(गत
  ब्लॉगसे
  आगेका)
         
      मैं
  तो यहाँतक
  कहता हूँ कि
  सुख-दुःख
  देनेके लिये
  परिस्थितिके
  पास समय ही
  नहीं है ! वह
  बेचारी तो
  अपनी धुनमें
  जा रही है,
  आपको छूती ही
  नहीं, फिर वह
  आपको
  सुख-दुःख
  कैसे दे सकती
  है । इसीलिये सत्संगसे,
  सद्विचारोंसे,
  सद्भावोंसे
  आदमी सदा
  मस्त, मौजमें
  रह सकता है;
  क्योंकि
  परिस्थिति
  दुःख देती है
  नहीं । दुःख
  तो उसको पकड़
  करके आप कर
  रहे हो ।
  अनुकूल
  परिस्थिति
  मिले तो
  उसमें आप सुख
  मान लेते हो
  और प्रतिकूल
  परिस्थिति
  मिले तो
  उसमें आप
  दुःख मान
  लेते हो, यह
  गलती होती है
  आपकी ।  वास्तवमें
  परिस्थिति
  तो जा रही है
  बेचारी ! दिन-रातकी
  तरह यह
  सुखदायी-दुःखदायी
  परिस्थिति
  आती रहेगी ।
  जैसे दिनके
  बाद रात और
  रातके बाद
  दिन आता रहता
  है, ऐसे ही
  सुखके बाद
  दुःख और
  दुःखके बाद
  सुख आता
  रहेगा ।
         
      मनुष्यके
  लिये
  कल्याणकी
  बात खुली है । मनुष्य-शरीर
  केवल अपना
  कल्याण
  करनेके लिये
  है, भोग
  भोगनेके
  लिये नहीं‒‘एहि तन कर
  फल बिषय न भाई’ (मानस
  ७/४४/१) ।
  सुख-दुःख दो
  तरहके होते
  हैं । हमारे
  पास धन,
  सम्पत्ति,
  वैभव, बेटा,
  पोता, मकान आदि
  अनुकूल
  सामग्री है
  तो इसको
  देखकर लोग
  कहते हैं कि
  यह बहुत सुखी
  है । हमारे
  पास सामग्री
  नहीं है;
  खानेको अन्न
  नहीं,
  पहननेको
  वस्त्र नहीं,
  रहनेको मकान
  नहीं‒ऐसी
  दशा है तो
  इसको देखकर
  लोग कहते हैं
  कि यह बहुत दुःखी
  है । एक तो
  सुख-दुःखकी
  यह परिभाषा
  है । दूसरी, जो
  मनमें हरदम
  प्रसन्न
  रहता है, कभी दुःखी
  नहीं होता,
  उसको सुखी
  कहते हैं और
  जो मनमें दुःखी
  रहता है, उसको दुःखी
  कहते हैं । इस
  प्रकार एक तो
  सुख-सामग्रीका
  नाम सुख है और
  दुःख-सामग्रीका
  नाम दुःख है
  तथा एक हृदयमें
  प्रसन्नताका
  नाम सुख है और
  हृदयमें जलनका
  नाम दुःख है ।
  इनमें सामग्रीवाला
  सुख-दुःख तो
  परिस्थितिका
  है और हृदयका
  सुख-दुःख
  मूर्खताका
  है । इस
  मूर्खताको मिटानेकी
  खास
  जिम्मेवारी
  मनुष्यके
  ऊपर है ।  जैसे किसी
  भाषाका
  ज्ञान न हो तो
  उस अज्ञानको
  दूर करनेके
  लिये हम वह
  भाषा सीख
  सकते हैं, ऐसे
  ही सुख-दुःख
  हमारेमें है
  ही नहीं‒इस
  विद्याको
  मनुष्यमात्र
  सीख सकता है ।
  इस ज्ञानके
  लिये ही मानवशरीर
  मिला है । अतः मानवशरीरमें
  आकर सुखी-दुःखी
  नहीं होना है,
  प्रत्युत सुख-दुःख
  दोनोंसे
  ऊँचा उठना है ।  ऊँचा उठना
  क्या होता है ?
  कि न सुख ही
  पहुँचता और न
  दुःख ही
  पहुँचता है ।
  पातञ्जलयोगदर्शनके
  व्यासभाष्यमें
  एक श्लोक आया है‒
         
      प्रज्ञाप्रासादमारुह्याऽशोच्यः
  शोचतो जनान् ।
         
      भूमिष्ठानिव
  शैलस्थः
  सर्वान्प्राज्ञोऽनुपश्यति
  ॥
         
      (१/४७
  का
  व्यासभाष्य)
         
      अर्थात्
  जैसे
  पर्वतपर खड़ा
  हुआ मनुष्य
  नीचे
  पृथ्वीपर खड़े
  लोगोंको
  देखता है, ऐसे
  ही
  प्रज्ञारूपी
  प्रासाद-(महल-)पर
  खड़ा हुआ अशोच्य
  पुरुष शोक
  करनेवाले
  लोगोंको
  देखता है ।
         
      समाधि-अवस्थामें
  योगीकी
  बुद्धि ऋतम्भरा
  अर्थात् सत्यको
  धारण
  करनेवाली हो
  जाती है‒‘ऋतम्भरा
  तत्र
  प्रज्ञा’ (योगदर्शन
  १/४८) ।
  विवेक-विचारसे
  भी ऐसी
  बुद्धि
  प्राप्त हो
  जाती है ।
  जैसे
  पृथ्वीपर
  कभी बाढ़ आती
  है, कभी आग
  लगती ही, कभी
  सुखदायी
  परिस्थिति
  आती है, कभी दुःखदायी
  परिस्थिति
  आती है,
  तरह-तरहकी
  परिस्थितियाँ
  आती हैं, पर
  पर्वतपर खड़े
  हुए
  मनुष्यके पास
  उनमेंसे कोई
  भी
  परिस्थिति
  नहीं
  पहुँचती । वह
  केवल देखता
  है, सुखी-दुःखी
  नहीं होता । इसको
  सुख-दुःखसे
  ऊँचा उठना
  कहते हैं और
  ऐसी स्थिति
  आपकी, हमारी
  सबकी हो सकती
  है ।
         
          (शेष आगेके
  ब्लॉगमें)
          
      ‒ ‘नित्ययोगकी
  प्राप्ति’
  पुस्तकसे
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