(गत ब्लॉगसे आगेका)
‘सोउ प्रगटत
जिमि मोल रतन तें’‒रत्नका मूल्य
प्रकट हो जाता है । कैसे ? लाखों रुपयोंका बहुत बड़ा कीमती रत्न हो;
परंतु पासमें रहनेपर भी उससे कोई लाभ नहीं मिलता,
जबतक उसका मूल्य न ले लिया जाय । पासमें रहनेपर भी उससे रोटी
नहीं मिलती, कपड़ा नहीं मिलता, मकान नहीं मिलता, सवारी नहीं
मिलती, दवाई नहीं मिलती; पर उस रत्नको बेचकर दाम खड़े कर लिये जायँ तो रुपये खर्च करनेपर
किसी बातकी कमी नहीं रहती । अकेला रत्न पड़ा रहे तो कुछ काम नहीं निकलता । ऐसे दरिद्रता
दूर नहीं होती । ऐसे ही जबतक वह आनन्द प्रकट नहीं किया जाता,
अर्थात् नाम नहीं लिया जाता,
तबतक वह आनन्द प्रकट नहीं होता । नामसे वह प्रकट हो जाता है;
फिर किसी बातकी कमी नहीं रहती । जाननेसे उसका मूल्य प्रकट होता
है ।
हमने एक कहानी सुनी है । एक संत बाबा थे । वे कहीं भिक्षाके
लिये गये । जाकर आवाज लगायी राम ! राम ! जिसके घर बाबाजी गये थे,
वह रोने लग गया । बाबाजीने पूछा‒‘भैया ! रोते क्यों हो ?’ वह बोला‒ ‘महाराज ! भगवान्ने मेरेको ऐसे ही पैदा कर दिया है
। तीन दिन हो गये चूल्हा नहीं जला है । घरमें कुछ खानेको नहीं है । भूखे मरता हूँ ।
आज संत पधारे, भिक्षा देनेको मन भी करता है,
पर देऊँ कहाँसे ?’ संतने कहा‒‘तू घबराता क्यों है ?
तू तो बड़ा भारी धनी है । तू चाहे तो त्रिलोकीको धनी बना सकता
है ।’ वह गृहस्थी कहता है‒‘महाराज ! आप आशीर्वाद दे दें तो ऐसा हो जाऊँ । अभी तो मेरी
परिस्थिति ऐसी है कि मुझे खानेको अन्न नहीं मिलता । आप कहते हैं कि लोगोंको धनी बना
सकता है, तो यह कैसे सम्भव है महाराज !’
बाबाने संकेत करते हुए कहा‒‘वह सामने क्या वस्तु पड़ी है ?’ ‘वह तो सिलबट्टा है महाराज ! पत्थर है,
जब रोटी मिल जाती है तो इसपर चटनी पीस लेते हैं ।’ बाबा कहते
हैं‒‘वह पत्थर नहीं है, वह पारस है । पारसका नाम सुना है?’ ‘हाँ सुना है ।’ तो पूछा‒‘पारस क्या होता है महाराज !’ ‘लोहेको छुआनेसे सोना हो जाय,
वह पारस होता है’, ‘पर महाराज ! यदि यह पारस होता तो मैं भूखा क्यों मरता ?’ संत कहते हैं कि ‘तू भूखा इसलिये मरता है कि उसको जानता नहीं । घरमें कुछ लोहा
है क्या ?’ ‘हाँ महाराज ! लोहेका चिमटा है । रसोई बनाते हैं तो चिमटा काममें
आता है ।’ वह ले आया तथा उसको पारससे छुआया,
पर लोहा सोना बना नहीं । बाबाने कहा‒‘इसपर जमी हुई चटनी,
मिर्च, मिट्टी साफ कर दे ।’ उसे साफ करके छुआया तो चिमटा सोना बन गया । संत बोले‒‘बता, अब तू धनी है कि नहीं !’ लोहेको सोना
बनानेवाला पारस मिल गया, अब धनी होते कितनी देर लगे । पारस तो पासमें ही था,
परंतु जानकारी न होनेसे उसे मामूली पत्थर समझता था । अब वह केवल
आप ही धनी नहीं बना, बल्कि चाहे जिसको धनी बना दे ।
(अपूर्ण)
‒‘मानसमें
नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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