।। श्रीहरिः ।।

  


आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०८०, रविवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

अथ पञ्‍चमोऽध्यायः

अवतरणिका‒

श्रीभगवान्‌ने चौथे अध्यायके तैंतीसवेंसे सैंतीसवें श्‍लोकतक कर्म तथा पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करके तत्त्वदर्शी महापुरुषके पास जाकर ज्ञान प्राप्‍त करनेकी प्रचलित प्रणालीकी प्रशंसा की और इसके लिये (चौथे अध्यायके चौंतीसवें श्‍लोकमें) अर्जुनको आज्ञा दी । तत्त्वज्ञान प्राप्‍त करनेकी इस प्रणालीमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके एकान्तमें परमात्मतत्त्वका मनन करना आवश्यक है । अर्जुनके मनमें पहले ही युद्धरूप कर्म करनेका भाव था; क्योंकि वे अपना कल्याण चाहते थे और युद्धको पाप समझते थे । अतः अर्जुनने समझा कि भगवान् मेरे लिये इस प्रकार कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके ज्ञान-प्राप्‍तिके लिये साधन करनेको कहते हैं ।

फिर चौथे अध्यायके ही अड़तीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि उसी तत्त्वज्ञानको साधक कर्मयोगके द्वारा अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें प्राप्‍त कर लेता है । भाव यह है कि कर्मयोगके साधकको ज्ञान-प्राप्‍तिके लिये दूसरे साधनोंकी तथा तत्त्वदर्शी महापुरुषके पास जाकर निवास करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । इससे स्पष्‍ट ही तत्त्वज्ञानकी प्राप्‍तिमें कर्मयोगकी विशेषरूपसे प्रशंसा हुई है ।

इस प्रकार अर्जुनने चौथे अध्यायके तैंतीसवें श्‍लोकमें ज्ञान प्राप्‍त करनेकी प्रचलित प्रणालीकी प्रशंसा सुनी और चौंतीसवें श्‍लोकमें विद्धि पदसे उस प्रणालीसे ज्ञान प्राप्‍त करनेकी अपने लिये विशेष आज्ञा मानी । फिर अड़तीसवें और इकतालीसवें श्‍लोकमें कर्मयोगकी प्रशंसा सुनी । बयालीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने अर्जुनको योगमातिष्‍ठोत्तिष्‍ठ पदसे कर्मयोगकी विधिसे युद्ध करनेकी आज्ञा दी । इस तरह ज्ञानयोग और कर्मयोग‒दोनोंकी प्रशंसा सुनकर तथा दोनोंके लिये आज्ञा प्राप्‍त होनेपर अर्जुन यह निर्णय नहीं कर सके कि इन दोनोंमें कौन-सा साधन मेरे लिये श्रेष्‍ठ है । अतः इसका निर्णय भगवान्‌से करानेके उद्‌देश्यसे अर्जुन प्रश्‍न करते हैं ।

प्रधान विषयश्‍लोकतकसांख्ययोग तथा कर्मयोगकी एकताका प्रतिपादन और कर्मयोगकी प्रशंसा ।

सूक्ष्म विषयसांख्ययोग और कर्मयोगकी श्रेष्‍ठताके विषयमें अर्जुनका प्रश्‍न ।

अर्जुन उवाच

सन्‍न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं शंससि ।

       यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्‍चितम् ॥ १ ॥

अर्थअर्जुन बोलेहे कृष्ण ! आप कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी और फिर कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं । अतः इन दोनों साधनोंमें जो एक निश्‍चितरूपसे कल्याणकारक हो, उसको मेरे लिये कहिये ।

कृष्ण = हे कृष्ण ! (आप)

यत् = जो

कर्मणाम् = कर्मोंका

एकम् =      एक

सन्‍न्यासम् = स्वरूपसे त्याग करनेकी

सुनिश्‍चितम् = निश्‍चितरूपसे

= और

श्रेयः = कल्याणकारक हो,

पुनः = फिर

तत् = उसको

योगम् = कर्मयोगकी

मे = मेरे लिये

शंससि = प्रशंसा करते हैं । (अतः)

ब्रूहि = कहिये ।

एतयोः = इन दोनों साधनोंमें

 

व्याख्या‘सन्‍न्यासं कर्मणां कृष्णकौटुम्बिक स्‍नेहके कारण अर्जुनके मनमें युद्ध करनेका भाव पैदा हो गया था । इसके समर्थनमें अर्जुनने पहले अध्यायमें कई तर्क और युक्तियाँ भी सामने रखीं । उन्होंने युद्ध करनेको पाप बताया (गीतापहले अध्यायका पैंतालीसवाँ श्‍लोक) वे युद्ध करके भिक्षाके अन्‍नसे जीवन-निर्वाह करनेको श्रेष्‍ठ समझने लगे (दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्‍लोक) और उन्होंने निश्‍चय करके भगवान्‌से स्पष्‍ट कह भी दिया कि मैं किसी भी स्थितिमें युद्ध नहीं करूँगा (दूसरे अध्यायका नवाँ श्‍लोक)

प्रायः वक्ताके शब्दोंका अर्थ श्रोता अपने विचारके अनुसार लगाया करते हैं । स्वजनोंको देखकर अर्जुनके हृदयमें जो मोह पैदा हुआ, उसके अनुसार उन्हें युद्धरूप कर्मके त्यागकी बात उचित प्रतीत होने लगी । अतः भगवान्‌के शब्दोंको वे अपने विचारके अनुसार समझ रहे हैं कि भगवान् कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके प्रचलित प्रणालीके अनुसार तत्त्वज्ञान प्राप्‍त करनेकी ही प्रशंसा कर रहे हैं ।

पुनर्योगं शंससिचौथे अध्यायके अड़तीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कर्मयोगीको दूसरे किसी साधनके बिना अवश्यमेव तत्त्वज्ञान प्राप्‍त होनेकी बात कही है । उसीको लक्ष्य करके अर्जुन भगवान्‌से कह रहे हैं कि कभी तो आप ज्ञानयोगकी प्रशंसा (चौथे अध्यायका तैंतीसवाँ श्‍लोक) करते हैं और कभी कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं (चौथे अध्यायका इकतालीसवाँ श्‍लोक)

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्‍चितम्इसी तरहका प्रश्‍न अर्जुनने दूसरे अध्यायके सातवें श्‍लोकमें भी यच्छ्रेयः स्यान्‍निश्‍चितं ब्रूहि तन्मे पदोंसे किया था । उसके उत्तरमें भगवान्‌ने दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें-अड़तालीसवें श्‍लोकोंमें कर्मयोगकी व्याख्या करके उसका आचरण करनेके लिये कहा । फिर तीसरे अध्यायके दूसरे श्‍लोकमें अर्जुनने ‘तदेकं वद निश्‍चित्य येन श्रेयोऽहमाप्‍नुयाम् पदोंसे पुनः अपने कल्याणकी बात पूछी, जिसके उत्तरमें भगवान्‌ने तीसरे अध्यायके तीसवें श्‍लोकमें निष्काम, निर्मम और निःसंताप होकर युद्ध करनेकी आज्ञा दी तथा पैंतीसवें श्‍लोकमें अपने धर्मका पालन करनेको श्रेयस्कर बताया ।

यहाँ उपर्युक्त पदोंसे अर्जुनने जो बात पूछी है, उसके उत्तरमें भगवान्‌ने कहा है कि कर्मयोग श्रेष्‍ठ है (पाँचवें अध्यायका दूसरा श्‍लोक), कर्मयोगी सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है (पाँचवें अध्यायका तीसरा श्‍लोक), कर्मयोगके बिना सांख्ययोगका साधन सिद्ध होना कठिन है; परन्तु कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्‍त कर लेता है (पाँचवें अध्यायका छठा श्‍लोक) इस प्रकार कहकर भगवान् अर्जुनको मानो यह बता रहे हैं कि कर्मयोग ही तेरे लिये शीघ्रता और सुगमतापूर्वक ब्रह्मकी प्राप्‍ति करानेवाला है; अतः तू कर्मयोगका ही अनुष्‍ठान कर ।

अर्जुनके मनमें मुख्यरूपसे अपने कल्याणकी ही इच्छा थी । इसलिये वे बार-बार भगवान्‌के सामने श्रेयविषयक जिज्ञासा रखते हैं (दूसरे अध्यायका सातवाँ, तीसरे अध्यायका दूसरा और पाँचवें अध्यायका पहला श्‍लोक) कल्याणकी प्राप्‍तिमें इच्छाकी प्रधानता है । साधनकी सफलतामें देरीका कारण भी यही है कि कल्याणकी इच्छा पूरी तरह जाग्रत् नहीं हुई । जिन साधकोंमें तीव्र वैराग्य नहीं है, वे भी कल्याणकी इच्छा जाग्रत् होनेपर कर्मयोगका साधन सुगमतापूर्वक कर सकते हैं अर्जुनके हृदयमें भोगोंसे पूरा वैराग्य नहीं है, पर उनमें अपने कल्याणकी इच्छा है, इसलिये वे कर्मयोगके अधिकारी हैं ।

१.योगास्‍त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।…………

…………. । तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ॥

                                   (श्रीमद्भा ११ । २० । ६-)

पहले अध्यायके बत्तीसवें तथा दूसरे अध्यायके आठवें श्‍लोकको देखनेसे पता लगता है कि अर्जुन मृत्युलोकके राज्यकी तो बात ही क्या है, त्रिलोकीका राज्य भी नहीं चाहते । परन्तु वास्तवमें अर्जुन राज्य तथा भोगोंको सर्वथा नहीं चाहते हों, ऐसी बात भी नहीं है । वे कहते हैं कि युद्धमें कुटुम्बीजनोंको मारकर राज्य तथा विजय नहीं चाहता । इसका तात्पर्य है कि यदि कुटुम्बीजनोंको मारे बिना राज्य मिल जाय तो मैं उसे लेनेको तैयार हूँ । दूसरे अध्यायके पाँचवें श्‍लोकमें अर्जुन यही कहते हैं कि गुरुजनोंको मारकर भोग भोगना ठीक नहीं है । इससे यह ध्वनि भी निकलती है कि गुरुजनोंको मारे बिना राज्य मिल जाय तो वह स्वीकार है । दूसरे अध्यायके छठे श्‍लोकमें अर्जुन कहते हैं कि कौन जीतेगाइसका हमें पता नहीं और उन्हें मारकर हम जीना भी नहीं चाहते । इसका तात्पर्य है कि यदि हमारी विजय निश्‍चित हो तथा उनको मारे बिना राज्य मिलता हो तो मैं लेनेको तैयार हूँ । आगे दूसरे अध्यायके सैंतीसवें श्‍लोकमें भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तेरे तो दोनों हाथोंमें लड्डू हैं; यदि युद्धमें तू मारा गया तो तुझे स्वर्ग मिलेगा और जीत गया तो राज्य मिलेगा । यदि अर्जुनके मनमें स्वर्ग और संसारके राज्यकी किंचिन्मात्र भी इच्छा नहीं होती तो भगवान् शायद ही ऐसा कहते । अतः अर्जुनके हृदयमें प्रतीत होनेवाला वैराग्य वास्तविक नहीं है । परन्तु उनमें अपने कल्याणकी इच्छा है, जो इस श्‍लोकमें भी दिखायी दे रही है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याचौथे अध्यायके अन्तमें भगवान्‌ने अर्जुनको युद्धके लिये खड़ा होनेकी आज्ञा दी थी । परन्तु यहाँ अर्जुनके प्रश्‍नसे पता लगता है कि उनके भीतर युद्ध करने अथवा न करनेकी और विजय प्राप्‍त करने अथवा न करनेकी अपेक्षा भी ‘मेरा कल्याण कैसे हो’इसकी विशेष चिन्ता है । उनके अन्तःकरणमें युद्धकी तथा विजय प्राप्‍त करनेकी अपेक्षा भी कल्याणका अधिक महत्त्व है । अतः प्रस्तुत श्‍लोकसे पहले भी अर्जुन दो बार अपने कल्याणकी बात पूछ चुक हैं (गीता २ । ७, ३ । २) ।

രരരരരരരരരര