(गत ब्लॉगसे आगेका)
मेरे विचारमें तो जैसे भगवान्का आश्रय कल्याण करनेवाला
है, ऐसे ही रुपयोंका आश्रय नरकोंमें और चौरासी लाख योनियोंमें
ले जानेवाला है । रुपयोंका आश्रय, रुपयोंका भरोसा, रुपयोंका
लोभ, रुपयोंकी आसक्ति, रुपयोंकी
प्रियता ही पतन करनेवाली है, रुपये नहीं । कोई ऐसा दोष नहीं, कोई
ऐसा पाप नहीं, कोई ऐसा दुःख नहीं, कोई
ऐसी जलन नहीं, कोई ऐसा संताप नहीं, जो
रुपयोंके लोभसे पैदा न होता हो । जितने दुःख हैं, वे
सब-के-सब रुपयोंके लोभमें ही हैं । अगर लोभका त्याग करके धनको अच्छे कार्यमें लगाया
जाय तो आपका धन सफल हो जाय, जीवन सफल हो जाय और दुनिया भी आफतसे बच जाय । एक दिन यह सब धन छूट जायगा,
पर उससे कल्याण नहीं होगा । अगर छूटनेसे ही कल्याण होता हो तो
सभी मरनेवालोंका कल्याण होना चाहिये; क्योंकि उनका शरीर,
धन, सम्पत्ति, वैभव, कुटुम्बी आदि सब छूट जाते हैं । परंतु इससे मुक्ति नहीं होती
। मुक्ति भीतरसे त्याग करनेपर होती है । लोभ है भीतर
और रुपये हैं बाहर । रुपये दोषी नहीं हैं, रुपयोंका
जो लोभ है, जो प्रियता है, लगन
है कि संख्या बढ़ती ही चली जाय‒यह वृत्ति ही महान् अनर्थ करनेवाली है । इसलिये सज्जनो
! आप सावधान हो जाओ तो बड़ी अच्छी बात है । तीस वर्षोंके भीतर-भीतर हम बड़े-बूढ़े तो शायद ही रहें,
पर आगे आनेवाली पीढ़ीके लिये आपने क्या सोचा है ?
उनकी क्या दशा होगी ?
प्रत्यक्ष सोचनेकी बात है । परन्तु मनुष्य दीर्घ दृष्टिसे सोचता
ही नहीं ! सरकारकी कुर्सी भी कितने दिन रहेगी ?
पर अनर्थ कितना भारी हो जायगा‒इसकी तरफ खयाल ही नहीं करते ।
पर किसको समझायें ? किसको कहें ?
कौन सुनै कासौं कहूँ, सुने तो
समुझै नाहिं ।
कहना सुनना समझना, मन ही
का मन माहिं ॥
इसलिये भाइयो, चेत करो । होशमें आओ और स्वयं विचार करो कि क्या दशा होगी देशकी
? बहुत-सी सम्पत्ति तो नष्ट हो गयी है । अभी अगर बचा लो तो कुछ बच सकता है ।
केवल रुपयोंके लोभके कारण चमड़ेका,
मांसका, गायोंका, बैलोंका व्यापार करते हैं;
क्योंकि इसमें रुपये ज्यादा पैदा होते हैं । मांस,
हड्डी, खून, जीभ, आँते, सींग, खुर, कलेजा, चमड़ा आदि अलग-अलग कर दिये जायँ तो बहुत दाम बँटते हैं । कसाईखानेके
पास आते ही गायके चार हजार रुपये हो जाते हैं । केवल रुपयोंके लोभसे ही गोहत्या हो
रही है ।
नरकोंके तीन दरवाजे बताये गये हैं‒काम,
क्रोध और लोभ । इनमें भी महान् नरकोंका दरवाजा है‒भोग और संग्रहका
लोभ । इसलिये आप लोगोंसे प्रार्थना है कि थोड़ा जाग्रत् हो जाओ । क्या करें ?
एक तो चमड़ा काममें न लायें । एक बात और आयी मनमें कि जितने घरके
सदस्य हैं, वे रोजाना एक-एक मुट्ठी चून (आटा) गायोंकी रक्षाके लिये निकालें
और उनका संग्रह करके गोशाला आदिमें दे दें । यह बात भी मैंने
अपनी प्रकृतिसे विपरीत कही है । काममें लायें तो बहुत अच्छा और नहीं लायें तो मर्जी
आपकी । ऐसी बहुत-सी बातें हैं, आप लोग ज्यादा सोच सकते हैं ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे
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