अपनेको शरीर
माननसे ही जन्म-मरण, दुःख, संताप, चिन्ता आदि सभी
आफतें आती हैं
। शरीर अपना
स्वरूप है नहीं, यह प्रत्यक्ष
है । बचपनमें जैसा
शरीर था, वैसा अब नहीं है; अब इतना बदल गया
कि पहचान नहीं
होती, परंतु
‘मैं वही हूँ’‒इसमें सन्देहकी
कहीं गुंजाइश
भी नहीं है । तो
कम-से-कम यह विचार
करें कि शरीर मैं
नहीं हूँ । मैं
न स्थूल शरीर हूँ, न सूक्ष्म शरीर
हूँ और न कारण शरीर
हूँ । स्थूल शरीरकी
स्थूल संसारके
साथ एकता है‒
छिति जल पावक
गगन समीरा ।
पंच रचित
अति अधम सरीरा
॥
(मानस
४।११।२)
अब वह कौन-सा
शरीर है, जो इन पाँचोंसे
रहित है ? संसारके साथ
शरीरकी बिलकुल
अभिन्नता है ।
संसार ‘यह’ नामसे कहा
जाता है, फिर उसका
एक छोटा-सा अंश
‘मैं’ कैसे
हो गया ? ऐसे ही सूक्ष्म
शरीरकी सूक्ष्म
संसारके साथ एकता
है । पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन, बुद्धि‒ये
सब सूक्ष्म संसारके
ही अंश हैं । यह
जो वायु चलता है, इसीके साथ प्राणोंकी
एकता है । ऐसे ही
सब इन्द्रियों, मन, प्राण, आदिकी एकता है
। सब एक ही धातुके
हैं । ऐसे ही कारण
शरीरकी कारण संसारके
साथ एकता है । सूक्ष्म शरीरसे
आगे कुछ पता नहीं
लगता, ऐसा जो अज्ञान
है, वह कारण शरीर है
। इसमें प्रकृति (स्वभाव)
होती है । प्रकृति सबकी
भिन्न-भिन्न होनेपर
भी धातु (पंचमहाभूत)
एक है, ऐसे
प्रकृति एक है
। सुषुप्तिमें
सभी एक हो जाते
हैं, भिन्नता
रहती ही नहीं ।
तो इस प्रकार कारण
शरीर सब एक ही हुए
। अब इसमें यह मैं
हूँ और यह मैं नहीं
हूँ, यह
मेरा है और यह मेरा
नहीं है‒यह बात
सच्ची नहीं है
। यह व्यवहारके
लिये कामकी है
। अपनेको शरीर
मानना गलती है
। इस गलतीको हम
आज मिटा दें तो
महान् शान्ति
मिल जाय, बड़ा भारी
आनन्द मिल जाय
। पर सुनकर केवल
सीख लेनेसे यह
गलती नहीं मिटती
। यह
शरीर इदंतासे
दीखना चाहिये‒‘इदं शरीरम्’ (गीता १३।१) । जैसे यह छप्पर
अलग दीखता है, ऐसे शरीरका भी
अनुभव होना चाहिये
कि यह अलग है, मैं इसे जाननेवाला
हूँ । इसे सीखना
नहीं है । सीखना
या मानना ज्ञान
नहीं होता । दृढ़
मान्यता भी ज्ञान‒जैसी
प्रतीत होती है,
पर मान्यता मान्यता
ही होती है, बोध नहीं । उसका
साफ-साफ बोध होना
चाहिये । परिवर्तनशील
वस्तु मेरा स्वरूप
नहीं है‒ऐसा अनुभव
हो जाय, तो तत्त्वज्ञान
हो गया, मुक्ति हो
गयी, परमात्मतत्त्वकी
प्राप्ति हो गयी, स्वरूपकी
प्राप्ति हो गयी
। और
वह नित्यप्राप्तकी
प्राप्ति है; क्योंकि अपना
स्वरूप अप्राप्त
हुआ ही कब ? और जो प्रतिक्षण
बदलता है, वह कभी किसीको
प्राप्त कैसा ? वह कभी किसीको
प्राप्त हुआ ही
नहीं । प्राप्त
तो स्वरूप ही है
। परंतु अप्राप्तको
प्राप्त माननेसे
जो प्राप्त है, वह अप्राप्त जैसा
हो गया । जबतक
अप्राप्तको अप्राप्त
नहीं मानेंगे
तबतक प्राप्तकी
प्राप्ति नहीं
दीखेगी ।
सुनकर सीख
लेने और मान लेनेका
नाम ज्ञान नहीं
है । ज्ञान ऐसी
चीज नहीं है । ज्ञान
तो एकदम, उसी क्षण
होता है । उसमें अभ्यास
नहीं है । अभ्यास
करना उपासना है
। उपासना उपासना
ही है, बोध
नहीं । शरीर
मैं हूँ‒ऐसा दीखनेपर
बेचैनी हो जाय
तो बोध हो जायगा
। जैसे नींदमें
पड़े हुए आदमीको
सूई चुभाई जाय, तंग किया
जाय तो चट नींद
खुल जाती है । ऐसे
ही अपनेको शरीर
माननेका दुःख, जलन पैदा
हो जाय कि क्या
करूँ ? कैसे करूँ ? यह अभ्यास
कैसे मिटे ? तो फिर यह
मिट जायगा । जो चीज मिटती
है, वह होती नहीं
और जो चीज होती
है वह मिटती नहीं‒‘नासतो विद्यते
भावो नाभावो विद्यते
सत: ।’ (गीता २।१६) शरीरमें मैं-पन
और मेरा-पन मिटता
है, तो मूलमें है
नहीं‒यह पक्की
बात है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
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