(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
सबके
हितका भाव
हरेक भाई-बहन
रख सकते हैं ।
यह भाव
गृहस्थ भी रख
सकते हैं,
साधु-संन्यासी
भी रख सकते
हैं, दरिद्र-से-दरिद्र
मनुष्य भी रख
सकते हैं,
धनी-से-धनी मनुष्य
भी रख सकते
हैं । हमारे
पास जो
वस्तुएँ हैं,
वे किसकी हैं‒इसका
पता नहीं है,
पर कोई
अभावग्रस्त
आदमी सामने आ
जाय तो
वस्तुको
उसीकी समझकर
उसको दे दें‒‘त्वदीयं
वस्तु
गोविन्द
तुभ्यमेव
समर्पये ।’ जैसे हमारे
पास कोई
सज्जन आता है
और कहता है कि ‘भाई,
आज मेरेको
मेलेमें
जाना है ।
मेरे पास एक
हजार रुपये
हैं, कोई जेब न
कतर ले, इसलिये
इन रुपयोंको
आपके पास
रखता हूँ ।’ वह
रुपये रखकर
चला जाता है ।
शामको वह आकर
रुपये
माँगता है और
हम उसको रुपये
वापस दे देते
हैं तो क्या
हमे दान कर
दिया ? दान
नहीं किया,
प्रत्युत
उसीकी वस्तु
उसको दे दी ।
शास्त्रमें
आया है कि
रसोई बननेके
बाद यदि ब्रह्मचारी
और संन्यासी
आ जायँ तो
उनको अन्न न
देनेसे पाप
लगता है,
जिसकी
शुद्धि
चान्द्रायणव्रत
करनेसे होती
है । यदि
उनको थोड़ा-सा
अन्न भी दे
दें तो
इतनेमें
हमारे
धर्मका पालन
हो जायगा और
पाप नहीं
लगेगा ।
इसमें कोई
शंका कर सकता
है कि हमने
पैसे कमाये,
उससे सब
सामग्री
लाये और रसोई
बनायी, पर कोई संन्यासी
आ जाय तो उसको
न देनेसे पाप
लग जायगा‒यह
कैसा न्याय
है ? इसका
समाधान यह है
कि जिसने संन्यास
ले लिया,
त्याग कर
दिया और जो
अपने पासमें
कुछ नहीं
रखता, उसके
हकका धन कहाँ
गया ? यदि वह
चाहता तो
दूकान, खेत
आदिमें काम
करके, पढ़ाने-लिखानेका
काम करके
अपने
जीवन-निर्वाहके
योग्य धन कमा
सकता था,
रुपयोंका
संग्रह कर
सकता था, पर वह
उसने नहीं
किया तो वे
रुपये हमारे
पास ही रहे !
इसलिये
समयपर
भोजनके लिये
आ जाय तो उसको
रोटी दे दें‒यह
हमारा
कर्तव्य है ।
नहीं देंगे
तो उसका हमपर
ऋण रहेगा,
हमें पाप लगेगा
।
साधुओंकी
भिक्षावृत्तिको
शास्त्रोंमें
बहुत अधिक
पवित्र
बताया गया है;
क्योंकि कई घरोंसे
थोड़ा-थोड़ा
लेनेसे
देनेवालेपर
कोई भार भी
नहीं पड़ता और लेनेवालेकी
उदरपूर्ति
भी हो जाती है ।
इसलिये इसको ‘माधुकरी वृत्ति’ भी कहते
हैं । ‘मधुकर’ नाम भौरें
अथवा मधुमक्खीका
है ।
मधुमक्खी
हरेक
पुष्पसे
थोड़ा-थोड़ा रस
लेती है और
किसी
पुष्पका
नुकसान भी
नहीं करती ।
एक साधु
थे । उनसे
किसीने पूछा
कि ‘आप भोजन
कहाँ पाते हो ? पासमें एक
पैसा तो है
नहीं !’ साधुने
कहा कि ‘भिक्षा
पा लेते हैं ।’
उसने फिर
पूछा कि ‘कभी
भिक्षा न
मिले तो ?’ साधु
बोला‒‘तो
भूखको ही पा
लेते हैं !’
भूखको
पानेका तात्पर्य
है कि आज हम
भोजन नहीं
करेंगे, कल करेंगे
।
संसारमें
एक-दूसरेको
दिये बिना,
एक-दूसरेकी सेवा
किये बिना
किसीका भी
निर्वाह
नहीं हो सकता ।
राजा-महाराजा
कोई क्यों न
हो, अपने
निर्वाहके
लिये
कुछ-न-कुछ
सहायता लेनी
ही पड़ती है । इसलिये गीतामें
आया है‒
देवान्भावयतानेन
ते देवा
भावयन्तु वः ।
परस्परं
भावयन्तः
श्रेयः
परमवाप्स्यथ
॥
(३/११)
‘अपने
कर्तव्य-कर्मके
द्वारा
तुमलोग
देवताओंको
उन्नत करो और
वे देवतालोग
अपने
कर्तव्यके
द्वारा
तुमलोगोंको उन्नत
करें । इस
प्रकार
एक-दूसरेको
उन्नत करते
हुए तुमलोग परम
कल्याणको
प्राप्त हो
जाओगे ।’
कितनी
विलक्षण बात
है कि
एक-दूसरेका
पूजन (सेवा)
करते-करते
परम कल्याणकी
प्राप्ति हो
जाती है !
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ
तित तू’
पुस्तकसे
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