात् पदार्थ, शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदिको और उनकी क्रियाओंको अपनी नहीं मानता; किन्तु उनको संसारकी और संसारके लिये ही मानता है । कर्मयोगी जब पदार्थ, मन, बुद्धि आदिको और उनकी क्रियाओंको केवल संसारकी ही मानता है, तो फिर उनके द्वारा किसीका हित हो गया, किसीको सुख पहुँचा, किसीका उपकार हो गया तो वह मैंने किया, मेरे द्वारा ऐसा हुआ’‒ऐसा कैसे मान सकता है ? नहीं मान सकता । इसलिये वह कर्म करता हुआ भी कर्ता नहीं होता अर्थात् कर्मोंसे लिप्‍त नहीं होता ।

परिशिष्‍ट भावशरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेके कारण जब कर्मयोगीको सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ अपनी एकताका अनुभव हो जाता है, तब कर्म करते हुए भी उसमें कर्तापन नहीं रहता । कर्तापन रहनेसे उसके द्वारा होनेवाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते (गीताअठारहवें अध्यायका सत्रहवाँ श्‍लोक)

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर कर्मयोगीको प्राणिमात्रके साथ अपनी एकताका अनुभव हो जाता है । एकदेशीयता मिटनेपर जब कर्मयोगीमें कर्तापन नहीं रहता, तब उसके द्वारा होनेवाले सब कर्म अकर्म हो जाते हैं ।

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