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(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जिसका भगवान्के
नाममें अटूट श्रद्धा-विश्वास
है, अनन्यभाव है, उसका एक ही
नामसे कल्याण
हो जाता है ।
प्रश्न‒जब एक ही नामसे
सब पाप नष्ट हो
जाते हैं तो फिर
बार-बार नाम लेनेकी
क्या आवश्यकता
है ?
उत्तर‒बार-बार नाम
लेनेसे ही वह एक
आर्तभाववाला
नाम निकलता है
। जैसे
मोटरके इंजनको
चालू करनेके लिये
बार-बार हैण्डल
घुमाते हैं तो
हैण्डलको पहली
बार घुमानेसे
इंजन चालू होगा
या पाँचवीं, दसवीं अथवा पंद्रहवीं
बार घुमानेसे
इंजन चालू होगा‒इसका
कोई पता नहीं रहता
। परन्तु हैण्डलको
बार-बार घुमाते
रहनेसे किसी-न-किसी
घुमावमें इंजन
चालू हो जाता है
। ऐसे ही बार-बार
भगवन्नाम लेते
रहनेसे कभी-न-कभी
वह आर्तभाववाला
एक नाम आ ही जाता
है । अत: बार-बार
नाम लेना बहुत
जरूरी है ।
प्रश्न‒जो मनुष्य नामजप
तो करता है, पर उसके
द्वारा निषिद्ध
कर्म भी होते हैं, उसका
उद्धार होगा या
नहीं ?
उत्तर‒समय पाकर उसका
उद्धार तो होगा
ही; क्योंकि किसी
भी तरहसे लिया
हुआ भगवन्नाम
निष्फल नहीं जाता
। परन्तु नामजपका
जो प्रत्यक्ष
प्रभाव है, वह उसके देखनेमें
नहीं आयेगा । वास्तवमें
देखा जाय तो जिसका
एक परमात्माको
ही प्राप्त करनेका
ध्येय नहीं है, उसीके द्वारा
निषिद्ध कर्म
होते हैं । जिसका
ध्येय एक परमात्मप्राप्तिका
ही है, उसके द्वारा
निषिद्ध कर्म
हो ही नहीं सकते
। जैसे, जिसका ध्येय पैसोंका
हो जाता है, वह फिर ऐसा कोई
काम नहीं करता, जिससे पैसे नष्ट
होते हों । वह पैसोंका
नुकसान नहीं सह
सकता; और
कभी किसी कारणवश
पैसे नष्ट हो जायँ
तो वह बेचैन हो
जाता है । ऐसे
ही जिसका ध्येय
परमात्मप्राप्तिका
बन जाता है, वह फिर साधनसे
विपरीत काम नहीं
कर सकता । अगर उसके
द्वारा साधनसे
विपरीत कर्म होते
हैं तो इससे सिद्ध
होता है कि अभी
उसका ध्येय परमात्मप्राप्ति
नहीं बना है ।
साधकको चाहिये
कि वह परमात्मप्रासिका
ध्येय दृढ़ बनाये
और नाम-जप करता
रहे तो फिर उससे
निषिद्ध क्रिया
नहीं होगी । कभी निषिद्ध
क्रिया हो भी जायगी
तो उसका बहुत पश्चात्ताप
होगा, जिससे वह
फिर आगे कभी नहीं
होगी ।
प्रश्न‒जिसके पाप बहुत
हैं, वह भगवान्का
नाम नहीं ले सकता; अत: वह
क्या करे ?
उत्तर‒बात सच्ची
है । जिसके अधिक
पाप होते हैं, वह भगवान्का
नाम नहीं ले सकता
।
वैष्णवे भगवद्भक्तौ
प्रसादे हरिनाम्नि
च ।
अल्पपुण्यवतां
श्रद्धा यथावन्नैव
जायते ॥
अर्थात्
जिसका पुण्य थोड़ा
होता है, उसकी भक्तोंमें, भक्तिमें, भगवत्प्रसादमें
और भगवन्नाममें
श्रद्धा नहीं
होती ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा
और नाम-जपकी महिमा’
पुस्तकसे
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