(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जैसे पित्तका
जोर होनेपर रोगीको
मिश्री भी कड़वी
लगती है । परन्तु
यदि वह मिश्रीका
सेवन करता रहे
तो पित्त शान्त
हो जाता है और मिश्री
मीठी लगने लग जाती
है । ऐसे ही
पाप अधिक होनेसे
नाम अच्छा नहीं
लगता; परन्तु नाम-जप
करना शुरू कर दे
तो पाप नष्ट हो
जायेंगे और नाम
अच्छा, मीठा लगने
लग जायगा तथा नाम-जपका
प्रत्यक्ष लाभ
भी दीखने लग जायगा
।
प्रश्न‒जिसके भाग्यमें
नाम लेना लिखा
है, वह तो नाम ले सकता
है, उसके मुखसे नाम
निकल सकता है; परंतु
जिसके भाग्यमें
नाम लेना लिखा
ही नहीं, वह कैसे
नाम ले सकता है ?
उत्तर‒एक ‘होना’ होता
है और एक ‘करना’ होता
है । भाग्य अर्थात्
पुराने कर्मोंका
फल होता है और नये
कर्म किये जाते
हैं, होते नहीं
। जैसे
व्यापार करते
हैं और नफा-नुकसान
होता है; खेती करते हैं
और लाभ-हानि होती
है; मन्त्रका
सकामभावसे जप
(अनुष्ठान) करते
हैं और उसका नीरोगता
आदि फल होता है
। बद्रीनारायण
जाते हैं‒यह ‘करना’
हुआ और चलते-चलते
बद्रीनारायण
पहुँच जाते हैं‒यह
‘होना’ हुआ । दवा
लेते हैं‒यह ‘करना’ हुआ
और शरीर स्वस्थ
या अस्वस्थ होता
है‒ यह ‘होना’ हुआ
। हानि-लाभ, जीना-मरना, यश-अपयश‒ये सब
होनेवाले हैं; क्योंकि ये पूर्वजन्ममें
किये हुए कर्मोंके
फल हैं* । परन्तु नाम-जप करना
नया काम है । यह
करनेका है, होनेका नहीं
। इसको करनेमें
सब स्वतन्त्र
हैं । हाँ, इसमें
इतनी बात होती
है कि अगर किसीने
पहले नाम-जप किया
हुआ है तो नाम-जपकी
महिमा सुनते ही
उसकी नाम-जपमें
रुचि हो जायगी
और वह सुगमतासे
होने लग जायगा
। परन्तु पहले
जिसका नाम-जप किया
हुआ नहीं है, वह अगर नामकी महिमा
सुने तो उसकी नाम-जपमें
जल्दी रुचि नहीं
होगी । अगर नाम-जपकी
महिमा कहनेवाला
अनुभवी हो तो सुननेवालेकी
भी नाममें रुचि
हो जायगी और उस
अनुभवीके संगमें
रहनेसे उसके लिये
नाम-जप करना भी
सुगम हो जायगा
।
जो भाग्यमें
लिखा है, वह फल होता है, नया कर्म नहीं
। नाम-जप करना शुरू
कर दें तो वह होने
लग जायगा; क्योंकि नाम-जप
करना नया कर्म, नयी उपासना है
। अत: ‘हमारे
भाग्यमें नाम-जप
करना, सत्संग करना, शुभ कर्म
करना लिखा हुआ
नहीं है’‒ऐसा कहना
बिलकुल बहानेबाजी
है । ‘नाम-जप, सत्संग आदि
हमारे भाग्यमें
नहीं हैं’‒ऐसा भाव रखना
कुसंग है, जो नाम-जप
आदि करनेके भावका
नाश करनेवाला
है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा
और नाम-जपकी महिमा’
पुस्तकसे
‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒--
*सुनहु भरत
भावी प्रबल बिलखि कहेउ
मुनिनाथ ।
हानि लाभु
जीवनु मरनु जसु
अपजसु बिधि हाथ
॥
(मानस
२।१७१)
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