।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒भगवान्‌ने तैंतीसवें श्‍लोकसे ज्ञानयोगका प्रकरण आरम्भ करते हुए ज्ञान-प्राप्‍तिका उपाय तथा ज्ञानकी महिमा बतायी । जो ज्ञान गुरूके पास रहकर उनकी सेवा आदि करनेसे होता है, वही ज्ञान कर्मयोगसे सिद्ध हुए मनुष्यको अपने-आप प्राप्‍त हो जाता हैऐसा बताकर भगवान्‌ने ज्ञानप्राप्‍तिके पात्र-अपात्रका वर्णन करते हुए प्रकरणका उपसंहार किया ।

अब प्रश्‍न होता है कि सिद्ध होनेके लिये कर्मयोगीको क्या करना चाहिये ? इसका उत्तर भगवान् आगेके श्‍लोकमें देते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒संशयरहित कर्मयोगीका कर्मोंसे निर्लप्‍त रहना ।

       योगसन्‍न्यस्तकर्माणं  ज्ञानसञ्‍छिन्‍नसंशयम् ।

   आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्‍नन्ति धनञ्‍जय ॥ ४१ ॥

अर्थहे धनंजय ! योग (समता)-के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और विवेकज्ञानके द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयोंका नाश हो गया है, ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते ।

धनञ्‍जय = हे धनंजय !

कर्माणि = कर्म

योगसन्‍न्यस्तकर्माणम् = योग (समता)-के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है (और)

न = नहीं

ज्ञानसञ्‍छिन्‍नसंशयम् = विवेकज्ञानके द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयोंका नाश हो गया है, (ऐसे)

निबध्‍नन्ति = बाँधते ।

आत्मवन्तम् = स्वरूप-परायण मनुष्यको

 

 व्याख्या‘योगसन्‍न्यस्तकर्माणम्शरीर, इन्द्रियाँ मन, बुद्धि आदि जो वस्तुएँ हमें मिली हैं और हमारी दीखती हैं, वे सब दूसरोंकी सेवाके लिये ही हैं, अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं । इस दृष्‍टिसे जब उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें (उनका ही मानकर) लगा दिया जाता है, तब कर्मों और वस्तुओंका प्रवाह संसारकी ओर ही हो जाता है और अपनेमें स्वतःसिद्ध समताका अनुभव हो जाता है । इस प्रकार योग (समता)-के द्वारा जिसने कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है, वह पुरुष ‘योगसन्‍न्यस्तकर्मा है ।

जब कर्मयोगी कर्ममें अकर्म तथा अकर्ममें कर्म देखता है अर्थात् कर्म करते हुए अथवा न करते हुएदोनों अवस्थाओंमें नित्य-निरन्तर असंग रहता है, तब वही वास्तवमें ‘योगसन्‍न्यस्तकर्मा होता है ।

ज्ञानसञ्‍छिन्‍नसंशयम्मनुष्यके भीतर प्रायः ये संशय रहते हैं कि कर्म करते हुए ही कर्मोंसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कैसे होगा ? अपने लिये कुछ न करें तो अपना कल्याण कैसे होगा ? आदि । परन्तु जब वह कर्मोंके तत्त्वको अच्छी तरह जान लेता है ,

१.कर्मोंके तत्त्वका वर्णन इसी अध्यायके सोलहवेंसे बत्तीसवें श्‍लोकतकके प्रकरणमें विशेषतासे हुआ है । इसमें भी अठारहवाँ श्‍लोक मुख्य है ।

तब उसके समस्त संशय मिट जाते हैं । उसे इस बातका स्पष्‍ट ज्ञान हो जाता है कि कर्मों और उनके फलोंका आदि और अन्त होता है, पर स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है । इसलिये कर्ममात्रका सम्बन्ध ‘पर’ (संसार) के साथ है, ‘स्व’ (स्वरूप) के साथ बिलकुल नहीं । इस दृष्‍टिसे अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । इससे सिद्ध होता है कि अपना कल्याण दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ही होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं ।

आत्मवन्तम्कर्मयोगीका उद्‍देश्य स्वरूपबोधको प्राप्‍त करनेका होता है, इसलिये वह सदा स्वरूपके परायण रहता है । उसके सम्पूर्ण कर्म संसारके लिये ही होते हैं । सेवा तो स्वरूपसे ही दूसरोंके लिये होती है, खाना-पीना, सोना-बैठना आदि जीवन-निर्वाहकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भी दूसरोंके लिये ही होती हैं; क्योंकि क्रियामात्रका सम्बन्ध संसारके साथ है, स्वरूपके साथ नहीं ।

न कर्माणि निबध्‍नन्तिअपने लिये कोई भी कर्म न करनेसे कर्मयोगीका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् वह सदाके लिये संसार-बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जाता है (गीताचौथे अध्यायका तेईसवाँ श्‍लोक)

कर्म स्वरूपसे बन्धनकारक हैं ही नहीं । कर्मोंमें फलेच्छा, ममता, आसक्ति और कर्तृत्वाभिमान ही बाँधनेवाला है ।

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