Listen सम्बन्ध‒अब
भगवान् कर्मयोगको श्रेष्ठ कहनेका कारण बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒कर्मयोगके द्वारा सुखपूर्वक
मुक्त होनेका कथन । ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति
। निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो
सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ ३ ॥ अर्थ‒हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकांक्षा करता है; वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।
व्याख्या‒‘महाबाहो’‒‘महाबाहो’ सम्बोधनके दो अर्थ होते हैं‒एक तो जिसकी भुजाएँ बड़ी और बलवान् हों अर्थात् जो शूरवीर हो; और दूसरा, जिसके मित्र तथा भाई बड़े पुरुष हों । अर्जुनके मित्र थे प्राणिमात्रके सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण और भाई थे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर । इसलिये यह सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि कर्मयोगके अनुसार सबकी सेवा करनेका बल तुम्हारेमें है । अतः तुम सुगमतासे कर्मयोगका पालन कर सकते हो । ‘यो न द्वेष्टि’‒कर्मयोगी वह होता है, जो किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, सिद्धान्त आदिसे द्वेष नहीं करता । कर्मयोगीका काम है सबकी सेवा करना, सबको सुख पहुँचाना । यदि उसका किसीके भी साथ किंचिन्मात्र भी द्वेष होगा तो उसके द्वारा कर्मयोगका आचरण सांगोपांग नहीं हो सकेगा । अतः जिससे
कुछ भी द्वेष
हो, उसकी
सेवा
कर्मयोगीको सर्वप्रथम करनी चाहिये
। सबसे पहले ‘न द्वेष्टि’ पद देनेका तात्पर्य यह है कि जो किसीको
भी बुरा
समझता
है और किसीका
भी बुरा
चाहता
है, वह कर्मयोगके तत्त्वको समझ ही नहीं सकता
। मार्मिक
बात प्राणिमात्रके हितके उद्देश्यसे कर्मयोगीके लिये बुराईका त्याग करना जितना आवश्यक है, उतना भलाई करना आवश्यक नहीं है । भलाई
करनेसे
केवल
समाजका
हित होता
है; परन्तु
बुराईरहित होनेसे विश्वमात्रका हित होता है
। कारण यह है कि भलाई करनेमें सीमित क्रियाओं और पदार्थोंकी प्रधानता रहती है; परन्तु बुराईरहित होनेमें भीतरका असीम भाव प्रधान रहता है । यदि भीतरसे बुरा भाव दूर न हुआ हो और बाहरसे भलाई करें तो इससे अभिमान पैदा होगा, जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है । भलाई करनेका अभिमान तभी पैदा होता है, जब भीतर कुछ-न-कुछ बुराई हो । जहाँ अपूर्णता (कमी) होती है, वहीं अभिमान पैदा होता है । परन्तु जहाँ पूर्णता है, वहाँ अभिमानका प्रश्न ही पैदा नहीं होता । गहराईसे देखा जाय तो नाशवान् वस्तुओंकी सहायताके बिना भलाई नहीं की जा सकती । जिन वस्तुओंसे हम भलाई करते हैं, वे वस्तुएँ हमारी हैं ही नहीं; प्रत्युत उन्हींकी हैं, जिनकी हम भलाई करते हैं । फिर भी यदि भलाईका अभिमान होता है, तो यह नाशवान्का संग है । जबतक नाशवान्का संग है, तबतक ‘योग’ की सिद्धि नहीं होती । मैंने
भलाई
की‒यह अभिमान
बुराईसे
भी अधिक
भयंकर
है; क्योंकि यह भाव मैं-पनमें बैठ जाता है । कर्म और फल तो मिट जाते हैं, पर जबतक मैं-पन रहता है, तबतक मैं-पनमें बैठा हुआ भलाईका अभिमान नहीं मिटता । दूसरी बात, बुराईको तो हम बुराईरूपसे जानते ही हैं, पर भलाईको बुराईरूपसे नहीं जानते । इसलिये भलाईके अभिमानका त्याग करना बहुत कठिन है; जैसे‒लोहेकी हथकड़ीका तो त्याग कर सकते हैं; पर सोनेकी हथकड़ीका त्याग नहीं कर सकते; क्योंकि वह गहनारूपसे दीखती है । इसलिये बुराईरहित होकर ही भलाई करनी चाहिये । वास्तवमें बुराईका
त्याग
होनेपर
विश्वमात्रकी भलाई अपने-आप होती है, करनी नहीं पड़ती
। इसलिये
बुराईरहित महापुरुष अगर हिमालयकी एकान्त गुफामें भी बैठा हो, तो भी उसके द्वारा विश्वका बहुत हित होता है
। ‘न काङ्क्षति’‒कर्मयोगमें कामनाका त्याग मुख्य है । कर्मयोगी किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिकी कामना नहीं करता । कामना-त्याग और परहितमें परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । निष्काम
होनेके
लिये
दूसरेका
हित करना
आवश्यक
है ।
दूसरेका
हित करनेसे
कामनाके
त्यागका
बल आता है । कर्मयोगमें कर्ता निष्काम होता है, कर्म नहीं; क्योंकि जड होनेके कारण कर्म स्वयं निष्काम या सकाम नहीं हो सकते । कर्म कर्ताके अधीन होते हैं, इसलिये कर्मोंकी अभिव्यक्ति कर्तासे ही होती है । निष्काम कर्ताके द्वारा ही निष्काम-कर्म होते हैं, जिसे कर्मयोग कहते हैं । अतः चाहे ‘कर्मयोग’ कहें या ‘निष्काम-कर्म’‒दोनोंका अर्थ एक ही होता है । सकाम
कर्मयोग
होता
ही नहीं । निष्काम होनेसे कर्ता कर्मफलसे असंग रहता है; परन्तु जब कर्तामें सकामभाव आ जाता है, तब वह कर्मफलसे बँध जाता है (गीता‒पाँचवें अध्यायका बारहवाँ श्लोक) । सकामभाव तभी नष्ट होता है, जब कर्ता कोई भी कर्म अपने लिये नहीं करता, प्रत्युत सम्पूर्ण कर्म दूसरोंके हितके लिये ही करता है । इसलिये कर्ताका भाव नित्य-निरन्तर निष्काम रहना चाहिये । कर्तामें जितना निष्कामभाव होगा, उतना ही कर्मयोगका सही आचरण होगा । कर्ताके सर्वथा निष्काम होनेपर कर्मयोग सिद्ध हो जाता है । ‘ज्ञेयः
स नित्यसन्न्यासी’‒अर्जुनने युद्ध न करके भिक्षा माँगकर जीवन-निर्वाह करनेकी इच्छा प्रकट की थी‒‘गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’ (गीता २ । ५)
अर्थात् गुरुजनोंको न मारकर संन्यास लेना ही श्रेष्ठ है । भगवान् उसी बातका उत्तर देते हुए मानो कह रहे हैं कि हे अर्जुन ! वह संन्यास तो गुरुजनोंके मर जानेके भयसे किया जानेवाला बाहरी संन्यास है, पर कर्मयोगीका संन्यास राग-द्वेषके त्यागसे होनेवाला नित्य संन्यास अर्थात् भीतरी एवं सच्चा संन्यास है । आगे छठे अध्यायके पहले श्लोकमें भी भगवान्ने केवल अग्निका त्याग करनेवाले अर्थात् संन्यास-आश्रममात्र ग्रहण करनेवाले पुरुषको संन्यासी न कहकर भीतरसे संसारके आश्रयका त्याग करनेवाले कर्मयोगीको ही संन्यासी कहा है । इस प्रकार भगवान्के मतमें कर्मयोगी ही वास्तविक संन्यासी है । कर्म करते हुए भी कर्मोंसे किसी प्रकारका सम्बन्ध न रखना ही संन्यास है । कर्मोंसे किसी प्रकारका सम्बन्ध न रखनेवालेको कर्मोंका फल कभी किसी अवस्थामें किंचिन्मात्र भी नहीं मिलता‒‘न तु सन्न्यासिनां क्वचित्’ (गीता १८ । १२) । इसलिये शास्त्र-विहित समस्त कर्म करते हुए भी कर्मयोगी सदा संन्यासी ही है । कर्मयोगका अनुष्ठान किये बिना सांख्ययोगका पालन करना कठिन है । इसलिये सांख्ययोगका साधक पहले कर्मयोगी होता है, फिर संन्यासी (सांख्ययोगी) होता है । परन्तु कर्मयोगके साधकके लिये सांख्ययोगका अनुष्ठान करना आवश्यक नहीं है । इसलिये कर्मयोगी आरम्भसे ही संन्यासी है । जिसके राग-द्वेषका अभाव हो गया है, उसे संन्यास-आश्रममें जानेकी आवश्यकता नहीं है । कोई भी व्यक्ति, वस्तु, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि
आदि अपनी
नहीं
है और अपने
लिये
भी नहीं
है‒ऐसा निश्चय
होनेके
बाद राग-द्वेष
मिटकर
ऐसा ही यथार्थ
अनुभव
हो जाता
है, फिर व्यवहारमें संसारसे सम्बन्ध दीखनेपर भी भीतरसे (राग-द्वेष न रहनेसे) सम्बन्ध होता ही नहीं
। यही ‘नित्यसंन्यास’ है
। लौकिक अथवा पारलौकिक प्रत्येक कार्य करते समय कर्मयोगीका संसारसे सर्वथा संन्यास रहता है, इसलिये वह नित्यसंन्यासी ही समझनेयोग्य है ।
संसारसे
सम्बन्ध-विच्छेद
अर्थात्
लिप्तताका अभाव ही संन्यास है
और कर्मयोगीमें राग-द्वेष न रहनेसे संसारसे लिप्तता रहती ही नहीं । अतः कर्मयोगी नित्यसंन्यासी है । രരരരരരരരരര |