।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धइस अध्यायके दूसरे श्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने ज्ञानयोग और कर्मयोगदोनोंको परम कल्याण करनेवाले बताया । उसकी व्याख्या अब आगेके दो श्‍लोकोंमें करते हैं ।

सूक्ष्म विषयसांख्ययोग और कर्मयोगको भिन्‍न-भिन्‍न फलवाले बतानेवालोंको अज्ञ कहना ।

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति पण्डिताः ।

      एकमप्यास्थितः    सम्यगुभयोर्विन्दते    फलम् ॥ ४ ॥

अर्थबेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग (फलवाले) कहते हैं, कि पण्डितजन; क्योंकि इन दोनोंमेंसे एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित मनुष्य दोनोंके फलरूप (परमात्माको) प्राप्‍त कर लेता है ।

बालाः = बेसमझ लोग

अपि = भी

साङ्ख्ययोगौ = सांख्ययोग और कर्मयोगको

सम्यक् = अच्छी तरहसे

पृथक् = अलग-अलग (फलवाले)

आस्थितः = स्थित (मनुष्य)

प्रवदन्ति = कहते हैं,

उभयोः = दोनोंके

= कि

फलम् = फलरूप (परमात्माको)

पण्डिताः = पण्डितजन; (क्योंकि)

विन्दते = प्राप्‍त कर लेता है ।

एकम् = (इन दोनोंमेंसे) एक साधनमें

 

व्याख्यासाङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति पण्डिताःइसी अध्यायके पहले श्‍लोकमें अर्जुनने कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके तत्त्वदर्शी महापुरुषके पास जाकर ज्ञान प्राप्‍त करनेके साधनको कर्मसंन्यास नामसे कहा है । भगवान्‌ने भी दूसरे श्‍लोकमें अपने सिद्धान्तकी मुख्यता रखते हुए उसे संन्यास और कर्मसंन्यास नामसे कहा है । अब उस साधनको भगवान् यहाँ सांख्य नामसे कहते हैं । भगवान् शरीर-शरीरीके भेदका विचार करके स्वरूपमें स्थित होनेको सांख्य कहते हैं । भगवान्‌के मतमें संन्यास और सांख्य पर्यायवाची हैं, जिसमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी आवश्यकता नहीं है ।

अर्जुन जिसे कर्मसंन्यास नामसे कह रहे हैं, वह भी निःसन्देह भगवान्‌के द्वारा कहे सांख्य का ही एक अवान्तर भेद है । कारण कि गुरुसे सुनकर भी साधक शरीर-शरीरीके भेदका ही विचार करता है ।

बालाः पदसे भगवान् यह कहते हैं कि आयु और बुद्धिमें बड़े होकर भी जो सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फलवाले मानते हैं, वे बालक अर्थात् बेसमझ ही हैं ।

जिन महापुरुषोंने सांख्ययोग और कर्मयोगके तत्त्वको ठीक-ठीक समझा है, वे ही पण्डित अर्थात् बुद्धिमान् हैं । वे लोग दोनोंको अलग-अलग फलवाले नहीं कहते; क्योंकि वे दोनों साधनोंकी प्रणालियोंको देखकर उन दोनोंके वास्तविक परिणामको देखते हैं ।

साधन-प्रणालीको देखते हुए स्वयं भगवान्‌ने तीसरे अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें सांख्ययोग और कर्मयोगको दो प्रकारका साधन स्वीकार किया है । दोनोंकी साधन-प्रणाली तो अलग-अलग है, पर साध्य अलग-अलग नहीं है ।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्गीतामें जगह-जगह सांख्ययोग और कर्मयोगका परमात्मप्राप्‍तिरूप फल एक ही बताया गया है । तेरहवें अध्यायके चौबीसवें श्‍लोकमें दोनों साधनोंसे अपने-आपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव होना बताया गया है । तीसरे अध्यायके उन्‍नीसवें श्‍लोकमें कर्मयोगीके लिये परमात्माकी प्राप्‍ति बतायी गयी है और बारहवें अध्यायके चौथे श्‍लोकमें तथा तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्‍लोकमें ज्ञानयोगीके लिये परमात्माकी प्राप्‍ति बतायी गयी है । इस प्रकार भगवान्‌के मतमें दोनों साधन एक ही फलवाले हैं ।

परिशिष्‍ट भावजो अन्य शास्‍त्रीय बातोंको तो जानता है, पर सांख्ययोग और कर्मयोगके तत्त्वको गहराईसे नहीं जानता, वह वास्तवमें बालक अर्थात् बेसमझ है ।

गीताभरमें अविनाशी तत्त्वके लिये फलशब्द इसी श्‍लोकमें आया है । फलशब्दका अर्थ हैपरिणाम । कर्मयोग और ज्ञानयोगदोनों साधनोंसे प्राप्‍त होनेवाले तत्त्वको फलकहनेका तात्पर्य है कि इन दोनों साधनोंमें मनुष्यका अपना उद्योग मुख्य है । ज्ञानयोगमें विवेकरूप उद्योग मुख्य है और कर्मयोगमें परहितकी क्रियारूप उद्योग मुख्य है । साधकका अपना उद्योग, परिश्रम सफल हो गया, इसलिये इसको फलकहा गया है । यह फल नष्‍ट होनेवाला नहीं है । कर्मयोग तथा ज्ञानयोगदोनोंका फल आत्मज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान है ।

कर्तव्य-कर्म करना कर्मयोग है और कुछ करना ज्ञानयोग है । कुछ करनेसे जिस तत्त्वकी प्राप्‍ति होती है, उसी तत्त्वकी प्राप्‍ति कर्तव्य-कर्म करनेसे हो जाती है । करनाऔर करनातो साधन हैं और इनसे जिस तत्त्वकी प्राप्‍ति होती है, वह साध्य है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒भगवान्‌के मतमें ज्ञानयोग और कर्मयोग‒दोनों ही लौकिक साधन हैं (गीता ३ । ३) और दोनोंका परिणाम भी एक ही है । दोनों ही साधनोंकी पूर्णता होनेपर साधक संसार-बन्धनसे मुक्त होकर आत्मसाक्षात्कार कर लेता है । अतः दोनों ही मोक्षप्राप्‍तिके स्वतन्त्र साधन हैं ।

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