(गत ब्लॉगसे आगेका)
जब स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर तथा उनके कार्य क्रिया,
चिन्तन और स्थिरताके साथ हमारा सम्बन्ध ही नहीं तो फिर उनका
संयोग हो अथवा वियोग हो, हमारेमें क्या फर्क पड़ता है ? ऐसा ही अनुभव गुणातीतको भी होता
है‒
प्रकाश च प्रवृत्तिं च मोहमेव च
पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥
(गीता
१४ । २२)
‘हे पाण्डव ! प्रकाश, प्रवृत्ति तथा मोह‒ये सभी अच्छी तरहसे प्रवृत्त हो जायँ तो भी गुणातीत मनुष्य इनसे
द्वेष नहीं करता और ये सभी निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा नहीं करता ।’
संयोग-वियोग तो सापेक्ष हैं,
पर तत्त्व निरपेक्ष है । तत्त्वमें न संयोग है,
न वियोग है, प्रत्युत ‘नित्य-योग’
है‒‘तं विद्याद् दुःखसयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (गीता
६ । २३) ।
जबतक हमारा सम्बन्ध पदार्थ, क्रिया, चिन्तन, स्थिरताके
साथ रहता है, तबतक परतन्त्रता रहती है; क्योंकि पदार्थ,
क्रिया आदि ‘पर’ हैं, ‘स्व’ नहीं हैं । इनसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर हम स्वतन्त्र (मुक्त)
हो जाते हैं । वास्तवमें हमारा स्वरूप ( होनापन) स्वतन्त्रता-परतन्त्रता दोनोंसे रहित
है; क्योंकि स्वतन्त्रता-परतन्त्रता तो सापेक्ष हैं,
पर स्वरूप निरपेक्ष है ।
भगवान्ने कहा है‒
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
(गीता २ । १६)
‘असत्का भाव विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव
विद्यमान नहीं है ।’
शरीर, पदार्थ, क्रिया, अवस्था आदि असत् हैं;
अतः उनका भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है अर्थात् उनका निरन्तर
अभाव है । स्वरूप सत् है, अतः उसका अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् उसका निरन्तर भाव (सत्ता)
है । असत्के साथ अपने सम्बन्धको न माननेसे अभावरूप असत्का अभाव हो जाता है और भावरूप
सत् ज्यों-का-त्यों रह जाता है और उसका अनुभव हो जाता है ।
ज्ञानमार्गमें असत्से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और अपने स्वरूप
(चिन्मय सत्तामात्र) में स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है । फिर स्वरूप जिसका
अंश है, उस परमात्माकी ओर स्वतः आकर्षण होता है,
जिसको प्रेम कहते हैं । अपना स्वरूप
सभीको प्रिय लगता है, फिर वह जिसका अंश है, वे
परमात्मा कितने प्रिय लगेंगे‒इसका कोई पारावार नहीं है !
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे
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