।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७१, शुक्रवार
अमरताका अनुभव

      


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒शरीर मैं नहीं हूँ‒यह तो ठीक है, पर शरीर मेरा और मेरे लिये तो है ही ?

उत्तर‒शरीरके साथ हम तीन तरहके सम्बन्ध मानते हैं‒(१) शरीर मैं हूँ, (२) शरीर मेरा है और (३) शरीर मेरे लिये है । ये तीनों ही सम्बन्ध बनावटी हैं, वास्तविक नहीं हैं । वास्तवमें शरीर ‘मैं’ भी नहीं है, ‘मेरा’ भी नहीं है और ‘मेरे लिये’ भी नहीं है । कारण कि अगर शरीर ‘मैं’ होता तो शरीरके बदलनेपर मैं भी बदल जाता और शरीरके मरनेपर मेरा भी अभाव हो जाता । परन्तु यह सबका अनुभव है कि शरीर पहले जैसा था, वैसा आज नहीं है, पर मैं वही हूँ । शरीर बदला है, पर मैं नहीं बदला । अगर शरीर ‘मेरा’ होता तो उसपर मेरा पूरा अधिकार चलता अर्थात् मैं जैसा चाहता, वैसा ही शरीरको रख सकता, उसको सुन्दर बना देता उसका रंग बदल देता, उसको बदलने नहीं देता, बीमार नहीं होने देता, कमजोर नहीं होने देता, बूढ़ा नहीं होने देता और कम-से-कम मरने तो देता ही नहीं । परन्तु यह सबका अनुभव है कि शरीरपर हमारा बिलकुल वश नहीं चलता और न चाहते हुए भी, लाख कोशिश करते हुए भी वह बीमार हो जाता है, कमजोर हो जाता है, वृद्ध हो जाता है और मर भी जाता है । अगर शरीर ‘मेरे लिये’ होता तो उसके मिलनेपर हमें सन्तोष हो जाता, हमारे भीतर और कुछ पानेकी इच्छा नहीं रहती और शरीरसे कभी वियोग भी नहीं होता, वह सदा मेरे साथ ही रहता । परन्तु यह सबका अनुभव है कि शरीर मिलनेपर भी हमें किंचिन्मात्र सन्तोष नहीं होता, हमारी इच्छाएँ समाप्त नहीं होतीं, हमें पूर्णताका अनुभव नहीं होता और शरीर भी निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत हमारेसे बिछुड़ जाता है ।

जैसे स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसे ही स्थूलशरीरसे होनेवाली ‘क्रिया’, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला ‘चिन्तन’ और कारणशरीरसे होनेवाली ‘स्थिरता’ (समाधि) के साथ भी हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । कारण यह है कि प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और समाप्ति होती है । कोई भी चिन्तन निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत आता-जाता रहता है । स्थिरताके बाद चंचलता, समाधिके बाद व्युत्थान होता ही है । तात्पर्य है कि न तो क्रिया निरन्तर रहती है, न चिन्तन निरन्तर रहता है और न स्थिरता निरन्तर रहती है । इन तीनोंके आने-जानेका, परिवर्तनका अनुभव तो हम सबको होता है, पर अपने परिवर्तनका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । हमारा होनापन निरन्तर रहता है । हमारे साथ न तो पदार्थ एवं क्रिया रहती है, न चिन्तन रहता है और न स्थिरता ही रहती है । हम अकेले ही रहते हैं । इसलिये हमें अकेले (पदार्थ, क्रिया, चिन्तन और स्थिरतासे रहित) रहनेका स्वभाव बनाना चाहिये ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे