(२ अक्तूबरके ब्लॉगसे आगेका)
‘राम’ नामके विषयमें भी ऐसी बातें शास्त्रोंमें पढ़ते हैं,
सन्तोंसे सुनते हैं । ऐसे ही हमने एक घटना सुनी है—
बाँकुड़ाकी बात है । एक सज्जन थे श्रीबद्रीदासजी
गोयन्का । वे अपनी बीती घटना सुनाने लगे । एक बुढ़ा बंगाली सरोवरके किनारे मछलियाँ
पकड़ रहा था । श्रीजयदयालजी गोयन्का एवं बद्रीदासजीने उसे देखा और कहा—‘यह बूढ़ा हो गया, बेचारा भजनमें लग जाय तो अच्छा है ।’
उससे जाकर कहा कि तुम भगवन्नाम- उच्चारण करो तो, उसे
‘राम’ नाम आया ही नहीं । वह मेहनत करनेपर भी सही उच्चारण नहीं कर सका । कई नाम बतानेके बादमें अन्तमें
‘होरे-होरे’ कहने लगा । इस नामका उच्चारण हुआ और कोई नाम आया ही नहीं । उससे पूछा
गया कि ‘तुम्हें एक दिनमें कितने पैसे मिलते हैं ?’ तो उन्होंने बताया कि इतनी
मछलियाँ मारनेसे इतने पैसे मिलते हैं । तो उन्होंने कहा कि ‘उतने पैसोंके चावल हम
तुम्हें दे देंगे । तुम हमारी दूकानमें बैठकर दिनभर होरे-होरे (हरि-हरि) किया करो
।’ उसको किसी तरह ले गये दूकानपर । वह एक दिन तो बैठा । दूसरे दिन देरसे आया और
तीसरे दिन आया ही नहीं । फिर दो-तीन दिन बाद जाकर देखा, वह उसी जगह धूपमें मछली
पकड़ता हुआ मिला । उन्होंने उसे कहा कि ‘तू वहाँ दूकानमें छायामें बैठा था । क्या
तकलीफ थी ? तुमको यहाँ जितना मिलता है, उतना अनाज दे देंगे केवल दिनभर बैठा
हरि-हरि कीर्तन किया कर ।’ उसने कहा—‘मेरेसे नहीं होगा ।’ वह दूकानपर बैठ नहीं सका । ऐसी बीती हुई घटना बतायी । हमारे विश्वास हुआ कि बात तो ठीक है भाई ! पापीका शुभ काममें
लगना कठीन होता है । श्रीतुलसीदासजी महाराजने कहा है—
तुलसी पूरब पाप
ते हरि चर्चा न सुहात ।
जैसे ज्वरके जोरसे भूख
बिदा हो जात ॥
जब ज्वर (बुखार) का जोर होता है तो अन्न अच्छा नहीं लगता ।
उसको अन्नमें भी गन्ध आती है । जैसे भीतरमें बुखारका जोर होता है तो अन्न अच्छा
नहीं लगता, वैसे ही जिसके पापोंका जोर ज्यादा होता है,
वह भजन कर नहीं सकता, सत्संगमें जा नहीं सकता ।
इसलिये सज्जनो ! एक बातपर ध्यान दें । जो भाई सत्संगमें
रुचि रखते हैं, सत्संगमें जाते हैं, नाम लेते हैं, जप करते हैं, उन पुरुषोंको
मामूली नहीं समझना चाहिये । वे साधारण आदमी नहीं हैं । वे भगवान्का भजन करते हैं,
शुद्ध हैं और भगवान्के कृपा-पात्र हैं । परन्तु जो
भगवान्की तरफ चलते हैं, उनको अपनी बहादुरी नहीं माननी चाहिये कि हम बड़े अच्छे हैं
। हमें तो भगवान्की कृपा माननी चाहिये, जिससे हमें सत्संग, भजन-ध्यानका मौका
मिलता है । हमें ऐसा समझना चाहिये कि ऐसे कलियुगके समयमें हमें भगवान्की बात
सुननेको मिलती है, हम भगवान्का नाम लेते हैं, हमपर भगवान्की बड़ी कृपा है ।
जैसे नदीका प्रवाह समुद्रकी तरफ जा रहा है, ऐसे ही इस समय
संसारका प्रवाह नरकोंकी तरफ बड़े जोरोंसे जा रहा है । पढ़ाईमें, रस्म-रिवाजमें,
कानून-कायदोंमें, व्यापार आदि कार्योंमें जहाँ कहीं भी देखो, पापका बड़े जोरोंसे
प्रवाह चल रहा है ।
गोस्वामीजीने वर्णन किया है—
कलि केवल मल मूल
मलिन ।
पाप पयोनिधि जन मन मीना ॥
(मानस,
बालकाण्ड, २७ । ४)
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें
नाम-वन्दना’ पुस्तकसे |