(गत ब्लॉगसे आगेका)
शंका‒अन्तःकरणको शुद्ध किये बिना उससे सम्बन्ध-विच्छेद कैसे होगा ?
समाधान‒वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी
प्राप्तिके लिये अन्तःकरणकी आवश्यकता समझना और अन्तःकरणसे अपना सम्बन्ध मानना ही अन्तःकरणकी
अशुद्धि है । बोध अन्तःकरणसे नहीं होता, प्रत्युत विवेककी जागृतिसे होता है
और स्वयंको होता है । जैसे कलम बढ़िया होनेसे लिखावट तो बढ़िया हो सकती है, पर लेखक बढ़िया नहीं हो जाता, ऐसे ही अन्तःकरण शुद्ध होनेसे क्रियाएँ तो शुद्ध हो सकती
हैं, पर कर्ता शुद्ध नहीं हो जाता । कर्ता शुद्ध होता है अन्तःकरणसे
सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर; क्योंकि अन्तःकरणसे अपना सम्बन्ध मानना
ही अशुद्धिका मूल कारण है । अपनापन (ममता) ही मल है‒‘ममता
मल जरि जाइ’
(मानस ७ । ११७ क) ।
गीतामें आया है‒
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं
योग उच्यते ॥
(२ । ४८)
‒इसकी व्याख्या करते हुए श्रीशंकराचार्यजी
महाराज कहते हैं‒‘फलतृष्णाशून्येन क्रियमाणे कर्माणि सत्त्वशुद्धिजा
ज्ञानप्राप्तिलक्षणा सिद्धिस्तद् विपर्ययजा असिद्धिस्तयोः सिद्ध्यसिद्ध्योरपि समस्तुल्यो
भूत्वा कुरु कर्माणि । कोऽसौ योगो यत्रस्थः कुर्वित्युक्तमिदमेव तत् सिद्ध्यसिद्ध्योः
समत्वं योग उच्यते ।’
‘फल तृष्णारहित पुरुषके द्वारा कर्म
किये जानेपर अन्तःकरणकी शुद्धिसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है और उससे
विपरीत (ज्ञानप्राप्तिका न होना) असिद्धि है । ऐसी सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर अर्थात्
दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर । वह कौन-सा योग है, जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये
कहा है ? यही जो सिद्धि और असिद्धिमें सम होना
है, इसीको योग कहते हैं ।’
तात्पर्य
यह हुआ कि साधकको अन्तःकरणकी शुद्धि-अशुद्धिकी अपेक्षा न रखकर सम रहना चाहिये । कारण
कि अन्तःकरणकी शुद्धि और अशुद्धि‒दोनोंका जो प्रकाशक (साक्षी) है, वह शुद्धि-अशुद्धिसे
रहित (सम) है । अतः अन्तःकरणको शुद्ध करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत सम होनेकी अर्थात् अन्तःकरण
तथा उसकी शुद्धि-अशुद्धि दोनोंका त्याग करके अपने स्वरूपमें स्थित होनेकी जरूरत है, जो कि स्वतःसिद्ध है ।
(अपूर्ण)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
|