(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रीरामचरितमानसमें चार संवाद आये हैं—१. पार्वतीजी एवं शंकरभगवान्का, २. याज्ञवल्क्यजी और भरद्वाजजीका, ३.
कागभुशुण्डिजी और गरुड़जीका तथा ४. सन्तों और गोस्वामीजी महाराजका संवाद । यहाँ
गोस्वामीजी महाराज सन्तोंको नाम-महिमा सुनाते हुए कह रहे हैं कि ये दोनों अक्षर
ऐसे सुन्दर और प्यारे हैं, जैसे तुलसीको राम और लखन प्यारे लगते हैं । रामचरितमानस
समाप्त हुई, तब रघुवंशी रामजी और उनके नाम—इन दोनोंके विषयमें एक बात कही है—
कामिहि नारि पिआरि जिमि
लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरन्तर
प्रिय लागहु मोहि
राम ॥
(मानस,
उत्तरकाण्ड १३० ख)
दोनों उदाहरण ऐसे दिये, जिनको हरेक आदमी समझ सके और जिसमें
हरेक आदमीका मन खींचे । सिद्धान्त समझाना हो तो दृष्टान्त वही दिया जाता है, जो हरेक आदमीके अनुभवमें आता
हो । परन्तु यहाँ गोस्वामीजी महाराज कहते हैं—‘राम लखन सम प्रिय तुलसी के’—हरेक आदमीको क्या पता कि तुलसीको राम और लक्ष्मण किस तरह
प्यारे लगते हैं ? राम-लक्षमण उसको भी प्यारे लगें, तब वह समझे कि ‘राम’ नाम कितना
प्यारा हैं ! इतने ऊँचे कवि होकर कैसा दृष्टान्त देते हैं । अब हम क्या समझें,
तुलसीको कैसे प्यारे लगते हैं ? तो कहते हैं—‘कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम’—जैसे कामीको स्त्री प्यारी लगती है और लोभीको दाम प्यारा
लगता है, ऐसे मेरेको राम प्यारे लगें । ‘तिमि रघुनाथ
निरन्तर प्रिय लागहु मोहि राम’—गोस्वामीजी
महाराजने दो नाम लिये । ‘कामिहि नारि पिआरी जिमि’—में लिख दिया ‘रघुनाथ’ और ‘लोभिहि प्रिय जिमि दाम’—में लिख दिया ‘राम’ नाम ।
कामीको सुन्दररूप अच्छा लगता है और लोभीको दाम प्यारे लगते हैं । वह सुन्दरताकी ओर
नहीं देखता । वह गिनती देखता है । उसको गिनती अच्छी लगती है । रघुवंशियोंके मालिक
महाराजाधिराज श्रीराम विराजमान हैं, ऐसा उनका रूप और ‘राम’ नाम—ये दोनों प्यारे लगें अर्थात् भगवान्का
स्वरूप और भगवान्का नाम—ये दोनों प्यारे लगें । एक कविने कहा है—
सुवरण को ढूँढ़त फिरत कवि व्यभिचारी चोर ।
चरन धरत धड़कत हियो नेक न
भावत शोर ॥
कवि, व्यभिचारी और चोर—ये तीनों ही ‘सुवर्ण’
ढूँढ़ते हैं । व्यभिचारी सुन्दर स्वरूपको ढूँढ़ता है और चोर सोना ढूँढ़ता है । ‘चरण धरत धड़कत हियो’—कवि भी किसी श्लोकाका चरण रखता है तो उसका हृदय धड़कता है ।
मानो उसके यह भाव आता है कि श्लोक बढ़िया लिखा गया या नहीं । श्लोकके चार चरण होते
हैं । व्यभिचारी और चोरका भी चरण रखते
हृदय धड़कता है कि कोई देख न ले । ‘नेक न भावत शोर’—न कविको हल्ला-गुल्ला सुहाता है, न व्यभिचारीको और न चोरको
। इस तरह तीनों ‘सुवर्ण’ को ढूँढ़ते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
|