(गत ब्लॉगसे आगेका)
किसी प्रियजनकी मृत्यु हो जाय,
धन चला जाय तो मनुष्यको शोक होता है । ऐसे ही भविष्यको लेकर
चिन्ता होती है कि अगर स्त्री मर गयी तो क्या होगा ?
पुत्र मर गया तो क्या होगा ?
ये शोक-चिन्ता भी विवेकको महत्त्व न देनेके कारण
ही होते हैं । संसारमें परिवर्तन होना, परिस्थिति
बदलना आवश्यक है । यदि परिस्थिति नहीं बदलेगी तो संसार कैसे चलेगा ? मनुष्य बालकसे जवान कैसे बनेगा ?
मूर्खसे विद्वान-कैसे बनेगा ?
रोगीसे नीरोग कैसे बनेगा ?
बीजका वृक्ष कैसे बनेगा ?
परिवर्तनके बिना संसार स्थिर चित्रकी तरह बन जायगा ! वास्तवमें
मरनेवाला (परिवर्तनशील) ही मरता है, रहनेवाला कभी मरता ही नहीं । यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि
मृत्यु होनेपर शरीर तो हमारे सामने पड़ा रहता है,
पर शरीरका मालिक (जीवात्मा) निकल जाता है । यदि इस अनुभवको महत्त्व
दें तो फिर चिन्ता-शोक हो ही नहीं सकते । बालिके मरनेपर भगवान् राम इसी अनुभवकी ओर
ताराका लक्ष्य कराते हैं‒
तारा बिकल देखि रधुराया । दीन्ह ध्यान हरि लीन्ही माया ॥
छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
प्रगट सो तनु तव आगे सोवा । जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥
उपजा ज्ञान चरन तब लागी । लीन्हेसि परम भगति बर माँगी ॥
(मानस, किष्किन्धा॰ ११ । २-३)
प्रश्न‒विवेकका
आदर न होनेमें खास कारण क्या है ?
उत्तर‒खास
कारण है‒संयोगजन्य सुखकी आसक्ति । हम संयोगजन्य सुखका भोग
करना चाहते हैं, इसीलिये अपने विवेकका आदर नहीं होता अर्थात् ज्ञान भीतर ठहरता नहीं । तात्पर्य
है कि भोगोंमें जितनी आसक्ति होती है, उतनी ही
बुद्धिमें जडता आती है, जिससे सत्संगकी
तात्त्विक बातें पढ़-सुनकर भी समझमें नहीं आतीं
। गीतामें आया है कि भोग और संग्रहमें आसक्त मनुष्य परमात्माकी प्राप्तिका निश्चय भी
नहीं कर सकते[1] । भोगोंकी
आसक्तिसे उनका ज्ञान ढका जाता है[2] । इसलिये
जबतक वस्तु व्यक्ति, क्रिया, चिन्तन, स्थिरता
(समाधि) आदिमें किंचिन्मात्र भी राग है, तबतक ज्ञान
सीखा हुआ ही है‒‘रागो लिङ्गमबोधस्य’ ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन
च ॥
(गीता ३
। ३९)
‘हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्निके समान कभी तृप्त
न होनेवाले और विवेकियोके नित्य वैरी इस कामके द्वारा मनुष्यका विवेक ढका हुआ है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे
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