(गत ब्लॉगसे आगेका)
आपने सुना होगा कि कई सगुणरूपके और कई निर्गुणरूपके भक्त हुए हैं उन्होंने भी ‘राम-राम’ किया है । जैसे, श्रीगोस्वामीजी आदि वैरागी बाबा लोग सगुण भगवान्के उपासक हुए,
वे भी ‘राम-राम सीताराम राम-राम’‒ऐसा करते थे । निर्गुण-साधनामें भी संत मतको माननेवाले भक्त
हुए हैं । जैसे, श्रीहरिरामदासजी महाराज,
श्रीरामदासजी महाराज‒ये रामस्नेही सम्प्रदायमें संत हुए हैं
। ये भी ‘राम-राम’ करते थे । बिलकुल प्रत्यक्ष बात है कि नामसे दोनोंरूप सुगम हो
जाते हैं । इसलिये तुलसीदासजी महाराज कहते हैं ‘कहेउँ
नामु बढ़ ब्रह्म राम तें’ राम और ब्रह्मसे नाम बड़ा है । अगुण ब्रह्म हुआ और सगुण रामजी
हुए । इन दोनोंको प्रत्यक्ष करा देनेके कारण नाम दोनोंसे बड़ा हुआ । नामको अगुण-सगुण
दोनोंसे बड़ा कहकर गोस्वामीजी निर्गुण प्रकरण प्रारम्भ करते हैं ।
व्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी ।
सत चेतन घन आनँद रासी ॥
(मानस,
बालकाण्ड, दोहा २३ । ६)
जो दारुगत अग्निकी तरह काष्ठमें व्यापक है और दीखता नहीं है‒ऐसे
सब संसारमें व्यापक अगुण परमात्मा हैं । वह अगुण स्वरूप है । वह अविनाशी है और व्यापकरूपसे
सर्वत्र परिपूर्ण है ‘सत चेतन मन आनँद रासी’
वह सत् है, चेतन है और घन-आनन्द राशि है,
मानो सब जगह केवल आनन्द-ही-आनन्द है,
आनन्दकी राशि है । उस आनन्दरूप परमात्मासे कोई जगह खाली नहीं
है, कोई समय खाली नहीं, कोई वस्तु खाली नहीं,
कोई व्यक्ति खाली नहीं,
कोई परिस्थिति उससे खाली नहीं । सबमें परिपूर्ण ऐसा अविनाशी
वह निर्गुण है । वस्तुएँ नष्ट हो जाती हैं,
व्यक्ति नष्ट हो जाते हैं,
समयका परिवर्तन हो जाता है,
देश बदल जाता है; परंतु यह तत्त्व ज्यों-का-त्यों ही रहता है । सब समयमें,
सब कालमें, सब देशमें, सब वस्तुओंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें,
सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें ज्यों-का-त्यों रहता है । इसका विनाश
नहीं होता, इसलिये यह सत् है । सत् सबका आश्रय है,
आधार है, चित् सबका प्रकाशक है । केवल शुद्धज्ञान-स्वरूप है,
इसलिये चित् है और आनन्दकी तो राशि है,
घन है मानो बड़ा ठोस है । किसी चीजका उसमें प्रवेश सम्भव नहीं
है । लोहेमें तो आग प्रविष्ट हो सकती है; परंतु आनन्दराशिमें कभी दुःख किंचिन्मात्र भी प्रविष्ट नहीं
हो सकता । परमात्मामें परमात्माके सिवाय और किसी पदार्थका प्रवेश सम्भव ही नहीं है,
इतना घन है परमात्मा । इस प्रकार ब्रह्मका स्वरूप बताया ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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