।। श्रीहरिः ।।

 


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन पूर्णिमा, वि.सं.-२०८०, शनिवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने बताया कि ज्ञानके द्वारा संशयका नाश होता है और समताके द्वारा कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है, अब आगेके श्‍लोकमें भगवान् ज्ञानके द्वारा अपने संशयका नाश करके समतामें स्थित होनेके लिये अर्जुनको आज्ञा देते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒कर्मयोगके अनुष्‍ठानकी आज्ञा ।

      तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्‍स्थं  ज्ञानासिनात्मनः ।

   छित्त्वैनं  संशयं  योगमातिष्‍ठोत्तिष्‍ठ  भारत ॥ ४२ ॥

अर्थइसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! हृदयमें स्थित इस अज्ञानसे उत्पन्‍न अपने संशयका ज्ञानरूप तलवारसे छेदन करके योग (समता)-में स्थित हो जा और (युद्धके लिये) खड़ा हो जा ।

तस्मात् = इसलिये

संशयम् = संशयका

भारत = हे भरतवंशी अर्जुन !

ज्ञानासिना = ज्ञानरूप तलवारसे

हृत्‍स्थम् = हृदयमें स्थित

छित्त्वा = छेदन करके

एनम् = इस

योगम् = योग (समता)-में

अज्ञानसम्भूतम्=अज्ञानसे उत्पन्‍न

आतिष्‍ठ = स्थित हो जा (और)

आत्मनः = अपने

उत्तिष्‍ठ = (युद्धके लिये) खड़ा हो जा ।

व्याख्या‘तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्‍स्थं ज्ञानासिनात्मनः । छित्त्वैनं संशयम्पूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने यह सिद्धान्त बताया कि जिसने समताके द्वारा समस्त कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है और ज्ञानके द्वारा समस्त संशयोंको नष्‍ट कर दिया है, उस आत्मपरायण कर्मयोगीको कर्म नहीं बाँधते अर्थात् वह जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है । अब भगवान् ‘तस्मात् पदसे अर्जुनको भी वैसा ही जानकर कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं ।

अर्जुनके हृदयमें संशय थायुद्धरूप घोर कर्मसे मेरा कल्याण कैसे होगा ? और कल्याणके लिये मैं कर्मयोगका अनुष्‍ठान करूँ अथवा ज्ञानयोगका ? इस श्‍लोकमें भगवान् इस संशयको दूर करनेकी प्रेरणा करते हैं; क्योंकि संशयके रहते हुए कर्तव्यका पालन ठीक तरहसे नहीं हो सकता ।

‘अज्ञानसम्भूतम् पदका भाव है कि सब संशय अज्ञानसे अर्थात् कर्मोंके और योगके तत्त्वको ठीक-ठीक न समझनेसे ही उत्पन्‍न होते हैं । क्रियाओं और पदार्थोंको अपना और अपने लिये मानना ही अज्ञान है । यह अज्ञान जबतक रहता है, तबतक अन्तःकरणमें संशय रहते हैं; क्योंकि क्रियाएँ और पदार्थ विनाशी हैं और स्वरूप अविनाशी है ।

तीसरे अध्यायमें कर्मयोगका आचरण करनेकी और इस चौथे अध्यायमें कर्मयोगको तत्त्वसे जाननेकी बात विशेषरूपसे आयी है । कारण कि कर्म करनेके साथ-साथ कर्मको जाननेकी भी बहुत आवश्यकता है । ठीक-ठीक जाने बिना कोई भी कर्म बढ़िया रीतिसे नहीं होता । इसके सिवाय अच्छी तरह जानकर कर्म करनेसे जो कर्म बाँधनेवाले होते हैं, वे ही कर्म मुक्त करनेवाले हो जाते हैं (गीताचौथे अध्यायका सोलहवाँ और बत्तीसवाँ श्‍लोक) । इसलिये इस अध्यायमें भगवान्‌ने कर्मोंको तत्त्वसे जाननेपर विशेष जोर दिया है ।

पूर्वश्‍लोकमें भी ‘ज्ञानसञ्छिन्‍नसंशयम् पद इसी अर्थमें आया है । जो मनुष्य कर्म करनेकी विद्याको जान लेता है, उसके समस्त संशयोंका नाश हो जाता है । कर्म करनेकी विद्या हैअपने लिये कुछ करना ही नहीं है ।

‘योगमातिष्‍ठोत्तिष्‍ठ भारतअर्जुन अपने धनुष-बाणका त्याग करके रथके मध्यभागमें बैठ गये थे (पहले अध्यायका सैंतालीसवाँ श्‍लोक) । उन्होंने भगवान्‌से साफ कह दिया था कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’‒‘न योत्स्ये’ (गीता २ । ९) यहाँ भगवान् अर्जुनको योगमें स्थित होकर युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा देते हैं । यही बात भगवान्‌ने दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्‍लोकमें ‘योगस्थः कुरु कर्माणि (योगमें स्थित होकर कर्तव्य-कर्म कर) पदोंसे भी कही थी । योगका अर्थ ‘समताहैसमत्वं योग उच्‍चते’ (गीता २ । ४८)

अर्जुन युद्धको पाप समझते थे (गीतापहले अध्यायका छत्तीसवाँ और पैंतालीसवाँ श्‍लोक) । इसलिये भगवान् अर्जुनको समतामें स्थित होकर युद्ध करनेकी आज्ञा देते हैं; क्योंकि समतामें स्थित होकर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगता (गीतादूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्‍लोक) । इसलिये समतामें स्थित होकर कर्तव्य-कर्म करना ही कर्म-बन्धनसे छूटनेका उपाय है ।

संसारमें रात-दिन अनेक कर्म होते रहते हैं, पर उन कर्मोंमें राग-द्वेष न होनेसे हम संसारके उन कर्मोंसे बँधते नहीं, प्रत्युत निर्लिप्‍त रहते हैं । जिन कर्मोंमें हमारा राग या द्वेष हो जाता है, उन्हीं कर्मोंसे हम बँधते हैं । कारण कि राग या द्वेषसे कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध जुड़ जाता है । जब राग-द्वेष नहीं रहते अर्थात् समता आ जाती है, तब कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध नहीं जुड़ता; अतः मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

अपने स्वरूपको देखें तो उसमें समता स्वतःसिद्ध है । विचार करें कि प्रत्येक कर्मका आरम्भ होता है और समाप्‍ति होती है । उन कर्मोंका फल भी आदि और अन्तवाला होता है । परन्तु स्वरूप निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है । कर्म और फल अनेक होते हैं, पर स्वरूप एक ही रहता है । अतः कोई भी कर्म अपने लिये न करनेसे और किसी भी पदार्थको अपना और अपने लिये न माननेसे जब क्रिया-पदार्थरूप संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब स्वतःसिद्ध समताका अपने-आप अनुभव हो जाता है ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्‍त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसन्‍न्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

इस प्रकार ॐ, तत्, सत्इन भगवन्‍नामोंके उच्‍चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्‍त्रमय श्रीमद्भगवद्‌गीतोपनिषद्‌रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें ज्ञानकर्मसन्‍न्यासयोग नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥

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तत्त्वज्ञानकी प्राप्‍तिके लिये कर्मयोग और सांख्ययोगका वर्णन होनेसे इस चौथे अध्यायका नाम ‘ज्ञानकर्मसंन्यासयोगहै ।

चौथे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच

() इस अध्यायमें ‘अथ चतुर्थोऽध्यायः के तीन, ‘अर्जुन उवाच आदि पदोंके छः, श्‍लोकोंके पाँच सौ ग्यारह और पुष्पिकाके तेरह पद हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण पदोंका योग पाँच सौ तैंतीस है ।

() इस अध्यायमें ‘अथ चतुर्थोऽध्यायः के सात, ‘अर्जुन उवाच आदि पदोंके बीस, श्‍लोकोंके एक हजार तीन सौ चौवालीस और पुष्पिकाके पचास अक्षर हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण अक्षरोंका योग एक हजार चार सौ इक्‍कीस है । इस अध्यायके सभी श्‍लोक बत्तीस अक्षरोंके हैं ।

() इस अध्यायमें तीन उवाच हैंदो श्रीभगवानुवाच और एक ‘अर्जुन उवाच

चौथे अध्यायमें प्रयुक्त छ्न्द

इस अध्यायके बयालीस श्‍लोकोंमेंसेइकतीसवें और अड़तीसवें श्‍लोकके प्रथम चरणमें तथा दूसरे, दसवें, तेरहवें और चालीसवें श्‍लोकके तृतीय चरणमें ‘नगणप्रयुक्त होनेसे ‘न-विपुला;’ छठे श्‍लोकके प्रथम चरणमें ‘रगणप्रयुक्त होनेसे ‘र-विपुला; और चौबीसवें श्‍लोकके प्रथम चरणमें तथा तीसवें श्‍लोकके तृतीय चरणमें ‘भगणप्रयुक्त होनेसे ‘भ-विपुला संज्ञावाले छन्द हैं । शेष तैंतीस श्‍लोक ठीक ‘पथ्यावक्त्र अनुष्‍टुप् छन्दके लक्षणोंसे युक्त हैं ।

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