Listen ‘निर्द्वन्द्वो हि
महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’१‒ १.गीतामें आये
‘कर्मबन्धं प्रहास्यसि’ (२ । ३९); ‘त्रायते महतो भयात्’ (२ । ४०); ‘जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते’ (२ । ५० ); ‘मोक्ष्यसेऽशुभात्’ (४ । १६, ९ । १); ‘वृजिनं संतरिष्यसि’ (४ । ३६); नाप्नुवन्ति दुःखालयमशाश्वतम्’ (८ । १५); ‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे
कर्मबन्धनैः’ (९ । २८); ‘मृत्युसंसारसागरात् समुद्धर्ता
भवामि’ (१२ । ७) आदि पद यहाँ आये ‘बन्धात् प्रमुच्यते’ पदोंके ही पर्यायवाची हैं । साधनाके आरम्भमें साधकके अन्तःकरणमें द्वन्द्व रहता है । सत्संग, स्वाध्याय, विचार आदि करनेसे वह परमात्मप्राप्तिको अपना ध्येय तो मान लेता है, पर उसके अपने कहलानेवाले मन, इन्द्रियों आदिकी रुचि स्वाभाविक ही भोग भोगने तथा संग्रह करनेमें रहती है । इसलिये साधक कभी परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना चाहता है और कभी भोग एवं संग्रहको । उसे जैसा संग मिलता है, उसीके अनुसार उसके भावोंमें परिवर्तन होता रहता है । ऐसा होनेपर भी वह भोगोंको शान्तिसे नहीं भोग सकता; क्योंकि सत्संग आदिके संस्कार उसके अन्तःकरणमें वैराग्य (भोगोंसे अरुचि) पैदा करते रहते हैं । इस प्रकार साधकके अन्तःकरणमें द्वन्द्व (भोग भोगूँ या साधन करूँ) चलता रहता है । इस द्वन्द्वपर ही अहंभाव टिका हुआ है । हमें
सांसारिक
भोग और संग्रहमें लगना ही नहीं है, प्रत्युत एकमात्र परमात्मतत्त्वको ही प्राप्त करना है‒ऐसा दृढ़ निश्चय होनेपर द्वन्द्व नहीं रहता और अहंभाव परमात्मतत्त्वमें लीन हो जाता है
। वास्तवमें संसारका महत्त्व अन्तःकरणमें अंकित हो जानेसे ही द्वन्द्व रहता है । भोग भोगते रहनेसे, दूसरोंसे सुख चाहते रहनेसे संसारके प्राणी-पदार्थोंका महत्त्व अन्तःकरणमें अंकित हो जाता है । उनसे सुख लेनेसे वह महत्त्व बढ़ता जाता है, जिससे उनको प्राप्त करनेकी रुचि प्रबल हो जाती है । वह रुचि एक परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको स्थायी और दृढ़ नहीं होने देती । इससे साधकमें द्वन्द्व बना रहता है । उद्देश्यकी दृढ़ताके लिये साधकको यह पक्का विचार करना चाहिये कि कितना ही सुख, आराम, भोग क्यों न मिल जाय, मुझे उसे लेना ही नहीं है, प्रत्युत परहितके लिये उसका त्याग करना है । यह विचार जितना दृढ़ होगा, उतना ही साधक निर्द्वन्द्व होगा । निर्द्वन्द्व होनेकी मुख्य बात इसी श्लोकमें ‘न द्वेष्टि न काङ्क्षति’ पदोंसे कही गयी है; जिसका तात्पर्य है‒राग-द्वेषसे रहित होना । राग-द्वेषको मिटानेके लिये यह विचार करना चाहिये कि अपने न चाहनेपर भी अनुकूलता और प्रतिकूलता आती ही है अर्थात् अपने चाहनेपर अनुकूलता आती हो‒ऐसी बात नहीं है और न चाहनेपर प्रतिकूलता न आती हो‒ऐसी बात भी नहीं है । अनुकूलता-प्रतिकूलता तो प्रारब्धके फलस्वरूप आती-जाती रहती है, फिर इसके आने अथवा जानेकी चाहना क्यों करें ? अनुकूलताके प्रति राग और प्रतिकूलताके प्रति द्वेष अपनी भूलसे होता है । इस प्रकार विचार करनेसे भूल मिटकर राग-द्वेष सर्वथा समाप्त हो जाते हैं । दूसरी बात यह है कि अपनी (स्वयंकी) सत्ता स्वतन्त्र है, किसी पदार्थ, व्यक्ति, क्रियाके अधीन नहीं है; क्योंकि सुषुप्ति-अवस्थामें जब हम संसारको भूल जाते हैं, तब भी अपनी सत्ता बनी रहती है; जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थामें भी हम प्राणी, पदार्थके बिना रह सकते हैं । फिर (अपनी स्वतन्त्र सत्ता होते हुए भी) उनमें राग-द्वेष करके हम उनके अधीन क्यों बनें ? इस प्रकार विचार करनेसे भी राग-द्वेष मिट जाते हैं । संसारका राग उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है । यह राग कभी स्थायी नहीं रहता; किन्तु हम नये-नये प्राणी, पदार्थोंमें राग करके इसे बनाये रखनेकी चेष्टा करते हैं । परन्तु परमात्माकी अभिलाषा उत्पन्न और नष्ट होनेवाली नहीं है; क्योंकि परमात्माका ही अंश होनेके नाते जीवका परमात्मासे अखण्ड सम्बन्ध है । परमात्माकी अभिलाषा कभी घटती-बढ़ती भी नहीं । केवल संसारमें राग अधिक होनेपर वह घटती हुई और राग कम होनेपर वह बढ़ती हुई दीखती है । इसलिये ‘मैं सदा जीता रहूँ; मैं सब कुछ जान लूँ; मैं सदा सुखी रहूँ’‒इस रूपमें सत्-चित्-आनन्दस्वरूप परमात्माकी अभिलाषा जीवमात्रमें निरन्तर रहती है । जब संसारका राग मिट जाता है और एकमात्र परमात्माकी अभिलाषा रह जाती है, तब द्वन्द्व नहीं रहता । कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों ही योग-मार्गोंमें निर्द्वन्द्व होना बहुत आवश्यक है । जबतक द्वन्द्व है, तबतक मुक्ति नहीं होती (गीता‒सातवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक) । परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें राग और द्वेष‒ये दो शत्रु हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक) । निर्द्वन्द्व होनेसे ये दोनों मिट जाते हैं और इनके मिटनेसे सुखपूर्वक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है । संसारमें
उलझनेके
दो ही कारण
हैं‒राग और द्वेष ।
जितने
भी साधन
हैं, सब राग-द्वेषको
मिटानेके
लिये
ही हैं२ । २. एतावानेव योगेन समग्रेणेह योगिनः । युज्यतेऽभिमतो ह्यर्थो यदसंगस्तु कृत्स्नश: ॥ (श्रीमद्भा॰ ३ । ३२ । २७) ‘योगियोंके समस्त योग-साधनोंका एकमात्र अभीष्ट
फल है‒सम्पूर्ण संसारमें आसक्तिका अभाव हो
जाना ।’ राग-द्वेषके मिटनेपर नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वकी अनुभूति स्वतःसिद्ध है । इसमें परिश्रम है ही नहीं । कारण कि परमात्मतत्त्वकी अनुभूति असत्के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत असत्के त्यागसे होती है
। असत्की सत्ता राग-द्वेषपर ही टिकी हुई है । असत् संसार तो स्वतः ही मिट रहा है, पर अपनेमें राग-द्वेषको पकड़नेसे संसार स्थिर दीखता है । अतः जो संसार निरन्तर मिट रहा है, उसमें राग-द्वेष न रहनेसे मुक्ति नहीं होगी तो क्या होगा ? इसलिये निर्द्वन्द्व अर्थात् राग-द्वेषसे रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । परिशिष्ट भाव‒बाहरके
सुख-दुःख (सुखदायी-दुःखदायी
परिस्थिति)-में सम और भीतरके
सुख-दुःखसे
रहित
होना
‘निर्द्वन्द्व’ अर्थात् द्वन्द्वरहित होना है
। तादात्म्यमें चेतन-अंशकी मुख्यतासे ‘जिज्ञासा’ रहती है और जड़-अंशकी मुख्यतासे ‘कामना’ रहती है । मनुष्यमें भूख तो अविनाशी-तत्त्वकी रहती है, पर रुचि नाशवान्की रहती है; क्योंकि अविनाशीकी भूखको वह नाशवान्के द्वारा मिटाना चाहता है
। भूख और रुचिका यह द्वन्द्व मनुष्यके संसार-बन्धनको दृढ़ करता है । जब मनुष्यका संसारमें राग-द्वेष नहीं रहता, तब उसकी जिज्ञासा पूर्ण हो जाती है और कामना मिट जाती है अर्थात् वह निर्द्वन्द्व हो जाता है । गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जिसने बाहरसे संन्यास-आश्रम
ग्रहण कर लिया है,
वह वास्तवमें संन्यासी
नहीं है । संन्यासी वास्तवमें वह है, जिसने भीतरसे राग-द्वेषका त्याग कर दिया है । राग-द्वेषके रहते
हुए मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता । परन्तु जिसने राग-द्वेषका त्याग कर
दिया है, वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे
मुक्त हो जाता है । जिसके भीतर राग-द्वेष
नहीं है, वह कर्मयोगी शास्त्रविहित
सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी सदा संन्यासी ही है । उसे अपने कल्याणके लिये बाहरसे
संन्यास-आश्रम ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है ।
ज्ञानयोगमें अपने स्वरूपको
जाननेकी मुख्यता रहनेसे ज्ञानयोगीमें उदासीनता रहती है । परन्तु कर्मयोगीमें दूसरेके
हितकी मुख्यता रहती है । इसलिये अहंवृत्तिका त्याग कर्मयोगमें सुगम है, ज्ञानयोगमें नहीं । രരരരരരരരരര |