।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते

१.गीतामें आये कर्मबन्धं प्रहास्यसि’ (२ । ३९);त्रायते महतो भयात्’ (२ । ४०);जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते’ (२ । ५० ); ‘मोक्ष्यसेऽशुभात्’ (४ । १६, ९ । १); ‘वृजिनं संतरिष्यसि’ (४ । ३६); नाप्‍नुवन्ति दुःखालयमशाश्‍वतम्’ (८ । १५); शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः’ (९ । २८); ‘मृत्युसंसारसागरात् समुद्धर्ता भवामि’ (१२ । ७) आदि पद यहाँ आये ‘बन्धात् प्रमुच्यते’ पदोंके ही पर्यायवाची हैं ।

साधनाके आरम्भमें साधकके अन्तःकरणमें द्वन्द्व रहता है । सत्संग, स्वाध्याय, विचार आदि करनेसे वह परमात्मप्राप्‍तिको अपना ध्येय तो मान लेता है, पर उसके अपने कहलानेवाले मन, इन्द्रियों आदिकी रुचि स्वाभाविक ही भोग भोगने तथा संग्रह करनेमें रहती है । इसलिये साधक कभी परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त करना चाहता है और कभी भोग एवं संग्रहको । उसे जैसा संग मिलता है, उसीके अनुसार उसके भावोंमें परिवर्तन होता रहता है । ऐसा होनेपर भी वह भोगोंको शान्तिसे नहीं भोग सकता; क्योंकि सत्संग आदिके संस्कार उसके अन्तःकरणमें वैराग्य (भोगोंसे अरुचि) पैदा करते रहते हैं । इस प्रकार साधकके अन्तःकरणमें द्वन्द्व (भोग भोगूँ या साधन करूँ) चलता रहता है । इस द्वन्द्वपर ही अहंभाव टिका हुआ है । हमें सांसारिक भोग और संग्रहमें लगना ही नहीं है, प्रत्युत एकमात्र परमात्मतत्त्वको ही प्राप्‍त करना हैऐसा दृढ़ निश्‍चय होनेपर द्वन्द्व नहीं रहता और अहंभाव परमात्मतत्त्वमें लीन हो जाता है ।

वास्तवमें संसारका महत्त्व अन्तःकरणमें अंकित हो जानेसे ही द्वन्द्व रहता है । भोग भोगते रहनेसे, दूसरोंसे सुख चाहते रहनेसे संसारके प्राणी-पदार्थोंका महत्त्व अन्तःकरणमें अंकित हो जाता है । उनसे सुख लेनेसे वह महत्त्व बढ़ता जाता है, जिससे उनको प्राप्‍त करनेकी रुचि प्रबल हो जाती है । वह रुचि एक परमात्मप्राप्‍तिके उद्‌देश्यको स्थायी और दृढ़ नहीं होने देती । इससे साधकमें द्वन्द्व बना रहता है । उद्‌देश्यकी दृढ़ताके लिये साधकको यह पक्‍का विचार करना चाहिये कि कितना ही सुख, आराम, भोग क्यों मिल जाय, मुझे उसे लेना ही नहीं है, प्रत्युत परहितके लिये उसका त्याग करना है । यह विचार जितना दृढ़ होगा, उतना ही साधक निर्द्वन्द्व होगा ।

निर्द्वन्द्व होनेकी मुख्य बात इसी श्‍लोकमें द्वेष्‍टि काङ्क्षति पदोंसे कही गयी है; जिसका तात्पर्य हैराग-द्वेषसे रहित होना । राग-द्वेषको मिटानेके लिये यह विचार करना चाहिये कि अपने चाहनेपर भी अनुकूलता और प्रतिकूलता आती ही है अर्थात् अपने चाहनेपर अनुकूलता आती होऐसी बात नहीं है और चाहनेपर प्रतिकूलता आती होऐसी बात भी नहीं है । अनुकूलता-प्रतिकूलता तो प्रारब्धके फलस्वरूप आती-जाती रहती है, फिर इसके आने अथवा जानेकी चाहना क्यों करें ? अनुकूलताके प्रति राग और प्रतिकूलताके प्रति द्वेष अपनी भूलसे होता है । इस प्रकार विचार करनेसे भूल मिटकर राग-द्वेष सर्वथा समाप्‍त हो जाते हैं ।

दूसरी बात यह है कि अपनी (स्वयंकी) सत्ता स्वतन्त्र है, किसी पदार्थ, व्यक्ति, क्रियाके अधीन नहीं है; क्योंकि सुषुप्‍ति-अवस्थामें जब हम संसारको भूल जाते हैं, तब भी अपनी सत्ता बनी रहती है; जाग्रत् और स्वप्‍न-अवस्थामें भी हम प्राणी, पदार्थके बिना रह सकते हैं । फिर (अपनी स्वतन्त्र सत्ता होते हुए भी) उनमें राग-द्वेष करके हम उनके अधीन क्यों बनें ? इस प्रकार विचार करनेसे भी राग-द्वेष मिट जाते हैं ।

संसारका राग उत्पन्‍न और नष्‍ट होनेवाला है । यह राग कभी स्थायी नहीं रहता; किन्तु हम नये-नये प्राणी, पदार्थोंमें राग करके इसे बनाये रखनेकी चेष्‍टा करते हैं । परन्तु परमात्माकी अभिलाषा उत्पन्‍न और नष्‍ट होनेवाली नहीं है; क्योंकि परमात्माका ही अंश होनेके नाते जीवका परमात्मासे अखण्ड सम्बन्ध है । परमात्माकी अभिलाषा कभी घटती-बढ़ती भी नहीं । केवल संसारमें राग अधिक होनेपर वह घटती हुई और राग कम होनेपर वह बढ़ती हुई दीखती है । इसलिये मैं सदा जीता रहूँ; मैं सब कुछ जान लूँ; मैं सदा सुखी रहूँ’‒इस रूपमें सत्-चित्-आनन्दस्वरूप परमात्माकी अभिलाषा जीवमात्रमें निरन्तर रहती है । जब संसारका राग मिट जाता है और एकमात्र परमात्माकी अभिलाषा रह जाती है, तब द्वन्द्व नहीं रहता ।

कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगतीनों ही योग-मार्गोंमें निर्द्वन्द्व होना बहुत आवश्यक है । जबतक द्वन्द्व है, तबतक मुक्ति नहीं होती (गीतासातवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्‍लोक) परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍तिमें राग और द्वेषये दो शत्रु हैं (गीतातीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्‍लोक) निर्द्वन्द्व होनेसे ये दोनों मिट जाते हैं और इनके मिटनेसे सुखपूर्वक परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति हो जाती है ।

संसारमें उलझनेके दो ही कारण हैंराग और द्वेष । जितने भी साधन हैं, सब राग-द्वेषको मिटानेके लिये ही हैं

२. एतावानेव   योगेन   समग्रेणेह   योगिनः ।

   युज्यतेऽभिमतो ह्यर्थो यदसंगस्तु कृत्स्‍नश:

(श्रीमद्भा ३ । ३२ । २७)

योगियोंके समस्त योग-साधनोंका एकमात्र अभीष्‍ट फल हैसम्पूर्ण संसारमें आसक्तिका अभाव हो जाना ।’

राग-द्वेषके मिटनेपर नित्यप्राप्‍त परमात्मतत्त्वकी अनुभूति स्वतःसिद्ध है । इसमें परिश्रम है ही नहीं । कारण कि परमात्मतत्त्वकी अनुभूति असत्‌के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत असत्‌के त्यागसे होती है । असत्‌की सत्ता राग-द्वेषपर ही टिकी हुई है । असत् संसार तो स्वतः ही मिट रहा है, पर अपनेमें राग-द्वेषको पकड़नेसे संसार स्थिर दीखता है । अतः जो संसार निरन्तर मिट रहा है, उसमें राग-द्वेष रहनेसे मुक्ति नहीं होगी तो क्या होगा ? इसलिये निर्द्वन्द्व अर्थात् राग-द्वेषसे रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

परिशिष्‍ट भावबाहरके सुख-दुःख (सुखदायी-दुःखदायी परिस्थिति)-में सम और भीतरके सुख-दुःखसे रहित होना निर्द्वन्द्वअर्थात् द्वन्द्वरहित होना है ।

तादात्म्यमें चेतन-अंशकी मुख्यतासे जिज्ञासारहती है और जड़-अंशकी मुख्यतासे कामनारहती है । मनुष्यमें भूख तो अविनाशी-तत्त्वकी रहती है, पर रुचि नाशवान्‌की रहती है; क्योंकि अविनाशीकी भूखको वह नाशवान्‌के द्वारा मिटाना चाहता है । भूख और रुचिका यह द्वन्द्व मनुष्यके संसार-बन्धनको दृढ़ करता है । जब मनुष्यका संसारमें राग-द्वेष नहीं रहता, तब उसकी जिज्ञासा पूर्ण हो जाती है और कामना मिट जाती है अर्थात् वह निर्द्वन्द्व हो जाता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याजिसने बाहरसे संन्यास-आश्रम ग्रहण कर लिया है, वह वास्तवमें संन्यासी नहीं है । संन्यासी वास्तवमें वह है, जिसने भीतरसे राग-द्वेषका त्याग कर दिया है । राग-द्वेषके रहते हुए मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता । परन्तु जिसने राग-द्वेषका त्याग कर दिया है, वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

जिसके भीतर राग-द्वेष नहीं है, वह कर्मयोगी शास्‍त्रविहित सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी सदा संन्यासी ही है । उसे अपने कल्याणके लिये बाहरसे संन्यास-आश्रम ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है ।

ज्ञानयोगमें अपने स्वरूपको जाननेकी मुख्यता रहनेसे ज्ञानयोगीमें उदासीनता रहती है । परन्तु कर्मयोगीमें दूसरेके हितकी मुख्यता रहती है । इसलिये अहंवृत्तिका त्याग कर्मयोगमें सुगम है, ज्ञानयोगमें नहीं ।

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