।। श्रीहरिः ।।

  


आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०८०, सोमवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब भगवान् अर्जुनके प्रश्‍नका उत्तर देते हैं ।

सूक्ष्म विषयभगवान्‌के द्वारा सांख्ययोगकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्‍ठ बताना ।

श्रीभगवानुवाच

सन्‍न्यासः  कर्मयोगश्‍च  निःश्रेयसकरावुभौ ।

       तयोस्तु कर्मसन्‍न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ २ ॥

अर्थश्रीभगवान् बोलेसंन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग दोनों ही कल्याण करनेवाले हैं । परन्तु उन दोनोंमें भी कर्मसंन्यास (सांख्ययोग)-से कर्मयोग श्रेष्‍ठ है ।

सन्‍न्यासः = संन्यास (सांख्ययोग)

तु = परन्तु

= और

तयोः = उन दोनोंमें (भी)

कर्मयोगः = कर्मयोग

कर्मसन्‍न्यासात् = कर्मसंन्यास (सांख्ययोग)-से

उभौ = दोनों ही

कर्मयोगः = कर्मयोग

निःश्रेयसकरौ = कल्याण करनेवाले हैं ।

विशिष्यते = श्रेष्‍ठ है ।

व्याख्या[ भगवान्‌के सिद्धान्तके अनुसार सांख्ययोग और कर्मयोगका पालन प्रत्येक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके मनुष्य कर सकते हैं । कारण कि उनका सिद्धान्त किसी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिको लेकर नहीं है । इसी अध्यायके पहले श्‍लोकमें अर्जुनने कर्मोंका त्याग करके विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्‍त करनेकी प्रचलित प्रणालीको कर्मसंन्यासनामसे कहा है । परन्तु भगवान्‌के सिद्धान्तके अनुसार ज्ञान-प्राप्‍तिके लिये सांख्ययोगका पालन प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्रतासे कर सकता है और उसका पालन करनेमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी आवश्यकता भी नहीं है । इसलिये भगवान् प्रचलित मतका भी आदर करते हुए अपने सिद्धान्तके अनुसार अर्जुनके प्रश्‍नका उत्तर देते हैं । ]

सन्‍न्यासःयहाँ सन्‍न्यासः पदका अर्थ सांख्ययोगहै, कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं । अर्जुनके प्रश्‍नका उत्तर देते हुए भगवान् कर्मोंके त्यागपूर्वक संन्यासका विवेचन करके कर्म करते हुए ज्ञानको प्राप्‍त करनेका जो सांख्ययोगका मार्ग है, उसका विवेचन करते हैं । उस सांख्ययोगके द्वारा मनुष्य प्रत्येक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिमें रहते हुए प्रत्येक परिस्थितिमें स्वतन्त्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्‍त कर सकता है अर्थात् अपना कल्याण कर सकता है ।

सांख्ययोगकी साधनामें विवेक-विचारकी मुख्यता रहती है । विवेकपूर्वक तीव्र वैराग्यके बिना यह साधना सफल नहीं होती । इस साधनामें संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होकर एकमात्र परमात्मतत्त्वपर दृष्‍टि रहती है । राग मिटे बिना संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होना बहुत कठिन है । इसलिये भगवान्‌ने देहाभिमानियोंके लिये यह साधन क्लेशयुक्त बताया है (गीताबारहवें अध्यायका पाँचवाँ श्‍लोक) इसी अध्यायके छठे श्‍लोकमें भी भगवान्‌ने कहा है कि कर्मयोगका साधन किये बिना संन्यासका साधन होना कठिन है; क्योंकि संसारसे राग हटानेके लिये कर्मयोग ही सुगम उपाय है ।

कर्मयोगश्‍चमानवमात्रमें कर्म करनेका राग अनादिकालसे चला रहा है, जिसे मिटानेके लिये कर्म करना आवश्यक है (गीताछठे अध्यायका तीसरा श्‍लोक) परन्तु वे कर्म किस भाव और उद्‌देश्यसे कैसे किये जायँ कि करनेका राग सर्वथा मिट जाय, उस कर्तव्य-कर्मको करनेकी कलाको कर्मयोगकहते हैं । कर्मयोगमें कार्य छोटा है या बड़ा, इसपर दृष्‍टि नहीं रहती । जो भी कर्तव्य-कर्म सामने जाय, उसीको निष्कामभावसे दूसरोंके हितके लिये करना है । कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये यह आवश्यक है कि कर्म अपने लिये किये जायँ । अपने लिये कर्म करनेका अर्थ हैकर्मोंके बदलेमें अपने लिये कुछ भी पानेकी इच्छा होना । जबतक अपने लिये कुछ भी पानेकी इच्छा रहती है, तबतक कर्मोंके साथ सम्बन्ध बना रहता है ।

निःश्रेयसकरावुभौअर्जुनका प्रश्‍न था कि सांख्ययोग और कर्मयोगइन दोनों साधनोंमें कौन-सा साधन निश्‍चयपूर्वक कल्याण करनेवाला है ? उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन ! ये दोनों ही साधन निश्‍चयपूर्वक कल्याण करनेवाले हैं । कारण कि दोनोंके द्वारा एक ही समताकी प्राप्‍ति होती है । इसी अध्यायके चौथे-पाँचवें श्‍लोकोंमें भी भगवान्‌ने इसी बातकी पुष्‍टि की है । तेरहवें अध्यायके चौबीसवें श्‍लोकमें भी भगवान्‌ने सांख्ययोग और कर्मयोगदोनोंसे परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेकी बात कही है । इसलिये ये दोनों ही परमात्मप्राप्‍तिके स्वतन्त्र साधन हैं (गीतातीसरे अध्यायका तीसरा श्‍लोक)

तयोस्तु कर्मसन्‍न्यासात्एक ही सांख्ययोगके दो भेद हैंएक तो चौथे अध्यायके चौंतीसवें श्‍लोकमें कहा हुआ सांख्ययोग, जिसमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग है और दूसरा, दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्‍लोकतक कहा हुआ सांख्ययोग, जिसमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं है । यहाँ कर्मसन्‍न्यासात् पद दोनों ही प्रकारके सांख्ययोगका वाचक है ।

कर्मयोगो विशिष्यतेआगेके (तीसरे) श्‍लोकमें भगवान्‌ने इन पदोंकी व्याख्या करते हुए कहा है कि कर्मयोगी नित्यसंन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । फिर छठे श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा है कि कर्मयोगके बिना सांख्ययोगका साधन होना कठिन है तथा कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्‍त कर लेता है । तात्पर्य है कि सांख्ययोगमें तो कर्मयोगकी आवश्यकता है, पर कर्मयोगमें सांख्ययोगकी आवश्यकता नहीं है । इसलिये दोनों साधनोंके कल्याणकारक होनेपर भी भगवान् कर्मयोगको ही श्रेष्‍ठ बताते हैं ।

कर्मयोगी लोकसंग्रहके लिये कर्म करता है‘लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमहर्सि (गीतातीसरे अध्यायका बीसवाँ श्‍लोक) लोकसंग्रहका तात्पर्य हैनिःस्वार्थभावसे लोक-मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये, लोगोंको उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगानेके लिये कर्म करना अर्थात् केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना । इसीको गीतामें यज्ञार्थ कर्मके नामसे भी कहा गया है । जो केवल अपने लिये कर्म करता है, वह बँध जाता है (तीसरे अध्यायका नवाँ और तेरहवाँ श्‍लोक) परन्तु कर्मयोगी निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है; अतः वह कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है (चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्‍लोक) इसलिये कर्मयोग श्रेष्‍ठ है ।

कर्मयोगका साधन प्रत्येक परिस्थितिमें और प्रत्येक व्यक्तिके द्वारा किया जा सकता है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका क्यों हो । परन्तु अर्जुन जिस कर्मसंन्यासकी बात कहते हैं, वह एक विशेष परिस्थितिमें किया जा सकता है (गीताचौथे अध्यायका चौंतीसवाँ श्‍लोक); क्योंकि तत्त्वज्ञ महापुरुषका मिलना, उनमें अपनी श्रद्धा होना और उनके पास जाकर निवास करनाऐसी परिस्थिति हरेक मनुष्यको प्राप्‍त होनी सम्भव नहीं है । अतः प्रचलित प्रणालीके सांख्ययोगका साधन एक विशेष परिस्थितिमें ही साध्य है, जबकि कर्मयोगका साधन प्रत्येक परिस्थितिमें और प्रत्येक व्यक्तिके लिये साध्य है । इसलिये कर्मयोग श्रेष्‍ठ है ।

प्राप्‍त परिस्थितिका सदुपयोग करना कर्मयोग है । युद्ध-जैसी घोर परिस्थितिमें भी कर्मयोगका पालन किया जा सकता है । कर्मयोगका पालन करनेमें कोई भी मनुष्य किसी भी परिस्थितिमें असमर्थ और पराधीन नहीं है; क्योंकि कर्मयोगमें कुछ भी पानेकी इच्छाका त्याग होता है । कुछ--कुछ पानेकी इच्छा रहनेसे ही कर्तव्य-कर्म करनेमें असमर्थता और पराधीनताका अनुभव होता है ।

कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही संसार है । सांख्ययोगी और कर्मयोगीइन दोनोंको ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करना है, इसलिये दोनों ही साधकोंको कर्तृत्व और भोक्तृत्वइन दोनोंको मिटानेकी आवश्यकता है । तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि होनेसे सांख्ययोगी कर्तृत्वको मिटाता है । उतना तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि होनेसे कर्मयोगी दूसरोंके हितके लिये ही सब कर्म करके भोक्तृत्वको मिटाता है । इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्वका त्याग करके संसारसे मुक्त होता है और कर्मयोगी भोक्तृत्वका अर्थात् कुछ पानेकी इच्छाका त्याग करके मुक्त होता है । यह नियम है कि कर्तृत्वका त्याग करनेसे भोक्तृत्वका त्याग और भोक्तृत्वका त्याग करनेसे कर्तृत्वका त्याग स्वतः हो जाता है । कुछ--कुछ पानेकी इच्छासे ही कर्तृत्व होता है । जिस कर्मसे अपने लिये किसी प्रकारके भी सुखभोगकी इच्छा नहीं है, वह क्रियामात्र है, कर्म नहीं । जैसे यन्त्रमें कर्तृत्व नहीं रहता, ऐसे ही कर्मयोगीमें कर्तृत्व नहीं रहता ।

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