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 (गत
  ब्लॉगसे
  आगेका)
                         कई
  वर्ष पहलेकी
  बात है । बाँकुड़ा
  जिलेमें
  अकाल पड़ गया
  तो
  गीताप्रेसके
  संस्थापक,
  संचालक तथा
  संरक्षक
  सेठजी
  श्रीजयदयालजी
  गोयन्दकाने
  वहाँ कई जगह
  कीर्तन
  आरम्भ करवा
  दिया और
  लोगोंसे कहा
  कि वहाँ बैठकर
  दो घण्टे
  कीर्तन करो
  और आधा सेर
  चावल ले जाओ ।
  पैसे देनेसे
  वे मांस, मछली
  आदि
  खरीदेंगे, पर
  चावल देनेसे
  वे चावल
  खायेंगे ही,
  इसलिये चावल
  देना शुरू
  किया । इस तरह
  उन्होंने
  सौ-सवा सौ
  कैम्प खोल
  दिये । एक दिन सेठजी
  वहाँ
  देखनेके
  लिये गये ।
  रात्रिमें
  वे जहाँ ठहरे
  थे, वहाँ
  बहुत-से बंगाली
  लोग इकठ्ठे
  हुए ।
  उन्होंने
  सेठजीकी बड़ी
  प्रशंसा की
  और कहा कि आपने
  हमारे
  जिलेको जिला
  दिया ! सेठजी
  बोले कि देखो,
  तुमलोग झूठी
  प्रशंसा
  करते हो,
  हमने क्या
  खर्च किया है ?
  हम मारवाड़से
  यहाँ आये थे ।  यहाँ आकर
  हमने
  बंगालसे
  जितना कमाया,
  वह सब-का-सब दे
  दें तो आपकी
  ही वस्तु
  आपको दी, हमने
  अपना क्या
  दिया ? वह भी सब
  नहीं दिया है ।
  वह सब दे दें
  और फिर हम
  मारवाड़से
  लाकर दें, तब यह
  माना जायगा
  कि हमने दिया ।
  इस तरह हमें
  हरेकको
  उसीकी वस्तु
  समझकर उसको
  देनी है ।
  देकर हम उऋण
  हो जायँगे,
  नहीं तो ऋण रह
  जायगा ।
  अपनेमें सेवकपनेका
  अभिमान भी
  नहीं होना
  चाहिये ।  घरमें रसोई
  बनती है तो
  बच्चे भी
  खाते हैं,
  स्त्रियाँ
  भी खाती हैं,
  पुरुष भी
  खाते हैं;
  क्योंकि
  उसमें सबका हिस्सा
  है । इसी तरह
  कोई भूखा आ
  जाय, कुत्ता आ
  जाय, कौआ आ जाय
  तो उनका भी
  उसमें
  हिस्सा है ।
  उनके
  हिस्सेकी
  चीज उनको दे
  दें । इस
  प्रकार
  निःस्वार्थभावसे
  आचरण करनेपर
  हमारा
  कल्याण हो
  जायगा ।  गीतामें आया
  है‒
         स्वकर्मणा
  तमभ्यर्चं
  सिद्धिं
  विन्दति
  मानवः ॥ 
                                                                                                                     
  (१८/४६)
               ‘अपने
  कर्तव्य
  कर्मके
  द्वारा उस
  परमात्माका पूजन
  करके मनुष्य
  सिद्धिको
  प्राप्त हो जाता
  है ।’
               तात्पर्य
  है कि
  ब्राह्मण
  ब्राह्मणोचित
  कर्मोंके
  द्वारा पूजन
  करे,
  क्षत्रिय
  क्षत्रियोचित
  कर्मोंके
  द्वारा पूजन
  करे, वैश्य
  वैश्योचित
  कर्मोंके द्वारा
  पूजन करे और
  शूद्र
  शूद्रोचित
  कर्मोंके
  द्वारा पूजन
  करे । इस
  प्रकार सबका
  पूजन, सबका
  हित करनेसे
  अपना कल्याण
  हो जाता है‒यह
  बात गीतामें
  बहुत
  विलक्षण
  रीतिसे
  बतायी गयी है ।
               यदि
  हम सुख चाहते
  हैं तो
  दूसरोंको भी
  सुख
  पहुँचाना
  हमारा
  कर्तव्य है ।
  यदि हम अपने
  पास कुछ भी
  नहीं रखते
  हैं तो दूसरोंको
  देनेका
  विधान
  हमारेपर
  लागू भी नहीं
  होता । इन्कमपर
  टैक्स लगता
  है । हमने
  कमाया है तो
  उसपर टैक्स
  लगेगा । यदि
  हमने कमाया
  ही नहीं तो उसपर
  टैक्स कैसे लगेगा
  ? अतः यदि हम अपने
  पास वस्तुएँ
  रखते हैं तो
  उनसे
  दूसरोंकी सेवा
  करनी है,
  दूसरोंका
  हित करना है । गीताका
  तात्पर्य
  सबके
  कल्याणमें
  है और सबके कल्याणमें
  ही हमारा
  कल्याण
  निहित है ।  जो लोगोंको
  अन्न बाँटता
  है क्या वह
  भूखा रहेगा ?
  क्या उसका हित
  नहीं होगा ?
  उसका हित
  अपने-आप हो
  जायगा ।
                          चाहे
  धनी हो, चाहे
  गरीब हो; चाहे
  बहुत परिवारवाला
  हो चाहे
  अकेला हो;
  चाहे बलवान् हो,
  चाहे निर्बल
  हो; चाहे
  विद्वान् हो,
  कल्याणमें
  सबका समान
  हिस्सा है ।
  जैसे, एक
  माँके दस
  बेटे होते
  हैं तो क्या
  माँके दस
  हिस्से होते
  हैं ? माँ तो
  सभी बेटोंके
  लिये
  पूरी-की-पूरी
  होती है ।
  दसों बेटे
  पूरी माँको
  अपनी मानते
  हैं । ऐसे ही भगवान्
  पूरे-के-पूरे
  हमारे हैं । भगवान्के
  हिस्से नहीं
  होते । हम
  सब उनकी
  गोदमें
  बैठनेके
  समान
  अधिकारी हैं ।
  इसलिये हम
  सब आपसमें
  प्रेमसे
  रहें और
  एक-दूसरेका
  हित करें‒यह
  गीताका
  सिद्धान्त
  है‒‘परस्परं
  भावयन्तः’, ‘सर्वभूतहिते
  रताः ।’
                        प्रश्न‒दान
  देनेमें,
  सेवा
  करनेमें
  पात्र-अपात्रका
  विचार करना
  चाहिये कि
  नहीं ?
                         उत्तर‒अन्न,
  जल, वस्त्र और
  औषध‒इनको
  देनेमें
  पात्र-अपात्र
  आदिका विचार
  नहीं करना
  चाहिये ।
  जिसको अन्न,
  जल आदिकी
  आवश्यकता है,
  वही पात्र है । परन्तु
  कन्यादान,
  भूमिदान,
  गोदान आदि
  विशेष दान
  करना हो तो
  उसमें देश,
  काल, पात्र
  आदिका विशेष
  विचार करना
  चाहिये ।
                 अन्न,
  जल, वस्त्र और
  औषध‒इनको
  देनेमें यदि
  हम
  पात्र-कुपात्रका
  अधिक विचार
  करेंगे तो
  खुद कुपात्र
  बन जायँगे और
  दान करना
  कठिन हो
  जायगा ! अतः
  हमारी
  दृष्टिमें
  अगर कोई भूखा, प्यासा
  आदि दीखता हो
  तो उसको अन्न,
  जल आदि दे
  देना चाहिये ।
  यदि वह
  अपात्र भी
  हुआ तो हमें
  पाप नहीं
  लगेगा ।
                प्रश्न‒दूसरोंको
  देनेसे
  लेनेवालेकी
  आदत बिगड़
  जायगी,
  लेनेका लोभ
  पैदा हो
  जायगा; अतः
  देनेसे क्या लाभ
  ?
                         उत्तर‒दूसरेको
  निर्वाहके लिये
  दें, संचयके
  लिये नहीं अर्थात्
  उतना ही दें,
  जिससे उसका
  निर्वाह हो
  जाय । यदि
  लेनेवालेकी
  आदत बिगड़ती
  है तो यह दोष
  वास्तवमें
  देनेवालेका
  है अर्थात् देनेवाला
  कामना, ममता,
  स्वार्थ
  आदिको लेकर
  देता है । यदि
  देनेवाला
  निःस्वार्थ-भावसे,
  बदलेकी आशा न
  रखकर दे तो
  जिसको देगा,
  उसका स्वभाव
  भी देनेका बन
  जायगा, वह भी
  सेवक बन
  जायगा ! रामायणमें
  आया है‒
         सर्बस
  दान   दीन्ह सब
  काहू ।
         जेहिं
  पावा राखा
  नहिं ताहू ॥
                                                                               (मानस,
  बाल॰ १९४/४)
         नारायण !    
  नारायण !!    
  नारायण !!!
         ‒ ‘जित देखूँ
  तित तू’
  पुस्तकसे
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