।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७१, गुरुवार
अमरताका अनुभव

      


(गत ब्लॉगसे आगेका)

किसी प्रियजनकी मृत्यु हो जाय, धन चला जाय तो मनुष्यको शोक होता है । ऐसे ही भविष्यको लेकर चिन्ता होती है कि अगर स्त्री मर गयी तो क्या होगा ? पुत्र मर गया तो क्या होगा ? ये शोक-चिन्ता भी विवेकको महत्त्व न देनेके कारण ही होते हैं । संसारमें परिवर्तन होना, परिस्थिति बदलना आवश्यक है । यदि परिस्थिति नहीं बदलेगी तो संसार कैसे चलेगा ? मनुष्य बालकसे जवान कैसे बनेगा ? मूर्खसे विद्वान-कैसे बनेगा ? रोगीसे नीरोग कैसे बनेगा ? बीजका वृक्ष कैसे बनेगा ? परिवर्तनके बिना संसार स्थिर चित्रकी तरह बन जायगा ! वास्तवमें मरनेवाला (परिवर्तनशील) ही मरता है, रहनेवाला कभी मरता ही नहीं । यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि मृत्यु होनेपर शरीर तो हमारे सामने पड़ा रहता है, पर शरीरका मालिक (जीवात्मा) निकल जाता है । यदि इस अनुभवको महत्त्व दें तो फिर चिन्ता-शोक हो ही नहीं सकते । बालिके मरनेपर भगवान् राम इसी अनुभवकी ओर ताराका लक्ष्य कराते हैं‒

तारा बिकल देखि रधुराया । दीन्ह ध्यान हरि लीन्ही माया ॥
छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
प्रगट सो तनु तव आगे सोवा । जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥
उपजा ज्ञान चरन तब लागी । लीन्हेसि परम भगति बर माँगी ॥
                                (मानस, किष्किन्धा ११ । २-३)

प्रश्न‒विवेकका आदर न होनेमें खास कारण क्या है ?

उत्तर‒खास कारण है‒संयोगजन्य सुखकी आसक्ति । हम संयोगजन्य सुखका भोग करना चाहते हैं, इसीलिये अपने विवेकका आदर नहीं होता अर्थात् ज्ञान भीतर ठहरता नहीं । तात्पर्य है कि भोगोंमें जितनी आसक्ति होती है, उतनी ही बुद्धिमें जडता आती है, जिससे सत्संगकी तात्त्विक बातें पढ़-सुनकर भी समझमें नहीं आतीं । गीतामें आया है कि भोग और संग्रहमें आसक्त मनुष्य परमात्माकी प्राप्तिका निश्चय भी नहीं कर सकते[1] । भोगोंकी आसक्तिसे उनका ज्ञान ढका जाता है[2] । इसलिये जबतक वस्तु व्यक्ति, क्रिया, चिन्तन, स्थिरता (समाधि) आदिमें किंचिन्मात्र भी राग है, तबतक ज्ञान सीखा हुआ ही है‒‘रागो लिङ्गमबोधस्य’


[1] भोगैश्वर्यप्रसक्तानां         तयापहृतचेतसाम् ।
   व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
                                              (गीता २ । ४४)


[2] आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
    कामरूपेण कौन्तेय   दुष्पूरेणानलेन च ॥
                                        (गीता ३ । ३९)

‘हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्निके समान कभी तृप्त न होनेवाले और विवेकियोके नित्य वैरी इस कामके द्वारा मनुष्यका विवेक ढका हुआ है ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे