।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
    माघ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७६ रविवार
          भगवान प्रेमके भूखे हैं


उपनिषदोंमें आता है कि ‘एकाकी न रमते’ । इसका सीधी-सादी भाषामें अर्थ होता है कि भगवान्‌का अकेलेमें मन नहीं लगा । इसलिये उन्होंने सृष्टिकी रचना की । ‘मैं एक ही बहुत रूपोंसे हो जाऊँ’‒ऐसे संकल्पसे भगवान्‌ने मनुष्योंका निर्माण किया । इसका तात्पर्य यह दिखता है कि मनुष्योंका निर्माण भगवान्‌ने केवल अपने लिये किया है । संसारकी रचना चाहे मनुष्यके लिये की हो, पर मनुष्यकी रचना तो केवल अपने लिये ही की है । इसका क्या पता ? भगवान्‌ने मनुष्यको ऐसी योग्यता दी है, जिससे वह तत्त्वज्ञानको प्राप्त करके मुक्त हो सकता है; भक्त हो सकता है; संसारकी सेवा भी कर सकता है और भगवान्‌की सेवा भी कर सकता है । यह संसारकी आवश्यकताकी पूर्ति भी कर सके और भगवान्‌की भूख भी मिटा सके, भगवान्‌को भी निहाल कर सके‒ऐसी सामर्थ्य भगवान्‌ने मनुष्यको दी है ! और किसीको भी ऐसी योग्यता नहीं दी, देवताओंको भी नहीं दी । भगवान्‌को भूख किस बातकी है ? भगवान्‌को प्रेमकी भूख है । प्रेम भगवान्‌को प्रिय लगता है । प्रेम एक ऐसी विलक्षण चीज है, जिसकी आवश्यकता सबको रहती है ।

एक आसक्ति होती है और एक प्रेम होता है । किसीसे हम अपने लिये स्नेह करते हैं, वह ‘आसक्ति’ होती है, राग होता है । रागसे ही कामना, इच्छा, वासना होती है, जो पतन करनेवाली, नरकोंमें ले जानेवाली है । जिसमें दूसरोंको सुख देनेका भाव होता है, वह ‘प्रेम’ होता है । आसक्तिमें लेना होता है और प्रेममें दूसरोंको देना होता है । दूसरोंको सुख देनेकी ताकत मनुष्यमें है । भगवान्‌ने मनुष्यको इतनी ताकत दी है कि वह दुनियामात्रका हित कर सकता है और अपना कल्याण कर सकता है । इतना ही नहीं, मनुष्य भगवान्‌की आवश्यकताकी पूर्ति भी कर सकता है, भगवान्‌के माँ-बाप भी बन सकता है, भगवान्‌का गुरु भी बन सकता है, भगवान्‌का मित्र भी बन सकता है और भगवान्‌का इष्ट भी बन सकता है ! अर्जुनको भगवान्‌ कहते हैं‒‘इष्टोऽसि मे दृढमिति’ (गीता १८/६४) ।


जैसे लड़का अलग हो जाय तो माँ-बाप चाहते हैं कि वह हमारे पास आ जाय, ऐसे ही यह जीव भगवान्‌से अलग हो गया है, इसलिये भगवान्‌को भूख है कि यह मेरी तरफ आ जाय ! इस भूखकी पूर्ति मनुष्य ही कर सकता है, दूसरा कोई नहीं । मनुष्य ही भगवान्‌से प्रेम कर सकता है । देवता तो भोगोंमें लगे हैं, नारकीय जीव बेचारे दुःख पा रहे हैं, चौरासी लाख योनियोंवाले जीवोंको पता ही नहीं कि क्या करें और क्या नहीं करें ? इतना ऊँचा अधिकार प्राप्त करके भी मनुष्य दुःख पाता है तो बड़े भारी आश्चर्यकी बात है ! होश ही नहीं है कि मेरेमें कितनी योग्यता है और भगवान्‌ने मेरेको कितना अधिकार दिया है ! मैं कितना ऊँचा बन सकता हूँ, यहाँतक कि भगवान्‌का भी मुकुटमणि बन सकता हूँ ! आप कृपा करके ध्यान दो कि कितनी विलक्षण बात है ! जितने भक्त हुए हैं मनुष्योंमें ही हुए हैं और इतने ऊँचे दर्जेके हुए हैं कि भगवान्‌ भी उनका आदर करते हैं ! लोग संसारके आदरको ही बड़ा समझते हैं, पर भक्तोंका आदर भगवान्‌ करते हैं, कितनी विलक्षण बात है ! सारथी बन जायँ भगवान्‌ ! नौकर बन जायँ भगवान्‌ ! झूठन उठायें भगवान्‌ ! घरका काम-धंधा करें भगवान्‌ ! जिस तरहसे माता अपने बच्चेका पालन करके प्रसन्न होती है, इसी तरहसे भगवान्‌ भी अपने भक्तका काम करके प्रसन्न होते हैं ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
    माघ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७६ शनिवार
            भक्तिकी सुलभता


अनन्य भावको प्राप्त करनेके लिये यह समझनेकी परम आवश्यकता है कि यह जीवात्मा परमात्मा और प्रकृतिके मध्यमें है और जबतक इसकी उन्मुखता प्रकृतिके कार्यस्वरूप बुद्धि, मन, इन्द्रिय, प्राण, शरीर तथा तत्सम्बन्धी धन, जन आदिकी ओर रहती है, तबतक यह प्राणी अन्यका आश्रय छोड़कर केवल परमात्माका आश्रय नहीं ले सकता । अतः मेरा कोई नहीं है तथा मैं सेवा करनेके लिये समस्त संसारका होते हुए भी वास्तवमें एक परमात्माके सिवा अन्य किसीका नहीं हूँ‒इस प्रकारका दृढ़ निश्चय ही प्राणीको अनन्यचित्तवाला बनानेमें परम समर्थ है । इस प्रकार ‘चेतसा नान्यगामिना’ (८/८); ‘अनन्येनैव योगेन’ (१२/६), ‘मां च योऽव्यभिचारेण’ (१४/२६); ‘अनन्याश्चिन्तयतो माम्’ (९/२२),  ‘मच्चित्ताः’ (१०/९), ‘मन्मना भव’ (९/३४); (१८/६५); ‘मच्चित्तः सततं भव’ (१८/५७); ‘म्क़च्चित्तः सर्वदुर्गाणि’ (१८/५८), ‘मय्येव मन आधत्स्व’ (१२/८) तथा ‘मय्यर्पितमनोबुद्धिः’ (८/७)‒आदि-आदि महत्त्वपूर्ण वाक्योंद्वारा परमात्माकी प्राप्तिरूप फल बतलाकर अनन्यभावसे भगवान्‌के चिन्तन-भजनकी अत्यधिक महिमा गायी गयी है, अस्तु जिसकी धारणामें श्रीभगवान्‌के सिवा अन्य किसीके प्रति महत्त्वबुद्धि नहीं है, वही अनन्यचित्तवाला अर्थात्‌ अनन्यभावसे स्मरण करनेवाला है । अब रहा ‘सततम्’ पद, सो निरन्तर चिन्तन तो प्रभुके साथ अखण्ड नित्य सम्बन्धका ज्ञान होनेसे ही हो सकता है ।

इसपर श्रीकबीरदासजीकी निम्नांकित उक्तिपर ध्यान दें । वे कहते हैं‒

जहँ जहँ चालूँ करूँ परिक्रमा, जो कछु करूँ सो पूजा ।
जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत,        जानूँ देव न दूजा ॥

इस प्रकार उस नित्ययुक्त योगीके लिये भगवान्‌ स्वतः ही सुलभ हैं । दुर्लभता तो हमने भगवान्‌के अतिरिक्त अन्य सदा न रहनेवाली अस्थायी वस्तुओंसे सम्बन्ध जोड़कर पैदा कर ली है । इसके दूर होते ही भगवान्‌के साथ तो हमारा नित्य-निरन्तर अखण्ड सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है ही; अतः हमें अपना सम्बन्ध अन्य किसीसे न जोड़कर एकमात्र अपने उन परमहितैषी प्रभुके साथ ही जोड़ना चाहिये, जो प्राणिमात्रके परम सुहृद् एवं अकारण कारुणिक हैं तथा उन्हींसे ममता करनी चाहिये । फिर तो वे दयामय श्रीहरि हमें आप ही अपना लेंगे, जैसा कि उन्होंने अपने परम प्रिय सखा अर्जुनको अपनाते हुए कहा था‒

सर्वधर्मान्परित्यज्य       मामेकं   शरणं   व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
                                                      (१८/६६)

‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात्‌ सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मोंको मुझमें त्यागकर तू एक मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वरकी ही शरणमें आ जा; मैं तुजे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ।’

यह नियम है कि स्वरचित वस्तु चाहे कैसी ही क्यों न हो, हमको प्रिय लगती ही है । ऐसे ही यह सम्पूर्ण विश्व प्रभुका रचा हुआ तथा अपना होनेके नाते स्वाभाविक ही उन्हें प्रिय है ही । यथा‒

  अखिल बिस्व यह मोर उपाया । सब पर मोहि बराबरि दाया ॥

फिर उसके लिये तो कहना ही क्या है, जो सब ओरसे मुख मोड़कर एकमात्र उन प्रभुका हो जाता है । वह तो उन्हें परम प्रिय है ही । यथा‒

तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया । भजै मोहि मन बच अरु काया  ॥
पुरुष  नपुंसक  नारि   वा   जीव  चराचर  कोइ ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥

इसी प्रकार मानसमें सुतीक्ष्णजी भी कहते हैं‒

    एक बानि करुनानिधान की । सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥

अतः जिसको स्वयं भगवान्‌ अपनी ओरसे प्रिय मानें, उसे भगवान्‌ सुलभ हो जायँ‒ इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता; जैसा कि श्री भगवान्‌ने स्वयं अपने श्रीमुखसे अर्जुनके प्रति कहा है‒

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव   योगेन   मां  ध्यायन्तः उपासते ॥
तेषामहं     समुद्धर्ता     मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात् पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥
                                              (गीता १२/६-७)
        
‘जो मेरे ही परायण रहनेवाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वरको ही अनन्य भक्तियोगसे निरन्तर चिन्तन करते हुए भजन हैं, हे पार्थ ! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे

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