(गत ब्लॉगसे आगेका)
कलियुगमें नाम-महिमा
नामु रामको कलपतरु कलि कल्यान निवासु ।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ॥
(मानस,
बालकाण्ड, दोहा २६)
कल्पतरुमें सब चीजें रहती हैं । उससे जो चाहो,
मिल जाय । कलियुगमें मनचाहा पदार्थ देनेवाला ‘राम’ नामरूपी कल्पवृक्ष है और कल्याणका निवास-स्थान ‘राम’ नाम है । गोस्वामीजी महाराज कहते हैं कि इसके लिये मैं दूसरेकी
क्या गवाही दूँ । भाँग पीनेसे नशा आ जाय, बुद्धि बावली हो जाय और माथा खराब हो जाय,
ऐसा भाँगका प्रभाव होता है । मैं भाँगके समान था,
पर नामका स्मरण करनेसे भाँगके समान मैं तुलसीदास तुलसी बन गया
। तुलसी-दल बिना बढ़िया-से-बढ़िया चीजें भी ठाकुरजीके भोग नहीं लगती । इसलिये अब नामकी
महिमा कहाँतक कहूँ, मैं खुद ही उदाहरण हूँ ।
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका ।
भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
(मानस,
बालकाण्ड, दोहा २७ । १)
केवल कलियुगकी बात नहीं है । सत्ययुग,
त्रेता, द्वापर और कलियुग‒इन चारों ही युगोंमें और भूत,
भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंमें तथा स्वर्ग,
मृत्यु और पाताल तीनों ही लोकोंमें सब-के-सब जीव भगवान्का नाम
लेकर सदाके लिये चिन्तारहित हो गये ।
बेद पुरान संत मत एहू ।
सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥
(मानस, बालकाण्ड, दोहा २७ । २)
विशेष ध्यान देनेकी बात है । वेद,
पुराण और सन्त सबका इसमें एक मत है । क्या ?
‘सकल सुकृत फल राम सनेहू’
रामजी और रामजीके नाममें स्नेह हो जाय तो सम्पूर्ण
पुण्योंका फल मिल गया । मानो वे भाग्यशाली हैं, जो
भगवान्का नाम लेते हैं । नाम-जपमें स्वतः रुचि हो गयी तो समझना चाहिये कि सम्पूर्ण पुण्योंने आकर एक साथ
फल दे दिया । इसका रहस्य नाम लेनेवाले ही समझते हैं । साधारण आदमी समझ नहीं सकते ।
कलियुगमें विशेष क्या बात है ? वह आगे कहते हैं‒
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें ।
द्वापर परितोषत
प्रभु पूजें ॥
कलि केवल मल मूल मलीना ।
पाप पयोनिधि जन मन मीना ॥
(मानस,
बालकाण्ड, दोहा २७ । ३-४)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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