।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०८०, शनिवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषयसांख्ययोग और कर्मयोगके फलमें एकता देखनेवालोंको बुद्धिमान्‌ कहना ।

यत्साङ्ख्यैः  प्राप्यते  स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

       एकं साङ्ख्यं योगं यः पश्यति पश्यति ॥ ५ ॥

अर्थसांख्ययोगियोंके द्वारा जो तत्त्व प्राप्‍त किया जाता है, कर्मयोगियोंके द्वारा भी वही प्राप्‍त किया जाता है । अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोगको (फलरूपमें) एक देखता है, वही ठीक देखता है ।

साङ्ख्यैः = सांख्ययोगियोंके द्वारा

यः = जो मनुष्य

यत् = जो

साङ्ख्यम् = सांख्ययोग

स्थानम् = तत्त्व

= और

प्राप्यते = प्राप्‍त किया जाता है,

योगम् = कर्मयोगको (फलरूपमें)

योगैः = कर्मयोगियोंके द्वारा

एकम् = एक

अपि = भी

पश्यति = देखता है,

तत् = वही

सः, = वही (ठीक)

गम्यते = प्राप्‍त किया जाता है । (अतः)

पश्यति = देखता है ।

व्याख्यायत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यतेपूर्वश्‍लोकके उत्तरार्धमें भगवान्‌ने कहा था कि एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित होकर मनुष्य दोनों साधनोंके फलरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त कर लेता है । उसी बातकी पुष्‍टि भगवान् उपर्युक्त पदोंमें दूसरे ढंगसे कर रहे हैं कि जो तत्त्व सांख्ययोगी प्राप्‍त करते हैं, वही तत्त्व कर्मयोगी भी प्राप्‍त करते हैं ।

संसारमें जो यह मान्यता है कि कर्मयोगसे कल्याण नहीं होता, कल्याण तो ज्ञानयोगसे ही होता हैइस मान्यताको दूर करनेके लिये यहाँ अपि अव्ययका प्रयोग किया गया है ।

सांख्ययोगी और कर्मयोगीदोनोंका ही अन्तमें कर्मोंसे अर्थात् क्रियाशील प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है । प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर दोनों ही योग एक हो जाते हैं । साधनकालमें भी सांख्ययोगका विवेक (जड़-चेतनका सम्बन्ध-विच्छेद) कर्मयोगीको अपनाना पड़ता है और कर्मयोगकी प्रणाली (अपने लिये कर्म करनेकी पद्धति) सांख्ययोगीको अपनानी पड़ती है । सांख्ययोगका विवेक प्रकृति-पुरुषका सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये होता है और कर्मयोगका कर्म संसारकी सेवाके लिये होता है । सिद्ध होनेपर सांख्ययोगी और कर्मयोगीदोनोंकी एक स्थिति होती है; क्योंकि दोनों ही साधकोंकी अपनी निष्‍ठाएँ हैं (गीतातीसरे अध्यायका तीसरा श्‍लोक)

संसार विषम है । घनिष्‍ठ-से-घनिष्‍ठ सांसारिक सम्बन्धमें भी विषमता रहती है । परन्तु परमात्मा सम हैं । अतः समरूप परमात्माकी प्राप्‍ति संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही होती है । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये दो योगमार्ग हैंज्ञानयोग और कर्मयोग । मेरे सत्-स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता, जबकि कामना-आसक्ति अभावमें ही पैदा होती हैऐसा समझकर असंग हो जाययह ज्ञानयोग है । जिन वस्तुओंमें साधकका राग है, उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें खर्च कर दे और जिन व्यक्तियोंमें राग है, उनकी निःस्वार्थभावसे सेवा कर देयह कर्मयोग है । इस प्रकार ज्ञानयोगमें विवेक-विचारके द्वारा और कर्मयोगमें सेवाके द्वारा संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है ।

एकं साङ्ख्यं योगं यः पश्यति पश्यतिपूर्वश्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने व्यतिरेक रीतिसे कहा था कि सांख्ययोग और कर्मयोगको बेसमझ लोग ही अलग-अलग फल देनेवाले कहते हैं । उसी बातको अब अन्वय रीतिसे कहते हैं कि जो मनुष्य इन दोनों साधनोंको फलदृष्‍टिसे एक देखता है, वही यथार्थरूपमें देखता है ।

इस प्रकार चौथे और पाँचवें श्‍लोकका सार यह है कि भगवान् सांख्ययोग और कर्मयोगदोनोंको स्वतन्त्र साधन मानते हैं और दोनोंका फल एक ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति मानते हैं । इस वास्तविकताको जाननेवाले मनुष्यको भगवान् बेसमझ कहते हैं और इसे जाननेवालेको भगवान् यथार्थ जाननेवाला (बुद्धिमान्) कहते हैं ।

विशेष बात

किसी भी साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा, मरनेका भय, पानेका लालच और करनेका रागये चारों सर्वथा मिट जाते हैं ।

जो निरन्तर मर रहा है अर्थात् जिसका निरन्तर अभाव हो रहा है; उस शरीरमें मरनेका भय नहीं हो सकता; और जो नित्य-निरन्तर रहता है, उस स्वरूपमें जीनेकी इच्छा नहीं हो सकती तो फिर जीनेकी इच्छा और मरनेका भय किसे होता है ? जब स्वरूप शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब उसमें जीनेकी इच्छा और मरनेका भय उत्पन्‍न हो जाता है । जीनेकी इच्छा और मरनेका भयये दोनों ज्ञानयोगसे (विवेकद्वारा) मिट जाते हैं ।

पानेकी इच्छा उसमें होती है, जिसमें कोई अभाव होता है । अपना स्वरूप भावरूप है, उसमें कभी अभाव नहीं हो सकता, इसलिये स्वरूपमें कभी पानेकी इच्छा नहीं होती । पानेकी इच्छा होनेसे उसमें कभी करनेका राग उत्पन्‍न नहीं होता । स्वयं भावरूप होते हुए भी जब स्वरूप अभावरूप शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब उसे अपनेमें अभाव प्रतीत होने लग जाता है, जिससे उसमें पानेकी इच्छा उत्पन्‍न हो जाती है और पानेकी इच्छासे करनेका राग उत्पन्‍न हो जाता है । पानेकी इच्छा और करनेका रागये दोनों कर्मयोगसे मिट जाते हैं ।

ज्ञानयोग और कर्मयोगइन दोनों साधनोंमेंसे किसी एक साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा, मरनेका भय, पानेका लालच और करनेका रागये चारों सर्वथा मिट जाते हैं ।

परिशिष्‍ट भावसांख्ययोग और कर्मयोगदोनों साधन लौकिक होनेसे एक ही हैं । सांख्ययोगमें साधक चिन्मयतामें स्थित होता है और चिन्मयतामें स्थित होनेपर जड़ताका त्याग हो जाता है । कर्मयोगमें साधक जड़ताका त्याग करता है और जड़ताका त्याग होनेपर चिन्मयतामें स्थिति हो जाती है । इस प्रकार सांख्ययोग और कर्मयोगदोनों ही साधनोंके परिणाममें चिन्मयताकी प्राप्‍ति अर्थात् चिन्मय स्वरूपमें स्थितिका अनुभव हो जाता है ।

शरीरको संसारकी सेवामें लगा देना कर्मयोग है और शरीरसे स्वयं अलग हो जाना ज्ञानयोग है । चाहे शरीरको संसारकी सेवामें लगा दें, चाहे शरीरसे स्वयं अलग हो जायँदोनोंका परिणाम एक ही होगा अर्थात् दोनों ही साधनोंसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर स्वरूपमें स्थिति हो जायगी ।

यहाँ चौथे-पाँचवें श्‍लोकोंमें चौथे श्‍लोकके पूर्वार्धका सम्बन्ध पाँचवें श्‍लोकके उत्तरार्धके साथ है और पाँचवें श्‍लोकके पूर्वार्धका सम्बन्ध चौथे श्‍लोकके उत्तरार्धके साथ है ।

कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगइन तीन साधनोंमें ज्ञानयोग और भक्तियोगका प्रचार तो अधिक है, पर कर्मयोगका प्रचार बहुत कम है । भगवान्‌ने भी गीतामें कहा है कि बहुत समय बीत जानेके कारण यह कर्मयोग इस मनुष्यलोकमें लुप्‍तप्राय हो गया है (चौथे अध्यायका दूसरा श्‍लोक) इसलिये कर्मयोगके सम्बन्धमें यह धारणा बनी हुई है कि यह परमात्मप्राप्‍तिका स्वतन्त्र साधन नहीं है । अतः कर्मयोगका साधक या तो ज्ञानयोगमें चला जाता है अथवा भक्तियोगमें चला जाता है; जैसे

तावत् कर्माणि कुर्वीत निर्विद्येत यावता ।

मत्कथाश्रवणादौ वा  श्रद्धा यावन्‍न जायते ॥

(श्रीमद्भा ११ । २० । )

तभीतक कर्म करना चाहिये, जबतक भोगोंसे वैराग्य हो जाय, (ज्ञानयोगका अधिकारी बन जाय) अथवा मेरी लीला-कथाके श्रवणादिमें श्रद्धा हो जाय (भक्तियोगका अधिकारी बन जाय)

परन्तु यहाँ भगवान् ज्ञानयोगकी तरह कर्मयोगको भी परमात्मप्राप्‍तिका स्वतन्त्र साधन बता रहे हैं । उपर्युक्त चौथे-पाँचवें श्‍लोकोंके सिवाय गीतामें अनेक जगह कर्मयोगके द्वारा स्वतन्त्रतापूर्वक तत्त्वज्ञान, परमशान्ति, मुक्ति अथवा परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति होनेकी बात आयी है; जैसे‘तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति (४ । ३८), योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति (५ । ), यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते (४ । २३), ज्ञानाग्‍निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः (४ । १९), युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्‍नोति नैष्‍ठिकीम् (५ । १२)

श्रीमद्भागवतमें भी कर्मयोगको परमात्मप्राप्‍तिका स्वतन्त्र साधन बताया गया है

स्वधर्मस्थो यजन् यज्ञैरनाशीः काम उद्धव ।

 याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन्‍न समाचरेत् ॥

(११ । २० । १०)

जो स्वधर्ममें स्थित रहकर तथा भोगोंकी कामनाका त्याग करके अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा भगवान्‌का पूजन करता है तथा सकामभावपूर्वक कोई कर्म नहीं करता, उसको स्वर्ग या नरकमें नहीं जाना पड़ता अर्थात् वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

अस्मिँल्लोके वर्तमानः स्वधर्मस्थोऽनघः शुचिः ।

ज्ञानं  विशुद्धमाप्‍नोति मद्भक्तिं  वा यदृच्छया ॥

(११ । २०। ११)

स्वधर्ममें स्थित वह कर्मयोगी इस लोकमें सब कर्तव्य-कर्मोंका आचरण करते हुए भी पाप-पुण्यसे मुक्त होकर बिना परिश्रमके तत्त्वज्ञानको अथवा परमप्रेम (पराभक्ति)-को प्राप्‍त कर लेता है ।

तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोग साधकको ज्ञानयोग अथवा भक्तियोगका अधिकारी भी बना देता है और स्वतन्त्रतासे कल्याण भी कर देता है । दूसरे शब्दोंमें, कर्मयोगसे साधन-ज्ञान अथवा साधन-भक्तिकी प्राप्‍ति भी हो सकती है और साध्य-ज्ञान (तत्त्वज्ञान) अथवा साध्य-भक्ति (परमप्रेम या पराभक्ति)-की प्राप्‍ति भी हो सकती है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒फल एक होनेसे ज्ञानयोग और कर्मयोग‒दोनों साधन समकक्ष हैं ।

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