।। श्रीहरिः ।।

   


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धजो ज्ञानप्राप्‍तिका अपात्र है, ऐसे विवेकहीन संशयात्मा मनुष्यकी भगवान् आगेके श्‍लोकमें निन्दा करते हैं ।

सूक्ष्म विषयविवेकहीन संशयात्माका पतन ।

     अज्ञश्‍चाश्रद्दधानश्‍च  संशयात्मा  विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ४० ॥

अर्थविवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है । ऐसे संशयात्मा मनुष्यके लिये न तो यह लोक (हितकारक) है, न परलोक (हितकारक) है और न सुख ही है ।

अज्ञः = विवेकहीन

लोकः = लोक (हितकारक)

च = और

अस्ति = है,

अश्रद्दधानः = श्रद्धारहित

न = न

संशयात्मा = संशयात्मा मनुष्यका

परः = परलोक (हितकारक) है

विनश्यति = पतन हो जाता है । (ऐसे)

च = और

संशयात्मनः = संशयात्मा मनुष्यके लिये

न = न

न = न तो

सुखम् = सुख (ही) है ।

अयम् = यह

 

व्याख्या‘अज्ञश्‍चाश्रद्दधानश्‍च संशयात्मा विनश्यतिजिस पुरुषका विवेक अभी जाग्रत् नहीं हुआ है तथा जितना विवेक जाग्रत् हुआ है, उसको महत्त्व नहीं देता और साथ ही जो अश्रद्धालु है, ऐसे संशययुक्त पुरुषका पारमार्थिक मार्गसे पतन हो जाता है । कारण कि संशययुक्त पुरुषकी अपनी बुद्धि तो प्राकृतशिक्षारहित है और दूसरेकी बातका आदर नहीं करता, फिर ऐसे पुरुषके संशय कैसे नष्‍ट हो सकते हैं ? और संशय नष्‍ट हुए बिना उसकी उन्‍नति भी कैसे हो सकती है ?

अलग-अलग बातोंको सुननेसे ‘यह ठीक है अथवा वह ठीक है ?’‒इस प्रकार सन्देहयुक्त पुरुषका नाम संशयात्मा है । पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले साधकमें संशय पैदा होना स्वाभाविक है; क्योंकि वह किसी भी विषयको पढ़ेगा तो कुछ समझेगा और कुछ नहीं समझेगा । जिस विषयको कुछ नहीं समझते, उस विषयमें संशय पैदा नहीं होता और जिस विषयको पूरा समझते हैं, उस विषयमें संशय नहीं रहता । अतः संशय सदा अधूरे ज्ञानमें ही पैदा होता है, इसीको अज्ञान कहते हैं

१.अज्ञानका अर्थ ज्ञानका अभाव नहीं है । अधूरे ज्ञानको पूरा ज्ञान मान लेना ही अज्ञान है । कारण कि परमात्माका ही अंश होनेसे जीवमें ज्ञानका सर्वथा अभाव हो ही नहीं सकता, केवल नाशवान् असत्‌की सत्ता मानकर उसे महत्त्व दे देता है, असत्‌को असत् मानकर भी असत्‌से विमुख नहीं होतायही अज्ञान है । इसलिये मनुष्यमें जितना ज्ञान है, यदि उस ज्ञानके अनुसार वह अपना जीवन बना ले, तो अज्ञान सर्वथा मिट जायगा और ज्ञान प्रकट हो जायगा । कारण कि अज्ञानकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं ।

इसलिये संशयका उत्पन्‍न होना हानिकारक नहीं है, प्रत्युत संशयको बनाये रखना और उसे दूर करनेकी चेष्‍टा न करना ही हानिकारक है । संशयको दूर करनेकी चेष्‍टा न करनेपर वह संशय ही ‘सिद्धान्तबन जाता है । कारण कि संशय दूर न होनेपर मनुष्य सोचता है कि पारमार्थिक मार्गमें सब कुछ ढकोसला है और ऐसा सोचकर उसे छोड़ देता है तथा नास्तिक बन जाता है । परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है । इसलिये अपने भीतर संशयका रहना साधकको बुरा लगना चाहिये । संशय बुरा लगनेपर जिज्ञासा जाग्रत् होती है, जिसकी पूर्ति होनेपर संशय-विनाशक ज्ञानकी प्राप्‍ति होती है ।

साधकका लक्षण हैखोज करना । यदि वह मन और इन्द्रियोंसे देखी बातको ही सत्य मान लेता है, तो वहीं रुक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता । साधकको निरन्तर आगे ही बढ़ते रहना चाहिये । जैसे रास्तेपर चलते समय मनुष्य यह न देखे कि कितने मील आगे आ गये, प्रत्युत यह देखे कि कितने मील अभी बाकी पड़े हैं, तब वह ठीक अपने लक्ष्यतक पहुँच जायगा । ऐसे ही साधक यह न देखे कि कितना जान लिया अर्थात् अपने जाने हुएपर सन्तोष न करे, प्रत्युत जिस विषयको अच्छी तरह नहीं जानता, उसे जाननेकी चेष्‍टा करता रहे । इसलिये संशयके रहते हुए कभी सन्तोष नहीं होना चाहिये, प्रत्युत जिज्ञासा अग्‍निकी तरह दहकती रहनी चाहिये । ऐसा होनेपर साधकका संशय सन्त-महात्माओंसे अथवा ग्रन्थोंसे किसी--किसी प्रकारसे दूर हो ही जाता है । संशय दूर करनेवाला कोई न मिले तो भगवत्कृपासे उसका संशय दूर हो जाता है ।

विशेष बात

जीवात्मा परमात्माका अंश है‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) इसलिये जब उसमें अपने अंशी परमात्माको प्राप्‍त करनेकी भूख जाग्रत् होती है और उसकी पूर्ति न होनेका दुःख होता है, तब उस दुःखको भगवान् सह नहीं सकते । अतः उसकी पूर्ति भगवान् स्वतः करते हैं । ऐसे ही जब साधकको अपने भीतर स्थित संशयसे व्याकुलता या दुःख होता है, तब वह दुःख भगवान्‌को असह्य होता है । संशय दूर करनेके लिये भगवान्‌से प्रार्थना नहीं करनी पड़ती, प्रत्युत जिस संशयको लेकर साधकको दुःख हो रहा है, उस संशयको दूर करके भगवान् स्वतः उसका वह दुःख मिटा देते हैं । संशयात्मा पुरुषकी एक पुकार होती है, जो स्वतः भगवान्‌तक पहुँच जाती है ।

संशयके कारण साधककी वास्तविक उन्‍नति रुक जाती है, इसलिये संशय दूर करनेमें ही उसका हित है । भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९), इसलिये जिस संशयको लेकर मनुष्य व्याकुल होता है और वह व्याकुलता उसे असह्य हो जाती है, तो भगवान् उस संशयको किसी भी रीति-उपायसे दूर कर देते हैं । गलती यही होती है कि मनुष्य जितना जान लेता है, उसीको पूरा समझकर अभिमान कर लेता है कि मैं ठीक जानता हूँ । यह अभिमान महान् पतन करनेवाला हो जाता है ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनःइस श्‍लोकमें ऐसे संशयात्मा मनुष्यका वर्णन है, जो ‘अज्ञऔर ‘अश्रद्धालुहै । तात्पर्य यह है कि भीतर संशय रहनेपर भी उस मनुष्यकी न तो अपनी विवेकवती बुद्धि है और न वह दूसरेकी बात ही मानता है । इसलिये उस संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है । उसके लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है ।

२.  कुछ श्रद्धा, कुछ दुष्‍टता, कुछ संशय, कुछ ज्ञान ।

    घरका  रहा  न घाटका, ज्यों  धोबीका श्‍वान ॥

संशयात्मा मनुष्यका इस लोकमें व्यवहार बिगड़ जाता है । कारण कि वह प्रत्येक विषयमें संशय करता है, जैसेयह आदमी ठीक है या बेठीक है ? यह भोजन ठीक है या बेठीक है ? इसमें मेरा हित है या अहित है ? आदि । उस संशयात्मा मनुष्यको परलोकमें भी कल्याणकी प्राप्‍ति नहीं होती; क्योंकि कल्याणमें निश्‍चयात्मिका बुद्धिकी आवश्यकता होती है और संशयात्मा मनुष्य दुविधामें रहनेके कारण कोई एक निश्‍चय नहीं कर सकता; जैसेजप करूँ या स्वाध्याय करूँ ? संसारका काम करूँ या परमात्मप्राप्‍ति करूँ ? आदि । भीतर संशय भरे रहनेके कारण उसके मनमें भी सुख-शान्ति नहीं रहती । इसलिये विवेकवती बुद्धि और श्रद्धाके द्वारा संशयको अवश्य ही मिटा देना चाहिये ।

दो अलग-अलग बातोंको पढ़ने-सुननेसे संशय पैदा होता है । वह संशय या तो विवेक-विचारके द्वारा दूर हो सकता है या शास्‍त्र तथा सन्त-महापुरुषोंकी बातोंको श्रद्धापूर्वक माननेसे । इसलिये संशययुक्त पुरुषमें यदि अज्ञता है तो वह विवेक-विचारको बढ़ाये और यदि अश्रद्धा है तो श्रद्धाको बढ़ाये; क्योंकि इन दोनोंमेंसे किसी एकको विशेषतासे अपनाये बिना संशय दूर नहीं होता ।

परिशिष्‍ट भावज्ञान हो तो संशय मिट जाता है‘ज्ञानसंछिन्‍नसंशयम्’ (गीता ४ । ४१) और श्रद्धा हो तो भी संशय मिट जाता है‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्’ (गीता ४ । ३९) परन्तु ज्ञान और श्रद्धाये दोनों ही न हों तो संशय नहीं मिट सकता । इसलिये जिस संशयात्मा मनुष्यमें न तो ज्ञान (विवेक) है और न श्रद्धा ही है अर्थात् जो न तो खुद जानता है और न दूसरेकी बात मानता है, उसका पतन हो जाता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याविवेक और श्रद्धाकी आवश्यकता सभी साधनोंमें है । संशयात्मा मनुष्यमें विवेक और श्रद्धा नहीं होते अर्थात् न तो वह खुद जानता है और न दूसरेकी बात मानता है । ऐसे मनुष्यका पारमार्थिक मार्गसे पतन हो जाता है । उसका यह लोक भी बिगड़ जाता है और परलोक भी ।

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