।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७१, सोमवार
मानसमें नाम-वन्दना

      


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रेमकी बात बड़ी अलौकिक है । संतोंने इसे पंचम पुरुषार्थ माना है । अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष‒ये चार पुरुषार्थ माने जाते हैं । मनुष्योंमें कई तो अर्थ‒धन चाहते हैं, कई सुख चाहते हैं कि संसारका सुख मिल जाय, भोग‒कामना पूर्ति चाहते हैं, कई धर्मका अनुष्ठान करना चाहते हैं, इसके लिये दान-पुण्यादि करते हैं और कई मुक्ति चाहते हैं, अपना कल्याण चाहते हैं । ये चार तरहकी चाहनाएँ होती हैं । इनमें किसीके कोई चाहना मुख्य और कोई गौण रहती है, पर इन चाहनावालोंसे प्रेमी भक्त विलक्षण ही होते हैं । वे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष‒इनमेंसे कुछ भी नहीं चाहते । वे भगवान्‌में तल्लीन रहते हैं ।

अद्वैतवीथी पथिकैरूपास्याः स्वाराज्यसिंहासनलब्धदीक्षाः ।
शठेन   केनापि   वयं   हठेन    दासीकृता   गोपवधूविटेन ॥

भक्तिरसायन’ ग्रन्थमें, वेदान्तमें अद्वैत-सिद्धान्तके बड़े भारी आचार्य श्रीमधुसूदनाचार्यजी कहते हैं कि जो अद्वैत-मार्गमें चलनेवाले हैं, उनके हम उपास्य हैं, कोई मामूली थोड़े ही हैं । स्वानन्द, ब्रह्मानन्दमें भी पूर्ण हैं, फिर भी हम तो भगवान्‌की तरफ खिंच गये । इस प्रेमको उन्होंने पाँचवाँ पुरुषार्थ माना है । भगवान्‌के प्रेमीकी बात बहुत विलक्षण है ।

दार्शनिकोंने विचार बहुत किया है; परंतु प्रेमकी तरफ कम किया है । कई-कई वैष्णवशास्त्रोंमें प्रेमका वर्णन आता है । परंतु दर्शन’ नाम है अनुभवका । दार्शनिक चीज प्रायः अनुभवकी होती है । प्रेमी लोग अपना अनुभव भी नहीं चाहते हैं । वे भगवान्‌से प्यार करते हैं, केवल भगवान् मीठे लगते हैं । इसलिये रात-दिन उसीमें मस्त रहते हैं । वे मुक्तिकी भी परवाह नहीं करते हैं । मुक्तिकी परवाह वे करें, जिनके बन्धन है । उनके बन्धन दूसरा है ही नहीं । बन्धन एक भगवान्‌का ही है । विनोदमें संत कहते हैं-

अब तो भोग मोक्षकी इच्छा व्याकुल कभी न करती है ।
मुखड़ा ही नित नव बन्धन है  मुक्ति चरणसे झरती है ॥

          उनको न तो संसारकी इच्छा ही व्याकुल करती है और न मुक्तिकी इच्छा व्याकुल करती है । भगवान्‌का स्वरूप ही उनके लिये बन्धन है । वह नित्य नया बन्धन प्रिय लगता है । दिने दिने नवं नवं नमामि नन्दसम्भवम् ।’  मुक्तिमें आनन्द शान्त एकरस रहता है । प्रेममें प्रतिक्षणं वर्धमानम् प्रतिक्षण आनन्द बढ़ता ही रहता है । भगवान्‌के दर्शन करनेवाले कहते हैं‒

‘आज अनूप बनी युगल छबि, आज अपूय बनी’ युगल सरकारकी छवि आज बड़ी सुन्दर बनी है । ऐसे प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमका आनन्द है । प्रेमकी विशेष लहरें उठती रहती हैं, जिसे प्रेमी लोग ही जानते हैं । अपने स्वरूपको जाननेवाले ज्ञानी-मुक्त लोग उस प्रेमकी विशेषताको नहीं जानते हैं । उन्हें अपने स्वरूपमें ही सम, शान्त, अखण्ड आनन्दका निरन्तर अनुभव होता रहता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे