(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम शरीरमें अपनी स्थिति मान लेते हैं, अपनेको
शरीर मान लेते हैं तो यह हमारी गलती है । गलत बातका आदर करना और सही बातका निरादर करना
ही मुक्तिमें खास बाधा है । अपनेको शरीर मानकर ही हम कहते हैं कि मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ
। वास्तवमें हम न बालक हुए, न हम जवान हुए, न हम बूढ़े हुए, प्रत्युत शरीर ही बालक हुआ,
शरीर ही जवान हुआ, शरीर ही बूढ़ा हुआ । शरीर बीमार हो गया तो मैं बीमार हो गया,
शरीर कमजोर हो गया तो मैं कमजोर हो गया,
धन पासमें आ गया तो मैं धनी हो गया,
धन चला गया तो मैं निर्धन हो गया‒यह शरीर और धनके साथ एकता माननेसे
ही होता है । जब क्रोध आता है, तब हम कहते हैं कि मैं क्रोधी हूँ ! विचार करें,
क्या क्रोध सब समय रहता है ?
सबके लिये होता है ?
जो हरदम नहीं रहता और जो सबके लिये नहीं होता,
वह मेरेमें कैसे हुआ ?
कुत्ता घरमें आ गया तो क्या वह घरका मालिक हो गया
? ऐसे ही क्रोध आ गया तो क्या मैं क्रोधी हो गया ? क्रोध
तो आता है और चला जाता है, पर मैं निरन्तर रहता हूँ ।
देश बदलता है, काल बदलता है, वस्तुएँ बदलती हैं,
व्यक्ति बदलते हैं,
क्रिया बदलती है, अवस्था बदलती है, परिस्थिति बदलती है,
घटना बदलती है, पर हम निरन्तर रहते हैं । जाग्रत्
स्वप्न और सुषुप्ति‒यें तीनों अवस्थाएँ बदलती हैं, पर
हम तो एक ही रहते हैं, तभी हमें अवस्थाओंका और उनके परिवर्तनका अर्थात्
उनके आरम्भ और अन्तका ज्ञान होता है । स्थूल दृष्टिसे विचार करें तो जैसे हम हरिद्वारसे ऋषिकेश आये तो पहले हम हरिद्वारसे
रायवाला आये, फिर रायवालासे ऋषिकेश आये । अगर हम हरिद्वारमें ही रहनेवाले
होते तो रायवाला और ऋषिकेश कैसे आते ? रायवालामें रहनेवाले होते तो हरिद्वार और ऋषिकेश
कैसे आते ? ऋषिकेशमें रहनेवाले होते तो हरिद्वार और रायवाला कैसे आते ?
अतः हम न तो हरिद्वारमें रहते हैं,
न रायवालामें रहते हैं,
न ऋषिकेशमें रहते हैं । हरिद्वार,
रायवाला और ऋषिकेश‒तीनों अलग-अलग हैं,
पर हम एक ही हैं । हरिद्वारमें भी हम वही रहे,
रायवालामें भी हम वही रहे और ऋषिकेशमें भी हम वही रहे । ऐसे
ही जाग्रत्में भी हम वही रहे, स्वप्नमें भी हम वही रहे और सुषुप्तिमें भी हम वही रहे । अतः
बदलनेवालेको न देखकर रहनेवालेको देखना है अर्थात् अपनेमें निर्लिप्तताका अनुभव करना
है‒ ‘रहता रूप सही कर राखो, बहता संग न बहीजे ।’
बदलनेवालेके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है‒यही अमरता
(मुक्ति) है । अमरता स्वतःसिद्ध और स्वाभाविक है, करनी
नहीं पड़ती । मृत्युके साथ सम्बन्ध तो हमने माना है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे
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