Listen सम्बन्ध‒इसी
अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने संन्यास (सांख्ययोग)-की अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ बताया । अब उसी बातको दूसरे प्रकारसे कहते हैं । सूक्ष्म विषय‒सांख्ययोगकी अपेक्षा
कर्मयोगको शीघ्र सिद्धि देनेवाला बताना । सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः
। योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति
॥ ६ ॥ अर्थ‒परन्तु हे महाबाहो ! कर्मयोगके बिना सांख्ययोग सिद्ध होना कठिन है । मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है ।
१.यद्यपि यहाँ ‘संन्यास’ पद ‘आप्तुम्’ क्रियाका कर्म होनेसे उसमें द्वितीया होनी चाहिये, तथापि ‘तु’ पदको निपात संज्ञा मानकर उससे कर्म उक्त होनेसे ‘संन्यास’ पदमें प्रथमा हुई है । व्याख्या‒‘सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः’‒सांख्ययोगकी सफलताके लिये कर्मयोगका साधन करना आवश्यक है; क्योंकि उसके बिना सांख्ययोगकी सिद्धि कठिनतासे होती है । परन्तु कर्मयोगकी सिद्धिके लिये सांख्ययोगका साधन करनेकी आवश्यकता नहीं है । यही भाव यहाँ ‘तु’ पदसे प्रकट किया गया है । सांख्ययोगीका
लक्ष्य परमात्मतत्त्वका अनुभव करना होता है । परन्तु राग रहते हुए इस साधनके द्वारा परमात्मतत्त्वके अनुभवकी तो बात ही क्या है, इस साधनका समझमें आना भी कठिन है ! राग मिटानेका सुगम उपाय है‒कर्मयोगका अनुष्ठान करना । कर्मयोगमें प्रत्येक क्रिया दूसरोंके हितके लिये ही की जाती है
। दूसरोंके हितका भाव होनेसे अपना राग स्वतः मिटता है । इसलिये कर्मयोगके आचरणद्वारा राग मिटाकर सांख्ययोगका साधन करना सुगम पड़ता है । कर्मयोगका साधन किये बिना सांख्ययोगका सिद्ध होना कठिन है । ‘योगयुक्तो
मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति’‒अपने निष्कामभावका और दूसरोंके हितका मनन करनेवाले कर्मयोगीको यहाँ ‘मुनिः’ कहा गया है । कर्मयोगी
छोटी
या बड़ी
प्रत्येक
क्रियाको
करते
समय यह देखता
रहता
है कि मेरा
भाव निष्काम
है या सकाम ? सकामभाव
आते ही वह उसे मिटा
देता
है; क्योंकि
सकामभाव
आते ही वह क्रिया
अपनी
और अपने
लिये
हो जाती
है । दूसरोंका हित कैसे हो ? इस प्रकार मनन करनेसे रागका त्याग सुगमतासे होता है । उपर्युक्त पदोंसे भगवान् कर्मयोगकी विशेषता बता रहे हैं कि कर्मयोगी शीघ्र ही परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें विलम्बका कारण है‒संसारका राग
। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करते रहनेसे कर्मयोगीके रागका सर्वथा अभाव हो जाता है और रागका सर्वथा अभाव होनेपर स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वकी अनुभूति हो जाती है । इसी आशयको भगवान्ने चौथे अध्यायके अड़तीसवें श्लोकमें ‘तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति’ पदोंसे बताया है कि योगसंसिद्ध होते ही अपने-आप तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति अवश्यमेव हो जाती है । इस साधनमें अन्य साधनकी अपेक्षा नहीं है । इसकी सिद्धिमें कठिनाई और विलम्ब भी नहीं है । दूसरा कारण यह है कि देहधारी‒देहाभिमानी मनुष्य सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग नहीं कर सकता, पर जो कर्मफलका त्यागी है, वह त्यागी कहलाता है (अठारहवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक) । इससे यह ध्वनि निकलती है कि देहधारी
कर्मोंका
त्याग
तो नहीं
कर सकता, पर कर्मफलका‒फलेच्छाका त्याग तो कर ही सकता है
। इसलिये
कर्मयोगमें सुगमता है
। कर्मयोगकी महिमामें भगवान् कहते हैं कि कर्मयोगीको तत्काल ही शान्ति प्राप्त हो जाती है‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२ । १२) । वह संसारबन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है‒‘सुखं
बन्धात्प्रमुच्यते’ (गीता ५ । ३) । अतः कर्मयोगका साधन सुगम, शीघ्र सिद्धिदायक और किसी अन्य साधनके बिना परमात्मप्राप्ति करानेवाला स्वतन्त्र साधन है
।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒कर्मयोगमें साधक सभी कर्म निष्कामभावसे
केवल दूसरोंके हितके लिये ही करता है, इसलिये उसका राग सुगमतापूर्वक मिट जाता है । कर्मयोगके द्वारा अपना राग मिटाकर
सांख्ययोगका साधन करनेसे शीघ्र सिद्धि होती है । भगवान्ने भी इसी कारण कर्मयोगीके
‘सर्वभूतहिते रताः’ भावको ज्ञानयोगके अन्तर्गत लिया है अर्थात् इस भावको ज्ञानयोगीके
लिये. भी आवश्यक बताया है (गीता ५ । २५, १२ । ४) । यदि ज्ञानयोगीमें यह भाव नहीं होगा तो उसमें ज्ञानका अभिमान अधिक होगा
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