।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख अमावस्या, वि.सं. २०७६ शनिवार
अपने प्रभुको कैसे पहचानें ?
        



सन्तोंने कहा है

सब जग ईश्वर रूप है, भलो बुरो नहिं कोय ।
जैसी  जाकी  भावना,  तैसो  ही  फल होय ॥

यह सम्पूर्ण संसार साक्षात् परमात्माका स्वरूप है । इसमें भला-बुरा, अच्छा-मन्दा, गुण-दोष आदि दो चीजें हैं ही नहीं । रामायणमें आया है

सुनहु  तात माया  कृत  गुन  अरु  दोष  अनेक ।
गुन यह उभय न देखअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥
                                        (मानस, उत्तरकाण्ड ४१)

तात्पर्य है कि गुण और दोष मायाकृत हैं, भगवान्‌में नहीं हैं । जो लोग मायासे मोहित हैं, उन्हींकी दृष्टिमें ये दोनों भगवान्‌में दीखते हैं । असली गुण हैगुण और दोष दोनोंको ही न देखना‘गुन यह उभय न देखिअहिं’ । इन दोनोंका देखना अविवेक है ।

‘गुन यह उभय न देखिअहिं’ के दो अर्थ होते हैं(१) गुण और दोषको न देखकर गुण-ही-गुण देखना, और (२) गुण और दोषको न देखकर परमात्माको ही देखना, जो कि गुण-दोषसे रहित और गुणातीत है । गुण और दोषको देखना अविवेक है, अज्ञान है, मूर्खता है, जडता है‘देखिअ सो अबिबेक’ । कारण कि वास्तवमें संसार साक्षात् भगवान्‌ ही है‘सब जग ईश्वररूप है’ । यह ईश्वरका सर्वोपरि रूप है ! ईश्वर भला और बुरादो नहीं हो सकता । ईश्वर एक ही होता है ।

भगवान्‌ गीतामें कहते हैं

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
                                                     (४/११)

‘जो जिस भावसे मेरा भजन करते हैं, मैं भी उसी भावसे उनका भजन करता हूँ ।’

अतः हम भले और बुरेदो रूपोंको देखते हैं तो भगवान्‌ भी भले और बुरेदो रूपोंसे प्रकट हो जाते हैं और हम भले-बुरेको न देखकर भगवान्‌को देखते हैं तो भगवान्‌ भी अपने वास्तविक रूपमें प्रकट हो जाते हैं

जिन्ह कें रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
                             (मानस, बाल. २४१/२)


एक सन्त थे । कोई उनसे कहता कि ‘महाराज ! आप तो बहुत बड़े महात्मा है’ तो वे कहते‘रामजी !’ कोई कहता कि ‘आप बड़े ठग हैं’ तो वे कहते‘रामजी !’ कोई कहता कि ‘आप तो बहुत बुरे हैं’ तो वे कहते ‘रामजी !’ तात्पर्य है कि सब कुछ रामजी ही हैं, फिर उसमें क्या अच्छा और क्या बुरा ? ‘जैसी जाकी भावना, तैसो ही फल होय’भावना ही करनी हो तो बढ़िया भावना करें, घटिया भावना क्यों करें ? मनके लड्डू बनायें तो उसमें घी और चीनी कम क्यों डालें ? इसमें कौन-सा खर्च लगता है ? इसलिए बढ़िया-से-बढ़िया भावना करनी चाहिये । वह बढ़िया-से-बढ़िया भावना है‘वासुदेवः सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ परमात्मा-ही-परमात्मा हैं । यह कोरी भावना ही नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है । इसको स्वीकार करनेमें न तो कोई परिश्रम करना पड़ता है और न अपनेमें कोई विशेष योग्यता लानी पड़ती है, फिर इसको माननेमें क्या बाधा है ? यह सरल-से-सरल और ऊँचा-से-ऊँचा साधन है ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं. २०७६ शुक्रवार
भगवद्भक्तिका रहस्य
        



यहाँ हमें भक्त हनुमान् और राजा सुरथके भक्तिभावपूर्वक किये हुए स्मरणके प्रभावपर ध्यान देना चाहिये । उनकी अनन्य भक्तिसे आकृष्ट होकर भगवान्‌ तुरंत वहाँ पहुँच गये । भगवान्‌के प्रेमपूर्वक अनन्य स्मरणका बड़ा भारी माहात्मय है । भक्त सुधन्वाकी कथा देखिये, भगवान्‌के स्मरणके प्रभावसे अत्यंत प्रतप्त तेल भी उनके लिये अतिशय शीतल हो गया तथा अर्जुनके साथ युद्ध करते समय भी उनमें जगह-जगह भगवत्स्मरणका प्रभाव दिखायी पड़ता है ।

जब अर्जुनने भगवान्‌का स्मरण करके तीन बाण निकालकर प्रतिज्ञा की कि इन तीन ही बाणोंसे मैं सुधन्वाका मस्तक काट डालूँगा; यदि ऐसा न कर सकूँ तो मेरे पूर्वज पुण्यहीन होकर नरकमें गिर पड़ें तब ठीक इससे विरुद्ध सुधन्वाने भगवान्‌का स्मरण करके प्रतिज्ञा की कि इन तीनों बाणोंको मैं अपने बाणोंसे काट डालूँगा, यदि ऐसा न कर सकूँ तो मुझे घोर गति प्राप्त हो । भगवान्‌ने इन दोनों ही भक्तोंकी भगवत्स्मरणपूर्वक की गयी प्रतिज्ञाको सच्‍चा किया । भक्त अर्जुनकी रक्षाके लिये भगवान्‌ने पहले बाणको अपने गोवर्धनका पुण्य अर्पित करके बाण छोड़नेका अर्जुनको आदेश दिया । अर्जुनने तदनुसार बाण छोड़ा किन्तु सुधन्वाने भगवान्‌को याद करके अपने बाणसे उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये, तब भगवान्‌ने अर्जुनको दूसरा बाण सन्धान करनेकी आज्ञा दी और साथ ही उसे अपने अन्य अनेक पुण्य अर्पण किये । अर्जुनके दूसरा बाण छोड़ते ही सुधन्वाने उसे भी भगवान्‌का स्मरण करके काट डाला । अब तीसरा बाण रहा, भगवान्‌ने उसे अपने रामावतारका पुण्य अर्पण कर दिया तथा उसके पिछले भागमें ब्रह्माजी और बीचमें कालको जोड़कर अग्रभागमें स्वयं आ विराजे एवं अर्जुनको बाण चलानेकी आज्ञा दी । जब अर्जुनने तीसरा बाण छोड़ा, तब सुधन्वाने भगवान्‌से कहा–‘भगवन्‌ ! आप स्वयं इस बाणमें विराजमान हैं, यह मैं जान गया हूँ । अब आप मुझे अपने चरणोंमें आश्रय देकर कृतार्थ करें ।’ यों कहकर भगवान्‌का स्मरण करते हुए उन्होंने अपने बाणसे उसके भी दो टुकड़े कर दिये । उन दो टुकड़ोंमेंसे पिछला भाग पृथ्वीपर गिर पड़ा तथा अग्रभागवाला टुकड़ा जिसपर भगवान् श्रीकृष्ण विराजे थे, उछला और उसने सुधन्वाका मस्तक काट डाला । सुधन्वाका सिर कटकर भगवान्‌के चरणोंमें आ गिरा । अपने सम्मुख भगवान्‌का दर्शन करते हुए उसके मुखसे एक ज्योति निकलकर भगवान्‌में प्रवेश कर गयी ।

अतएव भगवत्स्मृतिके प्रभावको लक्ष्यमें रखकर हमें भी प्रत्येक क्रिया भगवान्‌का स्मरण रखते हुए ही करनी चाहिये । सांसारिक कार्य करते हुए भी नित्य-निरन्तर भगवान्‌का स्मरण होते रहना चाहिये । परन्तु जब एकान्तमें भगवान्‌का भजन, स्मरण, सेवा-पूजा आदि नित्यकर्मके लिये बैठें, उस समय तो संसारका स्मरण किंचित भी न हो–ऐसा विशेष खयाल रखनेकी आवश्यकता है । भगवत्स्मरण नित्य-निरन्तर होनेके लिये भगवान्‌में अनन्य प्रेम, सत्पुरुषोंका संग, सच्छास्त्रोंका मननपूर्वक स्वाध्याय, भगवान्‌के नामका जप, भगवान्‌की स्तुति-प्रार्थना, भगवत्कृपासे निरन्तर स्मृति बनी रहनेका दृढ़ विश्वास और हर समय सावधानीपूर्वक उस स्मृतिको बनाये रखनेकी चेष्टा–ये सात विशेष सहायक हैं । इन सातोंका अनुष्ठान करते हुए जो एकमात्र भगवान्‌का ही अनन्य स्मरण करता है, उसकी सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओंका नाश हो जाता है और उसे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है । भगवान्‌के स्मरणका प्रभाव और महात्म्य क्या बतलाया जाय–

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् ।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥

‘जिसके स्मरणमात्रसे मनुष्य आवागमनरूप बन्धनसे छूट जाता है, सबको उत्पन्न करनेवाले उस परम प्रभु श्रीविष्णुको बार-बार नमस्कार है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


–‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं. २०७६ गुरुवार
भगवद्भक्तिका रहस्य
        



भक्तिमें प्रधान बात है–भगवान्‌का होकर नित्य-निरन्तर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक निष्कामभावसे उन्हींका स्मरण-चिन्तन करते रहना । स्मरणका बड़ा भारी अद्भुत प्रभाव है । भक्तोंकी कथाओंमें प्रायः यही बात विशेष मिलती है कि जहाँ भी जिस भक्तने भगवान्‌को विह्वल होकर भगवान्‌का दृढ़ स्मरण किया, वहाँ भगवान्‌ प्रत्यक्ष प्रकट हो गये ।

पद्मपुराणके रामाश्वमेधमें हनुमान्‌जीकी एक बड़ी महत्वपूर्ण धटनाका उल्लेख मिलता है । भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजीका अश्वमेध-यज्ञके लिये छोड़ा हुआ घोड़ा अनेक देश-देशान्तरोंमें भ्रमण करता हुआ जब रामभक्त राजा सुरथके कुण्डलनगरमें पहुँचा, तब राजाने भगवान्‌के दर्शनकी लालसासे उस घोड़ेको पकड़वा लिया । जब अश्वरक्षक शत्रुघ्न आदिको घोड़ेके पकड़े जानेका पता लगा, तब उन्होंने उनसे युद्ध करके अश्वको छुड़ा लानेका विचार किया । इतनेमें ही धर्मात्मा सुरथ और उनके राजकुमार चम्पक भी रणभूमिमें पहुँच गये तथा दोनों ओरके सैनिक आपसमें लड़ने लगे । राजकुमार चम्पकने भरतकुमार पुष्कलको रामास्त्रका प्रयोग करके बाँध लिया । यह देखकर श्रीहनुमान्‌जीने चम्पकके सामने जाकर युद्ध किया तथा चम्पकको युद्धभूमिमें गिराकर मूर्च्छित कर दिया और पुष्कलको बन्धनसे छुड़ा लिया ।

इसपर राजा सुरथाने श्रीहनुमान्‌जीकी रामभक्तिकी बड़ी प्रशंसा की और वे उनसे युद्ध करने लगे । जब राजाके छोड़े हुए ब्रह्मास्त्रको हनुमान्‌जी निगल गये, तब राजाने श्रीरघुनाथजीका स्मरण करके रामास्त्रका प्रयोग किया । उस समय हनुमान्‌जी बोले–‘राजन ! क्या करूँ, तुमने मेरे स्वामीके अस्त्रसे ही मुझे बाँधा है; अतः मैं इसका आदर करता हूँ । अब तुम मुझे इच्छानुसार अपने नगरमें ले जाओ । मेरे प्रभु दयासागर हैं, वे स्वयं ही आकर मुझे छुड़ायेंगे ।’

श्रीहनुमान्‌जीके बाँधे जानेपर पुष्कलने राजासे युद्ध किया, किन्तु वे अन्तमें मूर्च्छित होकर गिर पड़े । तब शत्रुघ्नने राजासे बहुत देरतक युद्ध किया, पर वे भी राजाके बाणके आघातसे मूर्च्छित होकर रथपर गिर पड़े । यह देखकर सुग्रीव उनसे लड़ने लगे, पर राजाने उनको भी रामास्त्रका प्रयोग करके बाँध लिया ।

तदन्तर राजा सुरथ उन सबको रथमें डालकर अपने नगरमें ले गये । वहाँ जाकर वे राजसभामें बैठे और बँधे हुए हनुमान्‌जीसे बोले–‘पवनकुमार ! अब तुम भक्तोंके रक्षक परम दयालु श्रीरघुनाथजीका स्मरण करो, जिससे संतुष्ट होकर वे तुम्हें तत्काल बन्धनमुक्त कर दें ।’ श्रीहनुमान्‌जीने अपने सहित सब वीरोंको बँधा देखकर कमलनयन परम कृपालु श्रीरामचन्द्रजीका अनन्यभावसे स्मरण किया । वे मन-ही-मन कहने लगे–

          हा नाथ हा नरवरोत्तम हा दयालो
                            सीतापते रुचिरकुण्डलशोभिवक्त्र ।
           भक्तार्तिदाहक मनोहररूपधारिन्
                         मां बन्धनात् सपदि मोचय मा विलम्बम् ॥
                                          (पद्मपुराण, पातालखण्ड ५३/१४)

‘हा नाथ ! हा पुरुषोत्तम ! हा सुन्दर कुण्डलसे सुशोभित वदनवाले, भक्तोंके दुःख दूर करनेवाले तथा मनोहर विग्रह धारण करनेवाले दयालु सीतापते ! मुझे इस बन्धनसे शीघ्र मुक्त कीजिये, देर न लगाइये ।’

श्रीहनुमान्‌जीके इस प्रकार प्रार्थना करते ही तुरंत भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजी पुष्पक विमानपर आरूढ़ होकर वहाँ आ पहुँचे । भगवान्‌को पधारे देख राजा सुरथ प्रेममग्न हो गये और उन्होंने भगवान्‌को सैकड़ों बार प्रणाम किया । श्रीरामने चतुर्भुजरूप धारण करके अपने भक्त सुरथको छातीसे लगा लिया और आनन्दाश्रुओंसे उसका मस्तक अभिषिक्त करते हुए कहा–‘राजन् ! तुम धन्य हो, आज तुमने बड़ा पराक्रम दिखाया है ।’ फिर भगवान्‌ने श्रीहनुमान्‌, सुग्रीव, शत्रुघ्न, पुष्कल आदि सभी योद्धाओंपर दयादृष्टि डालकर उन्हें बन्धन और मूर्च्छासे मुक्त किया । उन्होंने उठकर भगवान्‌को प्रणाम किया । राजा सुरथने प्रसन्नतापूर्वक अपना राज्य भगवान्‌ रामको समर्पित कर दिया । भगवान्‌ तीन दिन कुण्डलनगरमें रहे, फिर राजा सुरथको ही राज्य सौंपकर उनकी सम्मति ले वहाँसे चले गये । तब राजा सुरथ अपने राजकुमार चम्पकको राज्यभार देकर शत्रुघ्नके साथ अश्वकी रक्षाके लिये चल पड़े ।


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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं. २०७६ बुधवार
भगवद्भक्तिका रहस्य
        



उन सर्वेश्वर प्रभुमें भक्तका हृदय धारावाहिकरूपसे तन्मय हो जाता है । इस प्रकार हृदयकी तल्लीनता तो मारीच, कंस, शिशुपाल आदिकी भाँती भय और द्वेषके कारण भी हो सकती है । किन्तु वह तल्लीनता भक्तिमें परिणत नहीं हो सकती; क्योंकि उसे भक्तिरसके आनन्दका अनुभव नहीं होता । जैसे कोई व्यक्ति सर्वलोकपावनी गंगाजीमें वैशाखमासमें स्नान करता है तो गंगास्नानसे उसके पापोंका नाश होकर अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और उसे स्नान करनेमें भी प्रत्यक्ष ही अपूर्व रसानुभूति–आनन्दानुभव होता है, किन्तु जो माघमासमें गंगास्नान करता है, उसके पापोंका तो अवश्य नाश हो जाता है, पर शीतके कारण उसे स्नान करनेमें आनन्द नहीं आता, प्रत्युत उसका आनन्दांश तिरस्कृत होकर उसे कष्टका अनुभव होता है । इसी तरह भय-द्वेष आदिके कारण भगवदाकार अन्तःकरणवालोंका आनन्दांश तिरोहित होकर उनका हृदय दुःखित और चिन्तित रहता है । इसलिए उनके अन्तःकरणकी तदाकारता भक्तिमें शामिल नहीं है । अतः भगवान्‌के प्रति आत्मीयताको लेकर दृढ़ विश्वास और प्रेमपूर्वक जो अन्तःकरणका भगवदाकार हो जाना है, वही भक्ति है । किन्तु नास्तिकोंकी अपेक्षा तो भय-द्वेष आदिको लेकर भगवान्‌का चिन्तन करनेवाले भी अच्छे हैं । फिर उनका तो कहना ही क्या है जो भगवान्‌का श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निरन्तर निष्काम अनन्य भजन करते हैं । जिस प्रकार गंगाकी चाल स्वाभाविक ही निरन्तर समुद्रकी ओर है, इसमें न तो उसका अपना कोई प्रयोजन है और न वह कहीं ठहरती ही है, इसी प्रकार अनन्य भक्त न तो कुछ चाहता ही है और न कहीं भगवत्स्मरणसे विराम ही लेते हैं; वे तो नित्य-निरन्तर निष्कामभावसे भजन ही करते रहते हैं । श्रीनारदजीने भी कहा है–‘भक्त एकान्तिनो मुख्याः’ (नारदभक्तिसूत्र-६७)

(४) एकमात्र भगवान्‌को इष्ट मानकर उन्हींकी अनन्य भक्ति करना ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है । इसलिए सम्पूर्ण जगत्‌को भगवान्‌का स्वरूप समझकर भी ऐसी भक्तिका साधन किया जा सकता है; क्योंकि स्वयं भगवान्‌ ही जगत्‌के रूपमें प्रकट हुए हैं, इसीलिये यह सारा ब्रह्माण्ड भगवान्‌का ही स्वरूप है एवं देवता आदिमें भी भगवान्‌की बुद्धि करके भी भक्ति की जा सकती है और इसका फल भी भगवत्प्राप्ति ही है । इस प्रकारकी भगवान्‌की भक्ति करनेवालेंमें दो बातें प्रधान होनी चाहिये–साधकमें हो निष्कामभाव और उपास्यमें हो भगवद्बुद्धि । इससे भगवान्‌की प्राप्ति निश्चय ही हो जाती है । किन्तु समस्त जगत्‌में भगवद्बुद्धि न होकर भी साधकमें पूर्ण निष्कामभाव हो तो भी उसकी सेवाका फल भगवत्प्राप्ति ही है । भगवान्‌की भक्ति तो सकामभावसे करनेपर भी ध्रुवकी भाँती भगवत्कृपासे अभीष्ट फलकी सिद्धिपूर्वक भगवान्‌की प्राप्ति हो जाती है । यदि कोई देवताओंको देवता मानकर भी निष्कामभावसे केवल भगवद् आज्ञापालनपूर्वक भगवान्‌को प्रसन्न करनेके लिए ही उसकी भक्ति करता है तो उसका फल भी भगवत्प्राप्ति ही होता है । फिर जो स्वयं भगवान्‌की ही निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर अनन्य भक्ति करते हैं, उन अनन्य भक्तोंको भगवान्‌ मिलें–इसमें तो बात ही क्या है ।  भगवान्‌ने गीतामें कहा है–

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
                                                    (८/१४)


‘हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ ।’

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