Listen साधकको संसारके प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिमें स्पष्ट ही अपना राग दीखता है । उस रागको वह अपने बन्धनका खास कारण मानता है तथा उसे मिटानेकी चेष्टा भी करता है । उस रागको
मिटानेके
लिये
कर्मयोगी
किसी
भी प्राणी, पदार्थ
आदिको
अपना
नहीं
मानता१, १.कर्मयोगी सेवा करनेके लिये तो सबको अपना मानता है, पर अपने लिये किसीको भी
अपना नहीं मानता । अपने
लिये
कुछ नहीं
करता
तथा अपने
लिये
कुछ नहीं
चाहता ।
क्रियाओंसे सुख लेनेका भाव न रहनेसे कर्मयोगीकी क्रियाएँ परिणाममें सबका हित तथा वर्तमानमें सबकी प्रसन्नता और सुखके लिये ही हो जाती हैं
। क्रियाओंसे सुख लेनेका भाव होनेसे क्रियाओंमें अभिमान (कर्तृत्व) और ममता हो जाती है । परन्तु उनसे सुख लेनेका भाव सर्वथा न रहनेसे कर्तृत्व समाप्त हो जाता है । कारण कि क्रियाएँ
दोषी
नहीं
हैं, क्रियाजन्य आसक्ति और क्रियाओंके फलको चाहना ही दोषी है
। जब साधक क्रियाजन्य सुख नहीं लेता तथा क्रियाओंका फल नहीं चाहता तब कर्तृत्व रह ही कैसे सकता है ? क्योंकि कर्तृत्व टिकता है भोक्तृत्वपर । भोक्तृत्व न रहनेसे कर्तृत्व अपने उद्देश्यमें (जिसके लिये कर्म करता है, उसमें) लीन हो जाता है और एक परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है । कर्मयोगीका ‘अहम्’
(व्यक्तित्व)
शीघ्र तथा सुगमतापूर्वक नष्ट हो जाता है, जबकि ज्ञानयोगीका ‘अहम्’ दूरतक साथ रहता है । कारण यह है कि ‘मैं सेवक हूँ’
(केवल
सेव्यके लिये सेवक हूँ, अपने लिये नहीं)‒ऐसा माननेसे कर्मयोगीका ‘अहम्’ भी सेव्यकी सेवामें लग जाता है; परन्तु ‘मैं मुमुक्षु हूँ’ ऐसा माननेसे ज्ञानयोगीका ‘अहम्’ साथ रहता है । कर्मयोगी
अपने
लिये
कुछ न करके
केवल
दूसरोंके
हितके
लिये
सब कर्म
करता
है, पर ज्ञानयोगी अपने हितके लिये साधन करता है
। अपने
हितके
लिये
साधन
करनेसे
‘अहम्’
ज्यों-का-त्यों
बना रहता
है । ज्ञानयोगकी मुख्य बात है‒संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव करना और कर्मयोगकी मुख्य बात है‒रागका अभाव करना
। ज्ञानयोगी विचारके द्वारा संसारकी सत्ताका अभाव तो करना चाहता है, पर पदार्थोंमें राग रहते हुए उसकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होना बहुत कठिन है । यद्यपि विचारकालमें ज्ञानयोगके साधकको पदार्थोंकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव दीखता है, तथापि व्यवहारकालमें उन पदार्थोंकी स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है । परन्तु कर्मयोगके साधकका लक्ष्य दूसरोंको सुख पहुँचानेका रहनेसे उसका राग स्वतः मिट जाता है । इसके अतिरिक्त मिली हुई सामग्रीका त्याग करना कर्मयोगीके लिये जितना सुगम पड़ता है, उतना ज्ञानयोगीके लिये नहीं । ज्ञानयोगकी दृष्टिसे किसी वस्तुको मायामात्र समझकर ऐसे ही उसका त्याग कर देना कठिन पड़ता है; परन्तु वही वस्तु किसीके काम आती हुई दिखायी दे तो उसका त्याग करना सुगम पड़ता है । जैसे, हमारे पास कम्बल पड़े हैं तो उन कम्बलोंको दूसरोंके काममें आते जानकर उनका त्याग करना अर्थात् उनसे अपना राग हटाना साधारण बात है; परन्तु (यदि तीव्र वैराग्य न हो तो) उन्हीं कम्बलोंको विचारद्वारा अनित्य, क्षणभंगुर, स्वप्नके मायामय पदार्थ समझकर ऐसे ही छोड़कर चल देना कठिन है । दूसरी बात, मायामात्र समझकर त्याग करनेमें (यदि तेजीका वैराग्य न हो तो) जिन वस्तुओंमें हमारी सुखबुद्धि नहीं है, उन खराब वस्तुओंका त्याग तो सुगमतासे हो जाता है, पर जिनमें हमारी सुखबुद्धि है, उन अच्छी वस्तुओंका त्याग कठिनतासे होता है । परन्तु दूसरेके काम आती देखकर जिन वस्तुओंमें हमारी सुखबुद्धि है, उन वस्तुओंका त्याग सुगमतासे हो जाता है; जैसे‒भोजनके समय थालीमेंसे रोटी निकालनी पड़े तो ठंडी, बासी और रूखी रोटी ही निकालेंगे । परन्तु यदि वही रोटी किसी दूसरेको देनी हो तो अच्छी रोटी ही निकालेंगे, खराब नहीं । इसलिये कर्मयोगकी प्रणालीसे रागको मिटाये बिना सांख्ययोगका साधन होना बहुत कठिन है । विचारद्वारा पदार्थोंकी सत्ता न मानते हुए भी पदार्थोंमें स्वाभाविक राग रहनेके कारण भोगोंमें फँसकर पतनतक होनेकी सम्भावना रहती है
। केवल असत्के ज्ञानसे अर्थात् असत्को असत् जान लेनेसे रागकी निवृत्ति नहीं होती२ । २.असत्को असत् जाननेसे उसकी
निवृत्ति तभी होती है, जब अपने स्वरूपमें स्थित होकर असत्को असत्रूपसे जानते
हैं । स्वरूपमें स्थिति करण-निरपेक्ष है । परन्तु बुद्धि
आदि करणोंसे असत्को असत् जाननेसे उसकी निवृत्ति नहीं होती; क्योंकि बुद्धि आदि करण भी असत् हैं । अत: असत्के ही द्वारा असत्को जाननेसे उसकी निवृत्ति कैसे हो सकती
है ? जैसे, सिनेमामें दीखनेवाले पदार्थों आदिकी सत्ता नहीं है‒ऐसा जानते हुए भी उसमें राग हो जाता है । सिनेमा
देखनेसे
चरित्र, समय, नेत्र-शक्ति
और धन‒इन चारोंका
नाश होता
है‒ऐसा जानते हुए भी रागके कारण सिनेमा देखते हैं । इससे सिद्ध होता है कि वस्तुकी सत्ता न होनेपर भी उसमें राग अथवा सम्बन्ध रह सकता है । यदि राग न हो तो वस्तुकी सत्ता माननेपर भी उसमें राग उत्पन्न नहीं होता । इसलिये साधकका
मुख्य
काम होना
चाहिये‒रागका अभाव करना,
सत्ताका अभाव करना नहीं; क्योंकि बाँधनेवाली वस्तु राग या सम्बन्ध ही है, सत्तामात्र नहीं । पदार्थ चाहे सत् हो, चाहे असत् हो, चाहे सत्-असत्से विलक्षण हो, यदि उसमें राग है तो वह बाँधनेवाला हो ही जायगा । वास्तवमें हमें कोई भी पदार्थ नहीं बाँधता
। बाँधता
है हमारा
सम्बन्ध, जो रागसे
होता
है ।
अतः हमारेपर
राग मिटानेकी
ही जिम्मेवारी है
। परिशिष्ट भाव‒यद्यपि ‘योग’ के बिना कर्म और ज्ञान‒दोनों ही बन्धनकारक हैं, तथापि कर्म
करनेसे
उतना
पतन नहीं
होता, जितना
पतन वाचिक (सीखे
हुए) ज्ञानसे
होता
है । वाचिक ज्ञान नरकोंमें ले जा सकता है‒ अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत्
। महानिरयजालेषु स तेन विनियोजितः ॥ (योगवासिष्ठ, स्थिति॰ ३९) ‘जो
बेसमझ
मनुष्यको ‘सब
कुछ
ब्रह्म है’ ऐसा
उपदेश
देता
है, वह
उस
मनुष्यको महान् नरकोंके जालमें डाल
देता
है ।’ अतः वाचक ज्ञानीकी अपेक्षा कर्म करनेवाला श्रेष्ठ है । फिर जो कर्मयोगका आचरण करता है, उसकी श्रेष्ठताका तो कहना ही क्या ! ज्ञानयोगी तो केवल अपने लिये उपयोगी होता है, पर कर्मयोगी संसारमात्रके लिये उपयोगी होता है । जो संसारके
लिये
उपयोगी
होता
है, वह अपने
लिये
भी उपयोगी
हो जाता
है‒यह नियम
है । इसलिये कर्मयोग विशेष है । सांख्ययोगके बिना तो कर्मयोग हो सकता है, पर कर्मयोगके बिना सांख्ययोग होना कठिन है (गीता‒पाँचवें अध्यायका छठा श्लोक) । इसलिये सांख्ययोगकी अपेक्षा कर्मयोग विशेष है । सांख्ययोगसे कर्मयोग श्रेष्ठ है और कर्मयोगसे भक्तियोग श्रेष्ठ है
(गीता‒छठे अध्यायका सैंतालीसवाँ श्लोक) । इसलिये गीतामें पहले सांख्ययोग, फिर कर्मयोग और फिर भक्तियोग‒इस क्रमसे विवेचन किया गया है३ । ३.भागवतमें भी यही क्रम है‒ योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया
। ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च
नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥ (श्रीमद्भा॰ ११ । २० । ६)
‘अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने तीन योगमार्ग
बताये हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
। इन तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग नहीं है ।’ फलमें कर्मयोग और ज्ञानयोग एक हैं (गीता‒पाँचवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्लोक) । साधनमें कर्मयोग और भक्तियोग एक हैं‒‘मैत्रः
करुण एव च’ (गीता १२
। १३);
क्योंकि कर्मयोग और भक्तियोग‒दोनोंमें ही दूसरेको सुख देनेका भाव रहता है । कर्म करनेमें कर्मी और कर्मयोगी एक हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका पचीसवाँ श्लोक) तथा तत्त्वज्ञ महापुरुष और भगवान् भी कर्म करनेमें साथ हैं (गीता‒तीसरे अध्यायके बाईसवेंसे छब्बीसवें श्लोकतक) । इस प्रकार कर्मी, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी और भगवान्‒चारोंके साथ कर्मयोगी एक हो जाता है‒यह कर्मयोगकी विशेषता है । सांख्ययोगमें तो अहम्का सूक्ष्म संस्कार रह सकता है, पर कर्मयोगमें क्रिया और पदार्थसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे अहम्का सूक्ष्म संस्कार भी नहीं रहता । कर्मयोगमें अकर्म (अभाव) शेष रहता है (गीता‒चौथे अध्यायका अठारहवाँ श्लोक) और सांख्ययोगमें आत्मा शेष रहता है (गीता‒छठे अध्यायका उनतीसवाँ श्लोक) ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒भगवान् कहते हैं कि
यद्यपि सांख्ययोग और कर्मयोग‒दोनोंसे ही मनुष्यका कल्याण हो जाता है, तथापि कर्मयोगके अनुसार
अपने कर्तव्यका पालन करना ही श्रेष्ठ है । कर्मयोग सांख्ययोगकी
अपेक्षा भी श्रेष्ठ तथा सुगम है । രരരരരരരരരര |