।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७१, रविवार
मानसमें नाम-वन्दना

      


(१३ जनवरी-२०१५के ब्लॉगसे आगेका)

शरणागति सुगम होती है, जब अपनेपर आफत आती है और अपनेको कोई भी उपाय नहीं सूझता, तब हम भगवान्‌के शरण होते हैं । उस समय हम जितना भगवान्‌के आधीन होते हैं, उतना ही काम बहुत जल्दी बनता है । इसमें विधिकी आवश्यकता नहीं है । बालक माँको पुकारता है तो क्या कोई विधि पूछता है, या मुहूर्त पूछता है कि इस समयमें रोना शुरू करूँ, यह सिद्ध होगा कि नहीं होगा अथवा ऐसा समय बाँधता है कि आधा घण्टा रोऊँ या दस मिनट रोऊँ; वह तो माँ नहीं मिले, तबतक रोता रहता है । इस माँके मिलनेमें सन्देह है । यह माँ मर गयी हो या कहीं दूर चली गयी हो तो कैसे आवेगी ? पर ठाकुरजी तो सर्वतः श्रुतिमल्लोके’ सब जगह सुनते हैं । इसलिये हे नाथ ! हे नाथ ! मैं आपकी शरण हूँ’‒ऐसे भगवान्‌के शरण हो जायँ, उनके आश्रित हो जायँ । इसमें अगर कोई बाधक है तो वह है अपनी बुद्धिका, अपने वर्णका, अपने आश्रमका, अपनी योग्यता-विद्या आदिका अभिमान । भीतरमें उनका सहारा रहता है कि मैं ऐसा काम कर सकता हूँ । जबतक यह बल, बुद्धि, योग्यता आदिको अपनी मानता रहता है, तबतक सच्ची शरण हो नहीं सकता । इसलिये इनके अभिमानसे रहित होकर चाहे कोई शरण हो जाय और जब कभी हो जाय, उसी वक्त उसका बेड़ा पार है ।

नाम-वन्दनाके प्रकरणमें नामकी महिमाका प्रकरण चल रहा है । उसमें चार प्रकारके भक्तोंका वर्णन हुआ । अब गोस्वामीजी महाराज प्रेमी भक्तका वर्णन करते हैं‒

नाम-प्रेमी भक्त

सकल कामना हीन  जे  राम भगति रस लीन ।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन ॥
(मानस, बालकाण्ड, दोहा २२)

वे भगवान्‌की भक्तिरूपी रसमें रात-दिन तल्लीन रहते हैं, उनके किसी तरहकी किंचिन्मात्र भी कोई कामना नहीं है । उनके कामना क्यों नहीं है ? नामरूपी एक बड़ा भारी अमृतका सरोवर है । उन्होंने अपने मनको उस सरोवरकी मछली बना लिया है और हर समय भगवान्‌के प्रेममें ही मतवाले रहते हैं । भगवान्‌के प्रेमी भक्त चाहे परमात्माके तत्त्वको न जानें, पर फिर भी वे परमात्माकी तरफ स्वाभाविक ही आकृष्ट हो जाते हैं । उनके मनमें और कोई इच्छा नहीं रहती है । न तत्त्वको जाननेकी इच्छा है, न अपने दुःख दूर करनेकी इच्छा है और न कोई धनादि पदार्थोंकी इच्छा है । किसी तरहकी कोई लिप्सा नहीं । केवल भगवान्‌के प्रेममें रात-दिन मस्त रहते हैं । इसके अलावा उनके कोई विचार ही नहीं उठता । उन्हें कुछ करना बाकी नहीं, कुछ जानना बाकी नहीं और कुछ पाना बाकी नहीं । स्वाभाविक ही उनका भगवान्‌में प्रेम रहता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे