।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०८०, रविवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धइसी अध्यायके दूसरे श्‍लोकमें भगवान्‌ने संन्यास (सांख्ययोग)-की अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्‍ठ बताया । अब उसी बातको दूसरे प्रकारसे कहते हैं ।

सूक्ष्म विषयसांख्ययोगकी अपेक्षा कर्मयोगको शीघ्र सिद्धि देनेवाला बताना ।

सन्‍न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्‍तुमयोगतः ।

      योगयुक्तो   मुनिर्ब्रह्म  नचिरेणाधिगच्छति ॥ ६ ॥

अर्थपरन्तु हे महाबाहो ! कर्मयोगके बिना सांख्ययोग सिद्ध होना कठिन है । मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्‍त हो जाता है ।

तु = परन्तु

मुनिः = मननशील

महाबाहो = हे महाबाहो !

योगयुक्तः = कर्मयोगी

अयोगतः = कर्मयोगके बिना

नचिरेण = शीघ्र ही

सन्‍न्यासः = सांख्ययोग

ब्रह्म = ब्रह्मको

आप्‍तुम् = सिद्ध होना

अधिगच्छति = प्राप्‍त हो जाता है ।

दुःखम् = कठिन है ।

 

१.यद्यपि यहाँ संन्यास’ पद ‘आप्‍तुम्’ क्रियाका कर्म होनेसे उसमें द्वितीया होनी चाहिये, तथापि तु’ पदको निपात संज्ञा मानकर उससे कर्म उक्त होनेसे संन्यास’ पदमें प्रथमा हुई है ।

व्याख्यासन्‍न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्‍तुमयोगतःसांख्ययोगकी सफलताके लिये कर्मयोगका साधन करना आवश्यक है; क्योंकि उसके बिना सांख्ययोगकी सिद्धि कठिनतासे होती है । परन्तु कर्मयोगकी सिद्धिके लिये सांख्ययोगका साधन करनेकी आवश्यकता नहीं है । यही भाव यहाँ तु पदसे प्रकट किया गया है ।

सांख्ययोगीका लक्ष्य परमात्मतत्त्वका अनुभव करना होता है । परन्तु राग रहते हुए इस साधनके द्वारा परमात्मतत्त्वके अनुभवकी तो बात ही क्या है, इस साधनका समझमें आना भी कठिन है !

राग मिटानेका सुगम उपाय हैकर्मयोगका अनुष्‍ठान करना । कर्मयोगमें प्रत्येक क्रिया दूसरोंके हितके लिये ही की जाती है । दूसरोंके हितका भाव होनेसे अपना राग स्वतः मिटता है । इसलिये कर्मयोगके आचरणद्वारा राग मिटाकर सांख्ययोगका साधन करना सुगम पड़ता है । कर्मयोगका साधन किये बिना सांख्ययोगका सिद्ध होना कठिन है ।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छतिअपने निष्कामभावका और दूसरोंके हितका मनन करनेवाले कर्मयोगीको यहाँ मुनिः कहा गया है ।

कर्मयोगी छोटी या बड़ी प्रत्येक क्रियाको करते समय यह देखता रहता है कि मेरा भाव निष्काम है या सकाम ? सकामभाव आते ही वह उसे मिटा देता है; क्योंकि सकामभाव आते ही वह क्रिया अपनी और अपने लिये हो जाती है ।

दूसरोंका हित कैसे हो ? इस प्रकार मनन करनेसे रागका त्याग सुगमतासे होता है ।

उपर्युक्त पदोंसे भगवान् कर्मयोगकी विशेषता बता रहे हैं कि कर्मयोगी शीघ्र ही परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त कर लेता है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍तिमें विलम्बका कारण हैसंसारका राग । निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करते रहनेसे कर्मयोगीके रागका सर्वथा अभाव हो जाता है और रागका सर्वथा अभाव होनेपर स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वकी अनुभूति हो जाती है । इसी आशयको भगवान्‌ने चौथे अध्यायके अड़तीसवें श्‍लोकमें तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति पदोंसे बताया है कि योगसंसिद्ध होते ही अपने-आप तत्त्वज्ञानकी प्राप्‍ति अवश्यमेव हो जाती है । इस साधनमें अन्य साधनकी अपेक्षा नहीं है । इसकी सिद्धिमें कठिनाई और विलम्ब भी नहीं है ।

दूसरा कारण यह है कि देहधारीदेहाभिमानी मनुष्य सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग नहीं कर सकता, पर जो कर्मफलका त्यागी है, वह त्यागी कहलाता है (अठारहवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्‍लोक) इससे यह ध्वनि निकलती है कि देहधारी कर्मोंका त्याग तो नहीं कर सकता, पर कर्मफलकाफलेच्छाका त्याग तो कर ही सकता है । इसलिये कर्मयोगमें सुगमता है ।

कर्मयोगकी महिमामें भगवान् कहते हैं कि कर्मयोगीको तत्काल ही शान्ति प्राप्‍त हो जाती है‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीता १२ । १२) वह संसारबन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है‘सुखं बन्धात्प्रमुच्यते (गीता ५ । ) अतः कर्मयोगका साधन सुगम, शीघ्र सिद्धिदायक और किसी अन्य साधनके बिना परमात्मप्राप्‍ति करानेवाला स्वतन्त्र साधन है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒कर्मयोगमें साधक सभी कर्म निष्कामभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये ही करता है, इसलिये उसका राग सुगमतापूर्वक मिट जाता है । कर्मयोगके द्वारा अपना राग मिटाकर सांख्ययोगका साधन करनेसे शीघ्र सिद्धि होती है । भगवान्‌ने भी इसी कारण कर्मयोगीके ‘सर्वभूतहिते रताः’ भावको ज्ञानयोगके अन्तर्गत लिया है अर्थात् इस भावको ज्ञानयोगीके लिये. भी आवश्यक बताया है (गीता ५ । २५, १२ । ४) । यदि ज्ञानयोगीमें यह भाव नहीं होगा तो उसमें ज्ञानका अभिमान अधिक होगा ।

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