(गत ब्लॉगसे आगेका)
नाम और नामीकी बात पहले आयी थी जिसमें नामको बड़ा बताया । अब
नामीका विवेचन करते हैं कि नामी कितने प्रकारके होते हैं । तो कहते हैं‒
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा ।
अकथ अगाध अनादि अनूपा ॥
(मानस, बालकाण्ड,
दोहा २३ । १)
परमात्मा एक हैं, परंतु उनके स्वरूप दो हैं‒एक अगुण अर्थात् निर्गुण और दूसरा
सगुण । दो स्वरूपोंका अर्थ क्या हुआ ? गुणोंसे रहित जिसको देखते हैं,
वह अगुण कहलाता है और जिसे गुणोंके सहित देखते हैं,
वह सगुण कहलाता है । ये दोनों उस परमात्माके विशेषण हैं । अब
कहते हैं‒‘अकथ अगाध अनादि अनूपा’
इनका कथन नहीं होता है । पहले भी नाम और नामीको ‘अकथ’
कहा था । अब यहाँ अगुण और सगुण‒दोनों स्वरूपोंको भी अकथ कहते
हैं । वाणीके द्वारा ये वर्णनमें नहीं आते । वाणी भी कुण्ठित हो जाती है । ‘अगाध’‒‘गाध’ नाम सरोवरके तलका है । ये ऐसे गहरे हैं कि तलका पता नहीं चलता
। ये दोनों कबसे हैं ? कहाँसे हैं ? तो कहते हैं ‘अनादि’‒सदासे हैं और सदा ही रहनेवाले हैं । कालसे जिनका माप-तौल नहीं
हो सकता । इतने वर्षोंसे या इतने कल्पोंसे हैं‒ऐसी बात नहीं है और ‘अनूपा’‒इनके लिये कोई उपमा नहीं है । इनको किसकी उपमा दी जाय ! उपमा
लगाकर किसीके बराबर नहीं बताये जा सकते ।
निर्गुण ब्रह्मसे नामकी श्रेष्ठता
मोरे मत बड़ नामु दुइ तें ।
किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें ॥
(मानस, बालकाण्ड,
दोहा २३ । २)
पहले ऐसा कहकर आये हैं कि कौन बड़ा और कौन छोटा है,
यह कहनेमें अपराध है । बड़ा और छोटा कहनेका अवसर आया तो अब अपनी
सम्मति साफ कह देते हैं कि मेरे मतमें दोनोंसे बड़ा नाम है । आगे चलकर उपसंहारमें भी
यही बात कहते हैं‒‘ब्रह्म राम तें नाम बढ़’
क्यों महाराज ! दोनोंसे नाम बड़ा कैसे हुआ ? यदि दोनों स्वरूप
भी नामकी तरह अकथ, अगाध, अनादि, अनूपम हैं तो फिर यह नाम इनसे बड़ा कैसे हो गया ? इसके उत्तरमें
कहते हैं कि नाम महाराजने अपनी शक्ति-प्रभावसे अगुण और सगुण दोनोंको अपने वशमें कर
लिया है । मानो नाम जपनेसे निर्गुणका बोध हो जाय और सगुण भी प्रकट हो जाय । इसलिये
यह दोनोंसे बड़ा है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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