(गत ब्लॉगसे आगेका)
केनोपनिषद्के उपर्युक्त मन्त्रके शांकरभाष्यमें
आया है‒
‘आत्मना विन्दते स्वेनैव नित्यात्मस्वभावेनामृतत्वं
विन्दते । नालम्बनपूर्वकम् । विन्दत इति आत्मविज्ञानापेक्षम् । यदि हि विद्योत्पाद्यममृतत्वं
स्यादनित्यं भवेत्कर्मकार्यवत् । अतो न विद्योत्पाद्यम् । यदि चात्मनैवामृतत्वं विन्दते
किं पुनर्विद्यया क्रियत इत्युच्यते । अनात्मविज्ञानं निवर्तयन्ती सा तन्निवृत्त्या
स्वाभाविकस्यामृतत्वस्य निमित्तमिति कल्प्यते । यत आह ‘वीर्यं विद्यया विन्दते ।’
‘अमरत्व तो आत्मासे-अपने नित्यात्मस्वभावसे
ही प्राप्त करते हैं, किसीके आश्रयसे नहीं । ‘विन्दते’‒इससे यह समझना चाहिये कि उसकी प्राप्ति
आत्मविज्ञानकी अपेक्षा रखनेवाली है । यदि अमृतत्व विद्यासे उत्पन्न किया जानेयोग्य
होता तो कर्मफलके समान अनित्य हो जाता । इसलिये वह विद्यासे उत्पाद्य नहीं है । यदि
कहो कि जब अमृतत्व स्वतः ही मिल जाता है तो विद्या उसमें क्या करती है ? तो इसमें हमें यह कहना है कि वह अनात्मविज्ञानको
निवृत्त करती हुई उसकी निवृत्तिके द्वारा स्वाभाविक अमृतत्वकी हेतु बनती है; क्योंकि ‘विद्यासे अज्ञानान्धकारको निवृत्त करनेका
सामर्थ्य प्राप्त होता है’‒ऐसा कहा भी है ।’
धनसहायमन्त्रौषधितपोयोगकृतं
वीर्यं मृत्युं न शक्नोत्यभिभवितुमनित्यवस्तुकृतत्वात्; आत्मविद्याकृतं तु वीर्यमात्मनैव
विन्दते, नान्येन इत्यतोऽनन्यसाधनत्वादात्म-विद्यावीर्यस्य
तदेव वीर्यं मृत्युं शक्नोत्यभिभवितुम् ।’
‘धन, सहाय, मन्त्र, ओषधि, तप और योगसे प्राप्त होनेवाला वीर्य
(सामर्थ्य) अनित्य वस्तुका किया हुआ होनेसे मृत्युका पराभव करनेमें समर्थ नहीं है; किन्तु आत्मविद्यासे होनेवाला वीर्य
तो आत्माद्वारा ही प्राप्त किया जाता है, अन्य किसीसे नहीं । इसलिये आत्मविद्याजनित
वीर्य किसी अन्य साधनसे प्राप्त होनेवाला नहीं है; अतः वही वीर्य मृत्युका पराभव कर सकता
है ।’
तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मतत्त्वकी
प्राप्ति स्वयंको होती है, करणको नहीं । अतः उसकी प्राप्तिके लिये अन्तःकरणकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत अन्तःकरणसे
सम्बन्ध-विच्छेदकी जरूरत है । जिससे सम्बन्ध-विच्छेद करना है, वह कैसा है और कैसा नहीं है, इससे क्या मतलब ?
किं भद्रं किमभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः
कियत् ।
वाचोदितं तदनृतं मनसा ध्यातमेव च ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । २८ । ४)
‘संसारकी सब वस्तुएँ वाणीसे कही जा सकती हैं और मनसे सोची जा सकती हैं; अतः वे सब असत्य हैं । जब
द्वैत नामकी कोई वस्तु ही नहीं है तो फिर उसमें क्या अच्छा और क्या बुरा ?’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
|