।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
माघ पूर्णिमा, वि.सं.२०७१, मंगलवार
माघी पूर्णिमा, माघ-स्नान समाप्त
अमरताका अनुभव

      


(गत ब्लॉगसे आगेका)

हम शरीरमें अपनी स्थिति मान लेते हैं, अपनेको शरीर मान लेते हैं तो यह हमारी गलती है । गलत बातका आदर करना और सही बातका निरादर करना ही मुक्तिमें खास बाधा है । अपनेको शरीर मानकर ही हम कहते हैं कि मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ । वास्तवमें हम न बालक हुए, न हम जवान हुए, न हम बूढ़े हुए, प्रत्युत शरीर ही बालक हुआ, शरीर ही जवान हुआ, शरीर ही बूढ़ा हुआ । शरीर बीमार हो गया तो मैं बीमार हो गया, शरीर कमजोर हो गया तो मैं कमजोर हो गया, धन पासमें आ गया तो मैं धनी हो गया, धन चला गया तो मैं निर्धन हो गया‒यह शरीर और धनके साथ एकता माननेसे ही होता है । जब क्रोध आता है, तब हम कहते हैं कि मैं क्रोधी हूँ ! विचार करें, क्या क्रोध सब समय रहता है ? सबके लिये होता है ? जो हरदम नहीं रहता और जो सबके लिये नहीं होता, वह मेरेमें कैसे हुआ ? कुत्ता घरमें आ गया तो क्या वह घरका मालिक हो गया ? ऐसे ही क्रोध आ गया तो क्या मैं क्रोधी हो गया ? क्रोध तो आता है और चला जाता है, पर मैं निरन्तर रहता हूँ ।

देश बदलता है, काल बदलता है, वस्तुएँ बदलती हैं, व्यक्ति बदलते हैं, क्रिया बदलती है, अवस्था बदलती है, परिस्थिति बदलती है, घटना बदलती है, पर हम निरन्तर रहते हैं । जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति‒यें तीनों अवस्थाएँ बदलती हैं, पर हम तो एक ही रहते हैं, तभी हमें अवस्थाओंका और उनके परिवर्तनका अर्थात् उनके आरम्भ और अन्तका ज्ञान होता है । स्थूल दृष्टिसे विचार करें तो जैसे हम हरिद्वारसे ऋषिकेश आये तो पहले हम हरिद्वारसे रायवाला आये, फिर रायवालासे ऋषिकेश आये । अगर हम हरिद्वारमें ही रहनेवाले होते तो रायवाला और ऋषिकेश कैसे आते ? रायवालामें रहनेवाले होते तो हरिद्वार और ऋषिकेश कैसे आते ? ऋषिकेशमें रहनेवाले होते तो हरिद्वार और रायवाला कैसे आते ? अतः हम न तो हरिद्वारमें रहते हैं, न रायवालामें रहते हैं, न ऋषिकेशमें रहते हैं । हरिद्वार, रायवाला और ऋषिकेश‒तीनों अलग-अलग हैं, पर हम एक ही हैं । हरिद्वारमें भी हम वही रहे, रायवालामें भी हम वही रहे और ऋषिकेशमें भी हम वही रहे । ऐसे ही जाग्रत्‌में भी हम वही रहे, स्वप्नमें भी हम वही रहे और सुषुप्तिमें भी हम वही रहे । अतः बदलनेवालेको न देखकर रहनेवालेको देखना है अर्थात् अपनेमें निर्लिप्तताका अनुभव करना है‒ ‘रहता रूप सही कर राखो, बहता संग न बहीजे ।’

बदलनेवालेके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है‒यही अमरता (मुक्ति) है । अमरता स्वतःसिद्ध और स्वाभाविक है, करनी नहीं पड़ती । मृत्युके साथ सम्बन्ध तो हमने माना है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे