(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒अभी
सिंह सामने आ जाय तो भय लगेगा ही ?
उत्तर‒भय इस कारण लगेगा कि ‘मैं शरीरसे अलग हूँ’‒यह बात सुनकर
सीख ली है, समझी नहीं है । सीखी हुई और समझी हुई
बातमें यही फर्क है । तोता अन्य समय तो राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण करता है,
पर जब बिल्ली पकड़ती है,
तब टें-टें करता है,
जबकि समय तो अब राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण करनेका है ! परन्तु सीखा
हुआ ज्ञान समयपर काम नहीं आता ।
सिंह आ जाय तो उससे बचनेकी चेष्टा करनेमें कोई दोष नहीं है,
पर भयभीत होना दोषी है । कारण कि मरनेवाला तो मर ही रहा है और
जीनेवाला जी ही रहा है, फिर भय किस बातका ? सिंह मारेगा तो मरनेवालेको ही मारेगा,
जीनेवालेको कैसे मारेगा ?
सिंह खा लेगा तो उसकी भूख मिट जायगी, अपनेमें क्या फर्क पड़ेगा
? मरनेवालेको कबतक बचाओगे ? वह तो मरेगा ही । अतः न जीनेकी इच्छा
करनी है, न मरनेका भय करना है ।
एक मार्मिक बात है । सत्संग करनेसे पहले जितना भय लगता है,
उतना भय सत्संगके बाद नहीं लगता । सत्संग
करनेसे वृत्तियोंमें बहुत फर्क पड़ता है और विकार अपने-आप नष्ट होते हैं । परन्तु ऐसा
तब होगा, जब हम सत्संगकी बातोंको आदर देंगे, महत्त्व
देंगे, उनका अनुभव करेंगे । सत्संगकी बातोंको महत्त्व देनेसे साधकके अनुभवमें ये तीन बातें
अवश्य आती हैं‒
(१)
काम-क्रोधादि विकार पहले जितनी तेजीसे आते थे,
उतनी तेजीसे अब नहीं आते ।
(२)
पहले जितनी देर ठहरते थे, उतनी देर अब नहीं ठहरते ।
(३) पहले जितनी जल्दी आते थे,
उतनी जल्दी अब नहीं आते ।
‒इन
बातोंको देखकर साधकका उत्साह बढ़ना चाहिये कि जो विकार कम होता है, वह
नष्ट भी अवश्य होता है । व्यापारमें तो लाभ और नुकसान दोनों होते हैं, पर
सत्संगमें लाभ-हीं-लाभ होता है, नुकसान होता ही नहीं । जैसे माँकी गोदीमें पड़ा हुआ बालक अपने-आप बड़ा होता है,
बड़ा होनेके लिये उसको उद्योग नहीं करना पड़ता । ऐसे ही सत्संगमें
पड़े रहनेसे मनुष्यका अपने-आप विकास होता है । अगर जिज्ञासा
जोरदार हो और थोड़ा भी विकार असह्य हो तो तत्काल सिद्धि होती है ।
सत्संगसे
विवेक जाग्रत् होता है । साधक जितने अंशमें उस विवेकको महत्त्व देता है, उतने अंशमें
उसके काम-क्रोधादि विकार कम हो जाते हैं । विवेकको सर्वथा महत्त्व देनेसे वह विवेक
ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है, फिर दूसरी
सत्ताका अभाव होनेसे विकार रहनेका प्रश्र ही पैदा नहीं होता । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान
होनेपर विकारोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे
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