।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०८०, बुधवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब भगवान् कर्मयोगको श्रेष्‍ठ कहनेका कारण बताते हैं ।

सूक्ष्म विषयकर्मयोगके द्वारा सुखपूर्वक मुक्त होनेका कथन ।

      ज्ञेयः नित्यसन्‍न्यासी यो द्वेष्‍टि काङ्क्षति ।

     निर्द्वन्द्वो   हि   महाबाहो   सुखं  बन्धात्प्रमुच्यते ॥ ३ ॥

अर्थहे महाबाहो ! जो मनुष्य किसीसे द्वेष करता है और किसीकी आकांक्षा करता है; वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

महाबाहो = हे महाबाहो !

नित्यसन्‍न्यासी = सदा संन्यासी

यः = जो मनुष्य

ज्ञेयः = समझनेयोग्य है;

=

हि = क्योंकि

द्वेष्‍टि = (किसीसे) द्वेष करता है (और)

निर्द्वन्द्वः = द्वन्द्वोंसे रहित (मनुष्य)

= (किसीकी)

सुखम् = सुखपूर्वक

काङ्क्षति = आकांक्षा करता है;

बन्धात् = संसार-बन्धनसे

सः = वह (कर्मयोगी)

प्रमुच्यते = मुक्त हो जाता है ।

व्याख्यामहाबाहो‘महाबाहो सम्बोधनके दो अर्थ होते हैंएक तो जिसकी भुजाएँ बड़ी और बलवान् हों अर्थात् जो शूरवीर हो; और दूसरा, जिसके मित्र तथा भाई बड़े पुरुष हों । अर्जुनके मित्र थे प्राणिमात्रके सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण और भाई थे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्‍ठिर । इसलिये यह सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि कर्मयोगके अनुसार सबकी सेवा करनेका बल तुम्हारेमें है । अतः तुम सुगमतासे कर्मयोगका पालन कर सकते हो ।

यो द्वेष्‍टिकर्मयोगी वह होता है, जो किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, सिद्धान्त आदिसे द्वेष नहीं करता । कर्मयोगीका काम है सबकी सेवा करना, सबको सुख पहुँचाना । यदि उसका किसीके भी साथ किंचिन्मात्र भी द्वेष होगा तो उसके द्वारा कर्मयोगका आचरण सांगोपांग नहीं हो सकेगा । अतः जिससे कुछ भी द्वेष हो, उसकी सेवा कर्मयोगीको सर्वप्रथम करनी चाहिये ।

सबसे पहले द्वेष्‍टि पद देनेका तात्पर्य यह है कि जो किसीको भी बुरा समझता है और किसीका भी बुरा चाहता है, वह कर्मयोगके तत्त्वको समझ ही नहीं सकता ।

मार्मिक बात

प्राणिमात्रके हितके उद्‌देश्यसे कर्मयोगीके लिये बुराईका त्याग करना जितना आवश्यक है, उतना भलाई करना आवश्यक नहीं है । भलाई करनेसे केवल समाजका हित होता है; परन्तु बुराईरहित होनेसे विश्‍वमात्रका हित होता है । कारण यह है कि भलाई करनेमें सीमित क्रियाओं और पदार्थोंकी प्रधानता रहती है; परन्तु बुराईरहित होनेमें भीतरका असीम भाव प्रधान रहता है । यदि भीतरसे बुरा भाव दूर हुआ हो और बाहरसे भलाई करें तो इससे अभिमान पैदा होगा, जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है । भलाई करनेका अभिमान तभी पैदा होता है, जब भीतर कुछ--कुछ बुराई हो । जहाँ अपूर्णता (कमी) होती है, वहीं अभिमान पैदा होता है । परन्तु जहाँ पूर्णता है, वहाँ अभिमानका प्रश्‍न ही पैदा नहीं होता ।

गहराईसे देखा जाय तो नाशवान् वस्तुओंकी सहायताके बिना भलाई नहीं की जा सकती । जिन वस्तुओंसे हम भलाई करते हैं, वे वस्तुएँ हमारी हैं ही नहीं; प्रत्युत उन्हींकी हैं, जिनकी हम भलाई करते हैं । फिर भी यदि भलाईका अभिमान होता है, तो यह नाशवान्‌का संग है । जबतक नाशवान्‌का संग है, तबतक योगकी सिद्धि नहीं होती । मैंने भलाई कीयह अभिमान बुराईसे भी अधिक भयंकर है; क्योंकि यह भाव मैं-पनमें बैठ जाता है । कर्म और फल तो मिट जाते हैं, पर जबतक मैं-पन रहता है, तबतक मैं-पनमें बैठा हुआ भलाईका अभिमान नहीं मिटता । दूसरी बात, बुराईको तो हम बुराईरूपसे जानते ही हैं, पर भलाईको बुराईरूपसे नहीं जानते । इसलिये भलाईके अभिमानका त्याग करना बहुत कठिन है; जैसेलोहेकी हथकड़ीका तो त्याग कर सकते हैं; पर सोनेकी हथकड़ीका त्याग नहीं कर सकते; क्योंकि वह गहनारूपसे दीखती है । इसलिये बुराईरहित होकर ही भलाई करनी चाहिये । वास्तवमें बुराईका त्याग होनेपर विश्‍वमात्रकी भलाई अपने-आप होती है, करनी नहीं पड़ती । इसलिये बुराईरहित महापुरुष अगर हिमालयकी एकान्त गुफामें भी बैठा हो, तो भी उसके द्वारा विश्‍वका बहुत हित होता है ।

काङ्क्षतिकर्मयोगमें कामनाका त्याग मुख्य है । कर्मयोगी किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिकी कामना नहीं करता । कामना-त्याग और परहितमें परस्पर घनिष्‍ठ सम्बन्ध है । निष्काम होनेके लिये दूसरेका हित करना आवश्यक है । दूसरेका हित करनेसे कामनाके त्यागका बल आता है ।

कर्मयोगमें कर्ता निष्काम होता है, कर्म नहीं; क्योंकि जड होनेके कारण कर्म स्वयं निष्काम या सकाम नहीं हो सकते । कर्म कर्ताके अधीन होते हैं, इसलिये कर्मोंकी अभिव्यक्ति कर्तासे ही होती है । निष्काम कर्ताके द्वारा ही निष्काम-कर्म होते हैं, जिसे कर्मयोग कहते हैं । अतः चाहे कर्मयोगकहें या निष्काम-कर्म’‒दोनोंका अर्थ एक ही होता है । सकाम कर्मयोग होता ही नहीं । निष्काम होनेसे कर्ता कर्मफलसे असंग रहता है; परन्तु जब कर्तामें सकामभाव जाता है, तब वह कर्मफलसे बँध जाता है (गीतापाँचवें अध्यायका बारहवाँ श्‍लोक) सकामभाव तभी नष्‍ट होता है, जब कर्ता कोई भी कर्म अपने लिये नहीं करता, प्रत्युत सम्पूर्ण कर्म दूसरोंके हितके लिये ही करता है । इसलिये कर्ताका भाव नित्य-निरन्तर निष्काम रहना चाहिये । कर्तामें जितना निष्कामभाव होगा, उतना ही कर्मयोगका सही आचरण होगा । कर्ताके सर्वथा निष्काम होनेपर कर्मयोग सिद्ध हो जाता है ।

ज्ञेयः नित्यसन्‍न्यासीअर्जुनने युद्ध करके भिक्षा माँगकर जीवन-निर्वाह करनेकी इच्छा प्रकट की थी‘गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके (गीता २ । ) अर्थात् गुरुजनोंको मारकर संन्यास लेना ही श्रेष्‍ठ है । भगवान् उसी बातका उत्तर देते हुए मानो कह रहे हैं कि हे अर्जुन ! वह संन्यास तो गुरुजनोंके मर जानेके भयसे किया जानेवाला बाहरी संन्यास है, पर कर्मयोगीका संन्यास राग-द्वेषके त्यागसे होनेवाला नित्य संन्यास अर्थात् भीतरी एवं सच्‍चा संन्यास है ।

आगे छठे अध्यायके पहले श्‍लोकमें भी भगवान्‌ने केवल अग्‍निका त्याग करनेवाले अर्थात् संन्यास-आश्रममात्र ग्रहण करनेवाले पुरुषको संन्यासी कहकर भीतरसे संसारके आश्रयका त्याग करनेवाले कर्मयोगीको ही संन्यासी कहा है । इस प्रकार भगवान्‌के मतमें कर्मयोगी ही वास्तविक संन्यासी है ।

कर्म करते हुए भी कर्मोंसे किसी प्रकारका सम्बन्ध रखना ही संन्यास है । कर्मोंसे किसी प्रकारका सम्बन्ध रखनेवालेको कर्मोंका फल कभी किसी अवस्थामें किंचिन्मात्र भी नहीं मिलता‘न तु सन्‍न्यासिनां क्‍वचित् (गीता १८ । १२) इसलिये शास्‍त्र-विहित समस्त कर्म करते हुए भी कर्मयोगी सदा संन्यासी ही है ।

कर्मयोगका अनुष्‍ठान किये बिना सांख्ययोगका पालन करना कठिन है । इसलिये सांख्ययोगका साधक पहले कर्मयोगी होता है, फिर संन्यासी (सांख्ययोगी) होता है । परन्तु कर्मयोगके साधकके लिये सांख्ययोगका अनुष्‍ठान करना आवश्यक नहीं है । इसलिये कर्मयोगी आरम्भसे ही संन्यासी है ।

जिसके राग-द्वेषका अभाव हो गया है, उसे संन्यास-आश्रममें जानेकी आवश्यकता नहीं है । कोई भी व्यक्ति, वस्तु, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि अपनी नहीं है और अपने लिये भी नहीं हैऐसा निश्‍चय होनेके बाद राग-द्वेष मिटकर ऐसा ही यथार्थ अनुभव हो जाता है, फिर व्यवहारमें संसारसे सम्बन्ध दीखनेपर भी भीतरसे (राग-द्वेष रहनेसे) सम्बन्ध होता ही नहीं । यही नित्यसंन्यासहै । लौकिक अथवा पारलौकिक प्रत्येक कार्य करते समय कर्मयोगीका संसारसे सर्वथा संन्यास रहता है, इसलिये वह नित्यसंन्यासी ही समझनेयोग्य है ।

संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद अर्थात् लिप्‍तताका अभाव ही संन्यास है और कर्मयोगीमें राग-द्वेष रहनेसे संसारसे लिप्‍तता रहती ही नहीं । अतः कर्मयोगी नित्यसंन्यासी है ।

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