(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मतत्त्वका अनुभव स्वयंको होता
है, करणको नहीं । अतः परमात्मतत्त्वका अनुभव करनेके लिये हम
करणकी जितनी आवश्यकता मानेंगे, उतनी ही परमात्मतत्त्वके अनुभवमें देरी
लगेगी । वास्तवमें हमें नित्यप्राप्त तत्त्वकी ही प्राप्ति
करनी हे और नित्यनिवृत्तकी ही निवृत्ति करनी है, नया कुछ नहीं करना है । अतः इसमें किसी करण अर्थात् कियाकी
अपेक्षा नहीं है । इसलिये गीता कहती है‒
१. आत्मन्येवात्मना तुष्टः (२ । ५५)
‘अपने-आपसे अपने-आपमें
ही सन्तुष्ट रहता है ।’
२. यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥
(३ । १७)
‘जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला
तथा अपने-आपमें ही तृप्त एवं अपने-आपमें ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ।’
३. उद्धरेदात्मनात्मानम् (६ । ५)
‘अपने द्वारा अपना उद्धार
करे ।’
४. यत्र चैवात्मनात्मान पश्यन्नात्मनि
तुष्यति ।
(६ । २०)
‘जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपमें अपने-आपको
देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है ।’
५. पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना
(१३ । २४)
‘अपने-आपसे अपने-आपमें परमात्मतत्त्वका
अनुभव करते हैं ।’
६. पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्
(१५ । ११)
‘अपने-आपमें स्थित परमात्मतत्त्वका अनुभव
करते हैं ।’
भगवान्के लिये भी अर्जुनने कहा है‒
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम
।
(१० । १५)
‘हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयं ही अपने-आपसे
अपने-आपको जानते हैं ।’
उपनिषद्में भी आया है‒
१. आत्मन्येवात्मानं पश्यति (बृहदा॰ ४ । ४ । २३)
‘आत्मामें ही आत्माको देखता है ।’
२. ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति (बृहदा॰ ४ । ४ । ६)
‘ब्रह्म ही होकर ब्रह्मको
प्राप्त होता है ।’
३. आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम्
।
(केन॰ २ । ४)
‘अमृतत्व अपने-आपसे ही प्राप्त
होता है । विद्यासे तो अज्ञानान्धकारको निवृत्त करनेका सामर्थ्य मिलता है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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