।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७१, बुधवार
अमरताका अनुभव

      


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒अभी सिंह सामने आ जाय तो भय लगेगा ही ?

उत्तर‒भय इस कारण लगेगा कि ‘मैं शरीरसे अलग हूँ’‒यह बात सुनकर सीख ली है, समझी नहीं है । सीखी हुई और समझी हुई बातमें यही फर्क है । तोता अन्य समय तो राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण करता है, पर जब बिल्ली पकड़ती है, तब टें-टें करता है, जबकि समय तो अब राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण करनेका है ! परन्तु सीखा हुआ ज्ञान समयपर काम नहीं आता ।

सिंह आ जाय तो उससे बचनेकी चेष्टा करनेमें कोई दोष नहीं है, पर भयभीत होना दोषी है । कारण कि मरनेवाला तो मर ही रहा है और जीनेवाला जी ही रहा है, फिर भय किस बातका ? सिंह मारेगा तो मरनेवालेको ही मारेगा, जीनेवालेको कैसे मारेगा ? सिंह खा लेगा तो उसकी भूख मिट जायगी, अपनेमें क्या फर्क पड़ेगा ? मरनेवालेको कबतक बचाओगे ? वह तो मरेगा ही । अतः न जीनेकी इच्छा करनी है, न मरनेका भय करना है ।

एक मार्मिक बात है । सत्संग करनेसे पहले जितना भय लगता है, उतना भय सत्संगके बाद नहीं लगता । सत्संग करनेसे वृत्तियोंमें बहुत फर्क पड़ता है और विकार अपने-आप नष्ट होते हैं । परन्तु ऐसा तब होगा, जब हम सत्संगकी बातोंको आदर देंगे, महत्त्व देंगे, उनका अनुभव करेंगे । सत्संगकी बातोंको महत्त्व देनेसे साधकके अनुभवमें ये तीन बातें अवश्य आती हैं‒

(१)                    काम-क्रोधादि विकार पहले जितनी तेजीसे आते थे, उतनी तेजीसे अब नहीं आते ।
                     
(२)                    पहले जितनी देर ठहरते थे, उतनी देर अब नहीं ठहरते ।
                 
(३) पहले जितनी जल्दी आते थे, उतनी जल्दी अब नहीं आते ।

इन बातोंको देखकर साधकका उत्साह बढ़ना चाहिये कि जो विकार कम होता है, वह नष्ट भी अवश्य होता है । व्यापारमें तो लाभ और नुकसान दोनों होते हैं, पर सत्संगमें लाभ-हीं-लाभ होता है, नुकसान होता ही नहीं । जैसे माँकी गोदीमें पड़ा हुआ बालक अपने-आप बड़ा होता है, बड़ा होनेके लिये उसको उद्योग नहीं करना पड़ता । ऐसे ही सत्संगमें पड़े रहनेसे मनुष्यका अपने-आप विकास होता है । अगर जिज्ञासा जोरदार हो और थोड़ा भी विकार असह्य हो तो तत्काल सिद्धि होती है ।

सत्संगसे विवेक जाग्रत् होता है । साधक जितने अंशमें उस विवेकको महत्त्व देता है, उतने अंशमें उसके काम-क्रोधादि विकार कम हो जाते हैं । विवेकको सर्वथा महत्त्व देनेसे वह विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है, फिर दूसरी सत्ताका अभाव होनेसे विकार रहनेका प्रश्र ही पैदा नहीं होता । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान होनेपर विकारोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे