(गत ब्लॉगसे आगेका)
मैंने कई जगह कहा है कि कोई तुमसे कहे कि तुम सत्संगमें क्यों जाती हो तो उससे कह देना कि स्वामीजीने हमारे घर आकर सत्संगमें आनेके लिये कह दिया, इस कारण जाती हूँ । उनका कहना मानना ही पड़ता है ! इस तरह सब कलंक मेरेपर दे दो ! ऐसे आप भी अपनेपर कलंक ले लो कि हम भी जायँगी और साथमें इसको भी ले जायँगी । इस तरह आप उत्साह रखो तो सत्संगका प्रचार होगा, सबका हृदय शुद्ध होगा, सबके लाभकी बात होगी ।
हमने एक बात सुनी है और पद भी पढ़े हैं । मीराँबाईने तुलसीदासजी महाराजको पत्र लिखा कि मेरे तो आप ही माँ-बाप हैं, अतः मैं आपसे पूछती हूँ कि मैं भजन-ध्यान करना चाहती हूँ, पर मेरे पति मना करते हैं तो मेरेको क्या करना चाहिये* ? उत्तरमें गोस्वामीजी महाराजने लिखा‒
जाके प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥ १ ॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ॥ २ ॥
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं ।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ॥ ४ ॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो ।
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ॥ ५ ॥
(विनयपत्रिका १७४)
जिसको सीतारामजी प्यारे नहीं लगते, उसको करोड़ों वैरियोंके समान समझना चाहिये । इस विषयमें गोस्वामीजीने अनेक उदाहरण दिये । प्रह्लादजीका उदाहरण दिया कि उन्होंने पिताको छोड़ दिया । परन्तु इससे यह उलटी बात मत पकड़ लेना कि हम भी पिताको छोड़ देंगे,पिताका कहना नहीं मानेंगे ! प्रह्लादजीने तो केवल पिताजीकी भजन-निषेधकी बात नहीं मानी । भगवान्ने प्रह्लादजीसे कहा कि वरदान माँग तो उन्होंने कहा कि महाराज ! माँगनेकी इच्छा नहीं है, पर आप माँगनेके लिये कहते हो तो मालूम होता है कि मेरे मनमें कामना है । अगर मेरे मनमें कामना न होती तो आप अन्तर्यामी होते हुए ऐसा कैसे कहते ? अतः मैं यही वरदान माँगता हूँ कि मेरे मनमें जो कामना हो, वह नष्ट हो जाय । भगवान्ने कहा कि ठीक है । फिर प्रह्लादजीने कहा कि मेरे पिताका कल्याण हो जाय । इस तरह भजनमें बाधा देनेवालेके लिये प्रह्लादजी वरदान माँगते हैं, निष्काम होते हुए भी कामना करते हैं कि मेरे पिताका कल्याण हो जाय ! क्यों माँगते हैं वरदान ? इसलिये कि भगवान् और सब सह सकते हैं, पर भक्तका अपराध नहीं सह सकते‒
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ ।
निज अपराध रिसाहिं न काऊ ॥
जो अपराधु भगत कर करई ।
राम रोष पावक सो जरई ॥
(मानस २ । २१८ । २-३)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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* स्वस्ति श्रीतुलसी गुण-भूषण दूषण-हरण गोसाँई ।
बारहिं बार प्रणाम करहुँ अब हरहु शोक-समुदाई ॥ १ ॥
घरके स्वजन हमारे जेते सबन उपाधि बढ़ाई ।
साधुसंग और भजन करत मोहि देत कलेस महाई ॥ २ ॥
सो तो अब छूटत नहिं क्यों हूँ लगी लगन बरियाई ।
बालपनेमें मीरा कीन्हीं गिरधरलाल मिताई ॥ ३ ॥
मेरे मात तात सब तुम हो हरिभक्तन सुखदाई ।
मोकों कहा उचित करिबो अब सो लिखिये समुझाई ॥ ४ ॥
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