(गत ब्लॉगसे आगेका)
यहाँ कहते हैं कि ‘निर्गुन रूप सुलभ
अति’ निर्गुणरूपको सुलभ ही नहीं, अत्यन्त सुलभ बताया और सगुणको कोई जानता नहीं,
ऐसा कहा । इस कारण कहा जा सकता है कि दोनों बातोंमें विरोध आता
है । एक जगह निर्गुणको अति सुलभ बता रहे हैं तो दूसरी जगह ‘ग्यान
पंथ कृपान कै धारा’ । इसी तरह ‘सगुन जान नहि कोई’
कह रहे हैं और फिर सुगमता बताकर भक्तिकी महिमा गा रहे हैं ।
दोनों बातोंमें विरोध दीखता है;
परंतु वास्तवमें विरोध नहीं है । निर्गुणरूप
समझनेमें बड़ा सुगम है, उसमें दोषबुद्धि सम्भव नहीं है । उसे तर्क-वितर्कसे समझा जा
सकता है; परंतु सगुणरूपमें दोषबुद्धि हो सकती है तथा तर्क-वितर्क
भी वहाँ चलता नहीं । इसलिये सगुणरूपके समझनेमें कठिनता है । परंतु प्राप्तिके मार्गमें
चला जाय तो सगुणका मार्ग बड़ा सरल है,
सीधा है । सगुण भगवान्की लीला गाकर, पढ़कर, सुनकर
मनुष्य बड़ी सरलतासे भगवत्प्राप्ति कर सकता है । निर्गुण पंथ बड़ा कठिन है, कारण
कि देहाभिमानी मनुष्यकी निर्गुण-तत्त्वमें स्थिति होनी बड़ी कठिन है (गीता १२ । ५) ।
इससे निष्कर्ष निकला कि मार्ग तो सगुणवाला श्रेष्ठ है । साधक
उसके द्वारा जल्दी पहुँचता है और विचारसे एवं तर्कसे निर्गुण स्वरूपको सुगमतासे समझ
सकते हैं, पर सगुणमें तर्क नहीं चलता । इसलिये अपनी-अपनी जगह दोनों ही
श्रेष्ठ हैं, दोनों ही उत्तम हैं ।
खास बात यह है कि पात्रके अनुसार सुगमता और कठिनता
होती है । जिसकी रुचि, योग्यता, विश्वास
निर्गुणमें है, उसके लिये निर्गुणरूप सुलभ है । जिसकी रुचि, विश्वास, योग्यता
सगुणमें है, उसके लिये सगुण सुलभ है । इसलिये पात्रके अनुसार
दोनों ही कठिन हैं और दोनों ही सुगम हैं । जो जिसको चाहता है, वह
उसके लिये सुगम हो जाता है ।
एक रूपकी प्राप्ति होनेपर दोनोंकी ही प्राप्ति हो जाती है,
फिर कोई-सा भी रूप जानना बाकी नहीं रहता;
क्योंकि दोनोंका तत्त्व एक ही है । सगुण और निर्गुण किसी रूपको
लेकर साधक साधना करे, अन्तमें दोनोंको जान लेगा । कारण कि तत्त्वतः दोनों एक ही हैं
।
उभय अगम जुग सुगम नाम तें ।
कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम
तें ॥
(मानस,
बालकाण्ड, दोहा २३ । ५)
दोनों ही रूप नाम लेनेसे सुगम हो जाते हैं । दोनों अगम हैं मानो
बुद्धि वहाँ काम नहीं करती । इस कारण जाननेमें अगम हैं;
परंतु ‘जुग सुगम नाम तें’
नामसे दोनों सुगम हो जाते हैं अर्थात् अगम होते हुए भी नाम-जप
किया जाय तो दोनों ही सुगम हो जायँ ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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